कहानी- वृंदा जीवन (Short Story- Vrinda Jeevan)

वृंदा दीदी ने क्लास में डायरी लिखने की बात कही, तब से मैं अपनी वेदना डायरी में लिखने लगी. पर कोई पढ़ न ले, इसलिए पन्ना फाड़ देती. धीरे-धीरे मेरी हिम्मत बढ़ती गई.. और जैसे-जैसे मेरी व्यथा डायरी में फलती गई, मेरा मन हल्का होता गया…
जैसे-जैसे किताब के पन्ने पलटते गए, वैसे-वैसे हिना की मानसिक स्थिति और उसका संघर्षभरा जीवन वृंदा के मानस पटल पर उतरता गया.

सुबह से दौड़भाग कर रही वृंदा ने दो बार घर देख लिया था कि कोई सामान छूट तो नहीं रहा है. एक दिन पहले ही बेटे अनुपम ने सामान पैक करके सुबह तैयार रहने के लिए कह दिया था. हमेशा की तरह इस बार भी वृंदा के जन्मदिन पर कहीं बाहर घूमने जाने की व्यवस्था की होगी. गाड़ी भेज रहा है यह तो ठीक है, पर यह भी तो कहना चाहिए था कि कहां जाना है, कितने दिन के लिए जाना है, कितना सामान ले जाना है? तभी डोरबेल के बजने से उनकी विचार श्रंखला टूटी.
इस समय कौन आया होगा? मणी को उन्होंने आज आने के लिए पहले ही मना कर दिया था. मंजी तो एक सप्ताह तक दिखाई देनेवाली नहीं है. अनुपम का ड्राइवर भी 11 बजे तक आनेवाला था. असमंजस में वृंदा ने दरवाज़ा खोला. सामने कुरियरवाला खड़ा था.
कुरियर लेकर अंदर आई वृंदा उसे उलट-पलट कर देखने लगीं. क्या होगा इसमें? भेजनेवाले का नाम भी नहीं दिखाई दे रहा था. आकाश के जाने के बाद मुश्किल से ही कभी इस घर में कुरियर आया हो. और आज अचानक इस तरह? एक साथ अनेक सवाल उनके मन में उठे. थोड़ा काम और घर के फर्नीचर पर चादर डालना बाकी था. ‘अभी तो अनु के ड्राइवर को आने में देर लगेगी, चलो पहले कुरियर देख लेती हूं. उसके बाद बाकी का काम कर लूंगीं…’ यह बड़बड़ाते हुए वृंदा कुरियर खोलने लगीं.
‘रतनपुर के संस्मरण’ (हिना सुधीर) शीर्षकवाली किताब देखकर उनकी धड़कन तो बढ़ी ही, किताब अर्पण में अपना नाम देखकर ख़ुशी और आश्चर्य से वह किताब के पन्ने पलटने लगीं. जैसे-जैसे वह रतनपुर के बारे में जो लिखा था पढ़ती गईं, वैसे-वैसे ख़ुद वहां बिताए अच्छे दिनों को याद करते हुए अतीत में खो गईं.
वृंदा नौवीं की परीक्षा देकर छुट्टियों में माता-पिता के साथ पहली बार रतनपुर गई थी. चारों ओर पेड़ों और पहाड़ों की श्रृंखला, रंग-बिरंगें फूलों, तरुओं की शीतल छाया में कलरव करते पक्षियों और कलकल करते झरनों के बीच बसा रतनपुर सुंदर तो था, पर वहां पहुंचने का रास्ता बहुत कठिनाइयों भरा था. वाहन को आधे रास्ते में ही छोड़ कर सांप की तरह टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर पैदल चल जंगल के बीच से वहां पहुंचना होता था. लाल मिट्टी के गारे से लीपी और देशी नरियों वाले छप्पर के छोटे-छोटे घर इधर-उधर बिखरे थे. गांव में अभी आधुनिकता का बिगुल नहीं बजा था. बिजली व टेलीफोन अभी वहां रहनेवालों ने देखा तक नहीं था. अच्छे-बुरे मौक़े पर गांव का एक आदमी पहाड़ी पर चढ़कर थाली बजा कर संदेश देता था. उसके बाद पूरा गांव इकट्ठा हो जाता. पहाड़ी गांव में ज्वार-बाजरा और मकाई के अलावा कुछ पैदा नहीं होता था. गुड़, सब्ज़ी बाजरा-मकाई की रोटी और जंगल में पैदा होनेवाली चीज़ों से पलते गांववाले त्योहारों पर जो खाना बनाते, उसके सामने होटल का महंगा खाना भी फीका लगता.


