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हिंदी कहानी- लीव विद पे (Story- Live With Pay)

और बच्चे… आख़िर उन्होंने कब समझी थी मां की अहमियत… बस, अपनी फ़रमाइश उनके सामने रख देते थे, जो पूरी भी हो जाती थीं. बच्चे भी तो वही कर रहे थे, जो उन्होंने किया था. मशीन भी एक दिन चलते-चलते रुक जाती है, फागुनी तो भावनाओं से भरी एक इंसान है…

आज से मैं एक वीक की छुट्टी पर हूं और हां, यह लीव विदआउट पे है, क्योंकि यह पहला अवसर है और मैं अचानक घोषणा कर रही हूं. तुम अभी इसके लिए तैयार नहीं होगे, पर उसके बाद से वेतन सहित
छुट्टियां लिया करूंगी. हालांकि सरकारी नियम के अनुसार मेरी भी रिटायरमेंट की उम्र होने ही वाली है, पर मैं उससे पहले ही रिटायर होने की तुम लोगों को अर्जी दे रही हूं. समझ लो कि मैं वीआरएस ले रही हूं. वैसे भी तुम लोगों का बस चले, तो मैं तो कभी रिटायर होने से रही. मेरे लिए रिटायरमेंट की उम्र कहां तय की है तुम लोगों ने. असल में मुझे भी रिटायर हो जाना चाहिए, ऐसा ख़्याल तो तुम लोगों के मन को छुआ भी नहीं होगा…” फागुनी ने एक तरह से अपना फैसला सुनाते हुए कहा. एकदम सटीक शब्दों में इस तरह शायद वे पहले कभी नहीं बोली थीं और जितनी हैरानी उन्हें ख़ुद हुई थी अपनी साफ़गोई और दृढ़ता पर, उससे कहीं ज़्यादा बाकी सबको.
क्या बोल रही हैं फागुनीजी… सब एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे.
“आज लगता है मज़ाक करने के मूड में हो.” फागुनीजी के पति रमाकांत ने ज़ोर से हंसते हुए कहा.
“सही कह रहे हैं पापा आप, मम्मी आज मस्ती के मूड में हैं.” बड़ा बेटा रजत बोला, तो छोटा क्यों चुप रहता.
“मां, कौन-सी फिल्म के डायलॉग मार रही हैं आप.” विदित ने टीवी ऑन करते हुए कहा.
“कोई मज़ाक नहीं यह, मैं सीरियस हूं और जो कहा उसका पालन न स़िर्फ मैं करूंगी, बल्कि तुम सबको भी इसे मानना होगा.” फागुनी ने थोड़े तीखे स्वर में कहा.
अचानक सन्नाटा छा गया. फागुनी के चेहरे पर छाए भावों को देखकर लग रहा था कि वे सचमुच मज़ाक नहीं कर रही हैं. उनकी दोनों बहुएं एक-दूसरे का मुंह देखने लगीं. विदित ने तुरंत टीवी बंद कर दिया. सब इस बात को समझने में लगे थे कि फागुनी को हो क्या गया है.
“तुम क्या कह रही हो, कुछ समझ नहीं आ रहा. तुम कौन-सी नौकरी करती हो. अच्छा कहीं नौकरी करने का इरादा तो नहीं है तुम्हारा? अरे भई, इस उम्र में कोई नौकरी नहीं देगा. मुझे ही रिटायर हुए छह महीने हो गए हैं, कोई नौकरी नहीं मिल रही है.” रमाकांत के स्वर में इस बार परिहास का पुट नहीं था.
“क्या बाहर जाकर नौकरी करने को ही काम करना माना जाता है या कमा कर लाने को ही नौकरी करना माना जाता है. पता नहीं किसने अपनी सहूलियत के हिसाब से ये नियम बना दिए हैं. जो बाहर जाकर किसी और की चाकरी करे और चार पैसे कमाकर लाए, तो वह बढ़िया बात है, उसकी पूछ भी सभी करेंगे. लेकिन घर में रहकर पिछले 35 सालों से जो मैं दिन-रात तुम लोगों के नखरे उठा रही हूं, तुम लोगों की सारी फ़रमाइशें पूरी कर रही हूं, क्या वह किसी भी नौकरी के दायरे में नहीं आता?
