महाभारत का युद्ध पूरे ज़ोर पर था। कौरव सेनापति एक दूसरे से बढ़कर वीर और रण कुशल थे। उनकी सेना भी संख्या में पाँडव सेना से अधिक थी।
परन्तु फिर भी पितामह भीष्म युद्ध स्थल से हटाये जा चुके थे। द्रोण का निधन हो चुका था। परन्तु कर्ण? कर्ण पर्वत की तरह अडिग खड़े थे। परशुराम के इस शिष्य को हराना इतना सरल नहीं था। संयम और सहनशीलता की मूर्ति युधिष्ठिर भी अधीर हो उठे। अर्जुन को छोड़ कर्ण बारी-बारी सब भाइयों को मात दे चुके थे। वह तो कुन्ती से वचनबद्ध होने के कारण उन चारों की हत्या नहीं की थी। पर कर्ण ने उन सब को उस बिन्दु तक ले जाकर छोड़ा था, जहाँ से वह सहजता से ही उनका वध कर सकते थे।
परन्तु यह जीवनदान स्वाभिमानी वीरों के लिए हार से भी बदतर था, मृत्यु से भयंकर था। हताशा से डूबे युधिष्ठिर ने संध्या काल के एक कमजोर क्षण में क्रोध अर्जुन पर निकाला।
“तुम स्वयं को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर समझते हो और उस सूतपुत्र को परास्त नहीं कर सकते। धिक्कार है तुम्हें, धिक्कार है तुम्हारे गांडीव को।”
अर्जुन अपनी भर्त्सना सुन सकते थे, अपने गांडीव की नहीं। जो भी उनके गांडीव का अपमान करेगा उसे वह जीवित नहीं छोड़ेंगे, ऐसा प्रण था उनका। परन्तु आज अपमान करने वाला और कोई नहीं, उसके ज्येष्ठ भ्राता थे- उसके पिता तुल्य। उनकी हत्या की बात तो सोची भी नहीं जा सकती थी। परन्तु अपना प्रण? उससे भी झूठे कैसे पड़ें? दुविधा में थे अर्जुन।
और उन्हें इस दुविधा से निकाला श्रीकृष्ण ने। उन्होंने एक राह सुझाई। पितृ निंदा पितृ हत्या के समान है। अतः तुम वैसा कर अपने प्रण की रक्षा कर सकते हो।
अर्जुन ने बड़े भाई की, उनके द्यूत व्यसन की कड़ी निंदा की। उन्हीं के कारण ही वह इस स्थिति को पहुँचे थे। पत्नी समेत वनों में भटके थे। वर्षों अपमान के दंश सहे थे।
युधिष्ठिर की प्राण रक्षा तो हो गई। परन्तु अर्जुन पर पाप लग गया- पितृ हत्या का। और अर्जुन इस बोझ को लेकर नहीं जी सकते थे, अतः उन्होंने आत्महत्या की ठानी।
संकट अभी टला नहीं था।
हर समस्या का हल खोज निकालने में निपुण कृष्ण ने एक अन्य राह सुझाई। ‘आत्मप्रशंसा आत्महत्या के समान है।’ अतः तुम आत्मप्रशंसा कर अपने पाप से मुक्त हो सकते हो। अर्जुन ने वैसा ही किया।
इस तरह अर्जुन का प्रण भी रह गया और दोनों भाइयों की जीवन रक्षा भी हो गई।
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‘आत्मप्रशंसा आत्महत्या के समान है।’ श्रीकृष्ण के इस कथन को आज कितने लोग याद रखते हैं। बड़ी-बड़ी डींगें मारना, स्वयं की झूठी प्रशंसा करना, औरों के काम का श्रेय स्वयं ले लेना- यह तो मानों इस युग की पहचान ही बन चुकी है।
– उषा वधवा
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