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मासूम वृंदा को तो रतनपुर की हरियाली और वहां के लोगों की सादी-सरल जीवनशैली इतनी भा गई थी कि उसने भविष्य में इन लोगों के लिए कुछ करने का निर्णय ले लिया था.
रतनपुर की यादगार मुलाक़ात के दस साल बाद शहर की बढ़िया नौकरी छोड़कर वृंदा उस इलाके के गरीब बच्चों को शिक्षा देनेवाली एक संस्था में शिक्षिका की नौकरी कर ली थी. पर्वतीय इलाके के लोग रोजी-रोटी के लिए दूसरे इलाकों में चले जाते थे. इसलिए अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए संस्था में छोड़कर साल-छह महीने में एकाध बार मिलने आते थे. इसलिए बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी वृंदा की ही होती थी. उन बच्चों के विकास के लिए ही वृंदा ने रतनपुर को अपनी कर्मभूमि बनाई थी. नौकरी के दौरान न जाने कितने बच्चे आए और गए, उनमें एक बच्ची वह हिना…
घर की डोरबेल फिर बजी.
“मांजी… ओ मांजी…” किसी ने आवाज़ लगाई.
अंजान आवाज़ से वृंदा चौंकीं.
“अनुपमजी ने भेजा है आपको लेने के लिए.”
“हां, आती हूं.”
फर्नीचर चादर से ढंककर, बाकी का काम जल्दी-जल्दी निबटाकर वृंदा गाड़ी की पिछली सीट पर बैठ कर वह किताब पढ़ने लगीं. लिखा भले हिना ने था, पर संस्मरण तो ख़ुद के थे न. इसलिए वह संस्मरणों में डूब गईं.
‘रविवार को घर से कोई मिलने आएगा, इस आशा में मेरे अलावा सभी लड़कियां राह देखती रहतीं. मुझ से तो कोई मिलने नहीं आएगा, यह उम्मीद होने से रविवार जल्दी न आए मैं यही सोचती रहती. संस्था में छोड़ जाने के बाद कभी कोई मुझे देखने नहीं आया था. घर जाने पर मुझे पता चला कि मेरे माता-पिता अलग हो गए हैं…’
किताब के ये वाक्य पढ़कर वृंदा अचानक चौंकीं. कुछ साल पूर्व की घटना याद आते ही वृंदा की नज़र के सामने अनुपम का मासूम चेहरा नाचने लगा. आंखें बंद करके वह कुछ सोचने लगीं, पर मन किताब पढ़ने के लिए ललचाने लगा.
‘मेरे मां-बाप एक-दूसरे से अलग हो गए और अन्य लोगों के साथ रहने लगे. मैं घर गई, तब बगलवाले चाचा ने पूछा, “तुम किसके साथ रहोगी?” मुझे तो दोनों के साथ रहना था, पर यह संभव नहीं था. इसलिए वह मुझे नानी के घर छोड़ गए. नानी मुझे संस्था के भरोसे छोड़कर चली गईं. उसके बाद मुझसे मिलने या मेरा हालचाल लेने कोई नहीं आया. मेरे साथ पढ़नेवाली लड़कियों की मम्मियां मिलने आतीं, तो उन्हें नहलातीं, उनके कपड़े धोतीं, उन्हें खिलातीं, तो मुझे भी अपनी मां की याद आती. इसलिए रविवार को मैं पूरे दिन कमरे के बाहर नहीं निकलती…
“तुम से कोई मिलने नहीं आया?” कभी कोई मुझसे पूछता, तो मैं “वे काम पर से आए नहीं होंगें…” यह कहकर मैं बात को टाल देती. मेरे मां-बाप अपनी नई ज़िंदगी जीने लगे थे, पर मेरा क्या? मेरी क्या ग़लती थी, जो मुझे इस तरह अकेली छोड़ दिया. न जाने कितने दिनों तक मैं यह सोचते हुए परेशान होती रही. मैं अपनी वेदना किसी से कह नहीं सकती थी, इसलिए में ख़ूब रोती.