सरकार भी 60 साल के बाद रिटायर कर देती है, तो क्या मैं 58 साल के बाद रिटायर नहीं हो सकती. महिलाओं को तो वैसे भी हर चीज़ में अतिरिक्त छूट मिलती है. अब मुझे भी आराम चाहिए. मैं भी अपनी तरह से ज़िंदगी जीना चाहती हूं. पता ही नहीं चला कि भागते-दौड़ते कब ज़िंदगी निकल गई और मैं ख़ुद को ही कुछ पल नहीं दे पाई.अब सब बड़े हो गए हैं. इनके परिवार हैं, संभालें अपनी-अपनी गृहस्थी.”
“तो क्या तुम्हारा घर-परिवार नहीं है यह, जो ऐसा कह रही हो, तुम्हारे ही तो बच्चे हैं, जिनके लिए तुमने किया. उन्हें इतने प्यार व ममता से सींचा. इस घर की नींव मज़बूत की. तुम्हारी वजह से मैं इतनी बेफ़िक्री से नौकरी कर पाया. न मुझे कभी अपने माता-पिता की चिंता हुई, न भाई-बहन की और न ही बच्चों की. सारी उम्र तुमने चुपचाप इस गृहस्थी को इतने बेहतर ढंग से संभाला है, फिर अचानक ऐसा ख़्याल तुम्हारे मन में कहां से आ गया फागुनी. अपने लिए अलग से जीने का क्या मतलब है. परिवार के लिए ही तो हम जीते हैं. तुम्हें कहां कमी महसूस हुई, जो आज दिल दुखानेवाली बातें कर रही हो. जो मांगा, सब दिया तुम्हें.” रमाकांत हैरान थे.

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“मैंने कब कहा कि आपने मुझे किसी चीज़ की कमी रखी. खाना-पीना, कपड़े, रहने को घर…दो बेटे… सब दिया… और इसके बदले मैं भी तो चुपचाप घर संभालती रही. आपसे कब किसी तरह की मांग की. जैसा वक़्त आया, उसके हिसाब से गुज़ारा कर लिया. आपके और बच्चों के सपनों को पूरा करने में जीवन गुज़ार दिया. इनके सपनों के पंख भी अब उग आए हैं. यहां तक कि दोनों पिता भी बन गए हैं. अब तो मैं भी अपनी रिटायरमेंट की एप्लीकेशन लगा ही सकती हूं.”
फागुनी की आवाज़ से लग रहा था कि मानो उसके कितने सपने चूल्हे की आग में जलते हुए दम तोड़ चुके थे. छोटी-छोटी चीज़ें, जो वह करना चाहती थीं, मन की भीतरी तहों में सिमटी रह गई थीं. कुछ ऐसा, जिसमें वह ख़ुद की निजता को तलाश कर पातीं… पत्नी, बहू, भाभी, किसी की चाची-मामी या मां से इतर केवल फागुनी के रूप में अपनी पहचान बना पातीं.
आख़िर क्यों नहीं समझ पा रहे हैं, मेरे बच्चे-बहू मेरे मन के खालीपन को… जबकि बहुएं ही तो हर समय एक स्पेस देने की बात करती रहती हैं, अपनी आइडेंटिटी को इतना महत्व देती हैं… मुझे क्या स्पेस नहीं मिलना चाहिए…? मेरी कोई पहचान नहीं होनी चाहिए…? फागुनी कैसे समझाए इन्हें. ये तो कहते हैं कि नई पीढ़ी बहुत सुलझी हुई है और जानती है कि उसे अपनी ज़िंदगी से क्या चाहिए और कैसे पाना है…
रमाकांत जवाब की प्रतीक्षा कर रहे थे. वह दुबारा कुछ पूछते, उससे पहले ही फागुनी बोलीं, “आपने जैसे कहा, मैंने किया. सास-ससुर की सेवा की, देवर-ननद का ब्याह किया, बेटों की परवरिश की… आपकी हर बात को सिर माथे लगाया… कभी विरोध तक नहीं किया…”
“आपने कोई एहसान तो नहीं किया मां. अपना दायित्व निभाया बस. सभी महिलाएं ऐसा ही करती हैं.” रजत ने उनकी बात काटते हुए तपाक से कहा.
यह सुन फागुनी चौंक गईं. उनका बेटा उन्हें याद दिला रहा है कि उन्होंने जो किया, वह तो उनका फ़र्ज़ था. सही कहते हैं, घर की मुर्गी दाल बराबर. बाहर जाकर पैसे न कमाओ, तो हर कोई जैसे चाहे हांकने को तैयार रहता है.
“नहीं बेटा, कोई एहसान नहीं किया, बस अपना कर्त्तव्य निभाया और अब कर्त्तव्य निभाने की बारी तुम लोगों की है. तुम लोग इतने लायक हो कि अपनी देखभाल ख़ुद कर सकते हो.
तुम्हारी बीवियां पढ़ी-लिखी और स्मार्ट हैं, चीज़ों को अच्छे से मैनेज करना जानती हैं और फिर सबसे बड़ी बात वे इंडिपेंडेंट हैं. ़फैसले लेना जानती हैं, मेरी तरह नहीं हैं कि कभी कोई फैसला ले ही न सकी. पहले तुम्हारे पापा से पूछ कर हर काम करती थी और अब तुम लोगों से. ठीक भी तो है, घर में जो रहती हूं मैं. ख़ैर, मैं इन सब बातों में नहीं पड़ना चाहती. एक हफ़्ते तक मैं घर का कोई काम नहीं करूंगी. धीरे-धीरे मैं अपनी लीव एक्सटेंड करती रहूंगी और उसके लिए पे भी लूंगी.”
“तुम्हें आख़िर किस चीज़ की कमी है फागुनी.” रमाकांत के स्वर में झुंझलाहट थी.
“घर में सब कुछ तो है. फिर किसलिए अलग से पैसे मांग रही हो.”
“आप मुझे अब से रेग्युलर पॉकेटमनी देंगे और रजत-विदित भी. हर महीने की पहली तारीख़ को मुझे वेतन मिल जाना चाहिए. घर के काम के एवज में दे रहे हो, यही समझकर दे देना. मेरी छुट्टी शुरू हो गई है और आज रात मैं अपनी दोस्त रमा के घर स्टे करूंगी. हमारा रात को मूवी देखने जाने और बाहर डिनर करने का प्लान है.” फागुनी के स्वर में दृढ़ता थी.
“मां, हम आपको मूवी और बाहर खाना खिलाने ले चलते हैं.” रजत की पत्नी हेमा ने कहा. मां घर का कोई काम नहीं करेंगी, सोचकर ही उसे घबराहट होने लगी थी.

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“सही कह रही हैं आप दीदी, आज मां को शॉपिंग भी करा देते हैं.” विदित की पत्नी मीलू ने फागुनी से चिपकते हुए कहा.
“वैसे भी आपके बिना आपकी पोती और पोते का मन नहीं लगेगा. दोनों को ही आपके साथ सोने की आदत है.”
“मीलू, वे बच्चे हैं, जल्दी ही उन्हें अपनी-अपनी मां के साथ सोने की आदत हो जाएगी. मैं चलती हूं.” फागुनी ने उन लोगों की बात अनसुनी कर कहा. एक बैग उठा वे घर से निकल गईं.
“हे भगवान, मां को क्या हो गया है.” फागुनी के जाते ही सब सिर पकड़कर बैठ गए.