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वृंदा दीदी ने क्लास में डायरी लिखने की बात कही, तब से मैं अपनी वेदना डायरी में लिखने लगी. पर कोई पढ़ न ले, इसलिए पन्ना फाड़ देती. धीरे-धीरे मेरी हिम्मत बढ़ती गई.. और जैसे-जैसे मेरी व्यथा डायरी में फलती गई, मेरा मन हल्का होता गया…
जैसे-जैसे किताब के पन्ने पलटते गए, वैसे-वैसे हिना की मानसिक स्थिति और उसका संघर्षभरा जीवन वृंदा के मानस पटल पर उतरता गया.
‘बेचारी हिना ने बचपन में कितना दुख झेला. मां-बाप ने अपने झगड़े में मासूम हिना के भविष्य के बारे में बिल्कुल नहीं सोचा…’ इसी तरह की बातें सोचते हुए वृंदा की छलकती आंखें फिर से किताब में मग्न हो गईं.
साल बीतते रहे और मै अधिक से अधिक समझदार होती गई. मनोबल मज़बूत करके पढ़ाई पूरी करके जीवन संवारने का कारण मात्र वृंदा दीदी थीं. उनका प्रेम, स्नेहभरा स्वभाव, जीवन जीने की शैली और उनका व्यक्तित्व देखकर मुझे बहुत हिम्मत मिलती. वृंदा दीदी और आकाश सर के सुखी परिवार को याद करके यही लगता कि अगर मेरे पिता भी आकाश सर की तरह समझदार होते, तो हमारा भी हंसता-खेलता परिवार होता…
आकाश का नाम पढ़कर वृंदा का मन विचलित हो गया. किताब किनारे रख कर मन में ही बोली, ‘सुखी परिवार! आकाश की समझदारी के बारे में हिना को कहां से पता चला? शहरी वातावरण में रचा-बसा आकाश मन से नहीं, मजबूरी में संस्था से जुड़ा था.
रतनपुर जैसे ही छोड़ने का अवसर मिला, मुझसे कहा था, “अगर तुम्हें मेरे साथ रहना हो, तो रतनपुर छोड़ कर शहर चलो. न चलना हो, तो मुझे तलाक़ दे दो और ज़िंदगीभर सेवा करती रहो.” अगर अनुपम पेट में न होता, तो मैं उसी समय आकाश को छोड़ देती. मजबूरी में आकाश के साथ शहर जाना पड़ा था.
आकाश प्राकृतिक अमृत छोड़ कर कृत्रिम मृगजल के पीछे भागा और उसी मृगजल रूपी कृत्रिमता ने उसकी जान ले ली. विचारों में खोई वृंदा की आंखें कब लग गईं, उन्हें ख़्याल ही नहीं रहा.
जागने पर वृंदा ने खिड़की का शीशा खोला, तो वही हरियाली, दोनों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों की श्रृंखला और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता. रास्ते के किनारे टोकरी में फल लिए खड़े बच्चे और लकड़ी की छोटे-छोटे खिलौने बेचते लोग. वृंदा को विश्वास ही नहीं हुआ कि वह अपनी कर्मभूमि की ओर जा रही है. पानी जमा करने के लिए बना डैम, रास्ते के किनारे दिखाई देती इक्का-दुक्का दुकानें और पहाड़ काट कर बनाई गई पक्की सड़क देखकर वृंदा को लगा, ‘अब यहां पहले जैसी दिक्कतें नहीं रही.’
मुख्य रास्ते से गाड़ी मुड़कर घने वृक्षों के बीच एक बड़े दरवाज़े के सामने रुक गई.
‘मातृछाया’ शीर्षक के नीचे अपना नाम देखकर वृंदा कुछ सोचतीं, उसके पहले ही अनुपम ने आकर उनके चरण स्पर्श करते हुए पूछा, “मां, जन्मदिन की भेंट कैसी लगी? मैंने इस संस्था को ख़रीद कर अब आपके नाम से शुरू की है.”


वृंदा कुछ कहतीं, उसके पहले ही संस्था के बच्चे दौड़कर वृंदा से लिपट गए. सभी को प्यार करते हुए वृंदा ने कहा, “मैं आ गई हूं. अब आगे का मेरा जीवन तुम लोगों के लिए है. अब किसी बच्चे को रविवार का डर नहीं सताएगा. माता-पिता के बगैर दुखी नहीं होना पड़ेगा.”
“क्या हुआ मां?” अनुपम ने पूछा.
“कुछ नहीं बेटा. सोच रही थी कि सालों पहले मैं और तुम्हारे पिता अलग हो गए होते, तो आज तुम्हारा क्या होता? उस समय तुम्हारे भविष्य के बारे में सोचकर जिस संस्था से दूर हुई थी, उससे फिर से मेरा मिलन करा कर तुम ने मुझे मेरे जीवन की मूल्यवान भेंट दी है. मेरे जीवन में पड़ी दरार को जोड़कर तुम ने मेरी कोख को रोशन कर दिया है.” कह कर भावविभोर वृंदा ने बेटे को सीने से लगा लिया.

वीरेंद्र बहादुर सिंह

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