मीलू सबसे ज़्यादा परेशान थी. “दीदी, चीनू तो मात्र एक साल की है. मां ने छुट्टी ले ली, तो आफ़त आ जाएगी. मुझे ही नौकरी छोड़ घर बैठना पड़ेगा. उफ़! क्या मुसीबत है.”
“अरे, तो गोलू भी कौन-सा बड़ा है, ढाई साल का ही तो है. मेरे से तो ठीक से संभलता भी नहीं है. सारा काम मां ही करती हैं उसके. हम दोनों मां के कारण ही तो मज़े से नौकरी कर पा रही हैं. घर का काम, बच्चों की देखभाल और जॉब… मैं तो नहीं मैनेज कर पाऊंगी. मेड रखनी पड़ेगी.” हेमा इस तरह सोफे पर धम्म से बैठी जैसे युगों से एक पांव पर खड़ी थी.
“तुम लोगों को घर के काम की चिंता सता रही है और मैं तो सोच रहा हूं कि मां को अलग से पॉकेटमनी कैसे दूंगा. ख़र्चा बढ़ जाएगा. अभी तो आराम से सेविंग हो रही थी, पर अब सेविंग में ही कटौती करनी पड़ेगी. ऊपर से तुम कह रही हो कि मेड रखनी पड़ेगी. जानती हो आजकल मेड भी दस-पंद्रह हज़ार से कम नहीं लेती हैं. पता नहीं मां का दिमाग़ किसने ख़राब किया है, जो इस उम्र में उन्हें आराम करने की सूझी है.” रजत चिल्लाते हुए बोला. उसे लग रहा था जैसे वह पागल हो जाएगा. वैसे भी वह बहुत ग़ुस्सेवाला था.
“और क्या भइया, काम भी नहीं करेंगी और वेतन की भी डिमांड कर रही हैं. बिना काम के तो सरकार भी वेतन नहीं देती और प्राइवेट
कंपनीवाले तो बात-बात पर पैसा काट लेते हैं. लेकिन मां क्या समझें इन बातों को. कितनी मेहनत से हम कमा रहे हैं. मूवी देखने और बाहर डिनर करने में ये पैसा उड़ाएंगी. पापा भी रिटायर हो चुके हैं. घर में पैसा देना होता है हमें. अब इन्हें वेतन देंगे, तो ख़रीद लिया मैंने अपने लिए थ्री बीएचके का फ्लैट गुड़गांव में.” विदित भुनभुनाता हुआ अपने कमरे में चला गया.
“पता नहीं महीने में कितनी लीव लेंगी. कभी एक दिन ऑफ करती हैं, तो चल जाएगा. संडे को लीव ले लिया करेंगी, तो मैनेज हो जाएगा. हालांकि संडे को ही तो हमें आराम करने का टाइम मिलता है. मीलू, मां को मनाना होगा बाई हुक और क्रुक कि वह केवल वीक में एक लीव ही लें, वरना हमारी तो शामत आ जाएगी.” हेमा बोली.
“दीदी, अगर मां नहीं मानीं, तो मैं तो अपने मायके शिफ्ट हो जाऊंगी. मुझे तो यह भी नहीं पता कि सब्ज़ी में नमक कितना डालते हैं. मेरी मम्मी ने कभी मुझसे कोई काम करवाया ही नहीं. हमेशा यही कहती थीं कि इतनी पढ़ाई-लिखाई करने और इतनी बढ़िया नौकरी क्या घर का चूल्हा-चौका करने के लिए कर रही है.”
“आज डिनर बनेगा कि नहीं गोलू को भूख लग रही है और मुझे भी.” रमाकांत की आवाज़ सुन हेमा रजत से बोली, “खाना बाहर से ऑर्डर कर दीजिए. मां कुछ बनाकर नहीं गई हैं और मेरे सिर में दर्द हो रहा है.”
“सबके लिए खाना मंगाने का मतलब है कि एक-डेढ़ हज़ार रुपए ख़र्च हो जाना. मैं मार्केट से ब्रेड लेकर आता हूं, तुम दोनों मिलकर सैंडविच बना लेना. आज का काम तो चलाओ, कल देखते हैं क्या होता है.” रजत ने ग़ुस्से में कहा.

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“भइया, आजकल की लड़कियों से कोई काम नहीं होता. भाभी तो फिर भी खाना बना लेती हैं, पर मीलू, उसे तो आलू भी उबालने नहीं आते, जबकि हाइली एजुकेटेड है. पता नहीं मां कैसे संभाल लेती हैं इतना कुछ.” विदित के मुंह से अनजाने में ही सच निकल गया था. ऐसा सच जो उन्हें चुभ रहा था, जिसकी वजह से उनकी आरामदायक ज़िंदगी में व्यवधान आ सकता था.
अभी तो सब कितने सुचारु रूप से चल रहा है…
उसके बाद फागुनी का जब-तब बाहर चले जाने का सिलसिला रुका नहीं. घर पर होतीं, तो भी कोई काम नहीं करती थीं. बच्चों को संभालने से भी उन्होंने मना कर दिया था. महीने की पहली तारीख़ को अपनी पे ली उन्होंने तीनों से.
दोपहर में उन्होंने पेंटिंग क्लासेस जॉइन कर ली थी और शाम को सैर पर निकल जातीं, वरना किसी न किसी सहेली के साथ कोई नाटक या एक्ज़ीबिशन देखने चली जातीं. कब से वह यह सब करना चाहती थीं, पर कभी अपने लिए समय मिला ही नहीं था उन्हें. सोचती थीं कि जब बेटों की शादी हो जाएगी, तो उन्हें फुर्सत मिल जाएगी, पर बहुओं ने तो बेटों के साथ-साथ अपनी व बच्चों की ज़िम्मेदारी भी उन पर लाद दी थी. वह भी थकने लगी थीं और ख़ुद के लिए जीना चाहती थीं.
बेटे-बहू, रमाकांत सभी परेशान हो गए थे. घर की पूरी व्यवस्था चरमरा गई थी. न समय पर खाना बनता था, न ही बच्चों का होमवर्क पूरा होता था. घर की साफ़-सफ़ाई की ओर किसका ध्यान जाता… घर की रौनक़ और ख़ुशहाली जैसे दोनों ही रूठ गई थीं.
“मैं तो कभी सोच भी नहीं सकता कि मां भी कभी थक सकती हैं. आख़िर वह मां हैं, वह थक कैसे सकती हैं, उन्हें आराम क्यों चाहिए…? वह भी रिटायर होना चाहती हैं…” रजत की खीझ दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी. लेकिन उसे ही नहीं, विदित और दोनों बहुओं को अब तक यह समझ आ गया था कि मां के बिना गृहस्थी की गाड़ी खींचना असंभव है.
“हमें उन पर इतना बोझ नहीं डालना चाहिए था. काम में उनकी मदद करते या बीच-बीच में ब्रेक दे देते, तो यह नौबत न आती.” हेमा की बात सुन मीलू ने भी सहमति जताई.
“काश, मां फिर से इस घर को संभाल लें. मैं खाना बनाना भी सीख लूंगी.” मीलू ने कहा. उन चारों के चेहरे पर पछतावे के
साथ-साथ ग्लानि के भाव भी थे.
“मां को भी स्पेस की ज़रूरत है.” विदित ने धीमे स्वर में कहा.
एक दिन जब फागुनी सैर के लिए निकलीं, तो रमाकांत भी उनके साथ हो गए. पत्नी के सान्निध्य ने उस क्षण उन्हें एहसास कराया कि न जाने कितनी मुद्दतें बीत गई हैं फागुनी के साथ अकेले कुछ पल बिताए. उसका चेहरा भी ठीक से देखे एक ज़माना हो गया है. बस, काम के लिए उसे पुकारते थे, फागुनी के वजूद से क्यों नहीं मिल पाए वे आज तक… भीतर कुछ कचोटने लगा उन्हें. जब वे रिटायर हो सकते हैं, तो फागुनी क्यों नहीं…?
और बच्चे… आख़िर उन्होंने कब समझी थी मां की अहमियत… बस, अपनी फ़रमाइश उनके सामने रख देते थे, जो पूरी भी हो जाती थीं. बच्चे भी तो वही कर रहे थे, जो उन्होंने किया था. मशीन भी एक दिन चलते-चलते रुक जाती है, फागुनी तो भावनाओं से भरी एक इंसान है… उसके भी तो कुछ सपने होंगे… उन्हें पूरा करने में उसकी मदद करेंगे अब वे… रमाकांत एक अपराधबोध से भर गए थे. वे भी कितने ठाठ से रिटायरमेंट के मज़े ले रहे हैं… फागुनी क्यों नहीं रिटायर हो सकती…
रमाकांत की तरह बाकी सब को भी यह बात कचोट रही थी कि मां के साथ अन्याय हुआ है. किसी ने भी तो नहीं सोचा कि उन्हें भी आराम की ज़रूरत होगी या वे भी अपने लिए कुछ पल चाहती होंगी. लेकिन उनसे कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी.
अगले शनिवार जब वे फिर अपनी फ्रेंड के घर चली गईं, तो संडे को मिलनेवाले रेस्ट के लिए दोनों बहुएं तरस गईं. घर का काम, मेड की उलझनें और बच्चों की देखभाल… क्या-क्या करें… उस पर कोई भी ठीक से न होने पर पति के ताने… कुछ सोचकर उन्होंने एक ़फैसला लिया.
दोपहर को हेमा व मीलू फागुनी की फ्रेंड के घर पहुंच गईं. उन्हें देख फागुनी हैरान रह गईं. वह कुछ कहतीं उससे पहले ही हेमा बोली, “मां, प्लीज़ घर चलिए, आपके बिना हम न तो अपनी गृहस्थी संभाल सकती हैं और न ही नौकरी. हमें माफ़ कर दीजिए. आपके ऊपर काम का बोझ और सारे दायित्व डाल हम तो बेफ़िक्र ज़िंदगी जी रही थीं, पर यह कभी सोचा ही नहीं कि आपको भी स्पेस की ज़रूरत है. अब हम आपके हर काम में हाथ बंटाएंगी और सारी ज़िम्मेदारियों को भी निभाना सीखेंगी.”
“हां मां, हम लकी हैं, जिन्हें आप जैसी सास मिली, जो सदा ही हम पर अपनी ममता लुटाती रही. जो चैन की ज़िंदगी हम गुज़ार रहे हैं, वह स़िर्फ इसलिए, क्योंकि आपने हमसे कभी कुछ काम करने को कहा ही नहीं और हम भी आपको फॉर ग्रांटेड लेते रहे कि जब आप कर रही हैं, तो हम क्यों करें. लेकिन अब हम सब मिलकर काम करेंगे. आपके बिना उस घर की कल्पना तक हम नहीं कर सकते. आपके दोनों बेटे भी शर्मिंदा हैं. आप जब कहीं जाना चाहें, चली जाया करिएगा.” मीलू की बात सुन फागुनी की आंखें
भर आईं.
उन्हें ही कौन-सा यह सब करना अच्छा लग रहा था. बस, वे तो इन लोगों को एहसास कराना चाहती थीं. पति, बेटे-बहू और बच्चों के बिना उन्हें भी तो सब कितना सूना-सूना लग रहा था. “अरे पदमा, पिक्चर देखने का प्रोग्राम किसी और दिन बनाते हैं. अभी तो मैं घर जा रही हूं,” फागुनी ने अपनी फ्रेंड पदमा से कहा और हेमा और मीलू का हाथ थाम एक नए विश्‍वास के साथ घर की ओर क़दम बढ़ा दिए.

  सुमन बाजपेयी

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Usha Gupta

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