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कहानी- प्रारब्ध (Story- Prarabdh)

Hindi Short Story जब छोटी-सी दामिनी अपने नन्हें हाथों में पापा का रूल लेकर कलेक्टर बन अकड़कर घूमती थी, तो पापा स्नेह से अपनी बिटिया को गोद में उठा लेते थे. उस वक़्त उनकी आंखों में भी वह यही चमक देखती थी. दामिनी के पाले सपने पापा ने अपनी आंखों में बसा लिए थे. फिर जाने कैसे और कब उसके सपने पापा के सपनों से अलग हो गए. क्या वास्तव में उसके सपनों को सहेज पापा ने एक भूल की थी? उसे इस मुक़ाम तक पहुंचाने के लिए पापा द्वारा की गई सख़्ती क्या क्षमा योग्य नहीं है? कोई नहीं पापा, मैं अविरल से शादी कभी नहीं करूंगी. अविरल तो क्या, मैं किसी से भी शादी नहीं करूंगी. मेरी शादी का ख़्याल आप अपने दिल से निकाल दीजिए. मेरी ज़िंदगी में पलाश की जगह और कोई नहीं ले सकता.” आज दामिनी को अपने ही शब्द अंतर्मन में गूंजते से प्रतीत हो रहे थे. तभी पलाश का फ़ोन आ गया, “दामिनी, आज तुम आ रही हो न? अंजलि तुम्हारा बेसब्री से इंतज़ार कर रही है.” ‘और तुम पलाश?’ वह पूछना चाहती थी, लेकिन पूछ नहीं पाई. अरसे बाद पलाश से मुलाक़ात हुई भी तो कैसे? कोई कहां जानता था कि पलाश, जिसे उसने इतने जतन से अपने हृदय में यूं संजोए रखा था, वह इस तरह मिलेगा. बार-बार आंखों के सामने एक स्कूल का जलसा नाच रहा था, जिसमें पुरस्कार वितरण के समय पुरस्कार लेने आई एक प्यारी-सी बच्ची ने अनायास ही उसका ध्यान खींच लिया था. उसे ड्रॉइंग कॉम्पटीशन में छह साल के वर्ग में प्रथम पुरस्कार मिला था. दामिनी उसके हाथ में पुरस्कार थमाते हुए पूछ बैठी, “आप बड़े होकर क्या बनोगे?” “परी मम्मी की तरह सिंगर...” उसके इस जवाब पर सब हंस पड़े. वह उस बच्ची से डॉक्टर, इंजीनियर जैसे जवाब की अपेक्षा कर रही थी, जो अक्सर बच्चे देते हैं. उसके जवाब की वह कायल हो गई और पूछ बैठी कि इस भावी सिंगर के पैरेंट्स कौन हैं, वो देखना चाहती है. तभी भीड़ से दो लोग उसकी ओर आते नज़र आए. उस प्यारी-सी बच्ची की मां उसी की तरह ख़ूबसूरत थी और बगल में ये पलाश? दामिनी की धड़कनें रुक-सी गईं. भीड़ और उसका शोर मानो गायब से हो गए थे. “दामिनीजी, ये इस बच्ची के पैरेंट्स...” तीन-चार बार बताने के बाद मानो वर्तमान में ज़बरदस्ती लाकर पटक दी गई हो. दामिनी ने तुरंत वस्तुस्थिति व अपनी पोज़ीशन का ख़्याल कर संभलते हुए उससे पूछा, “ये परी मम्मी क्या होता है? ज़रा मुझे भी तो बताओ.” बच्ची इठलाती हुई बोली, “मम्मी जादू की छड़ी से घर के, मेरे और पापा के सारे काम कर देती हैं. पापा कहते हैं कि मेरी मम्मी परी हैं, तभी तो मैं जो बोलती हूं, मम्मी झट से दे देती हैं, इसलिए वो हुई न मेरी परी मम्मी. मैं भी उनकी तरह सिंगर बनना चाहती हूं.” छोटी-सी वैभवी की प्यारी-प्यारी बातों ने सबको ख़ूब हंसाया, पर दामिनी के दिल में कुछ दरक-सा गया था. सभी अभिभावकों से बातचीत के दौरान उसकी निबद्ध नज़रें पलाश पर ही लगी रहीं. “कैसी हो दामिनी? तुम्हें इस मुक़ाम पर देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है. अंजलि, ये दामिनीजी हैं, हम दोनों एक साथ कॉलेज में थे.” पलाश के मुंह से निकला ‘जी’ शब्द दामिनी को खल गया. उसके दिल में बसे और सामने खड़े पलाश में कोई साम्य न था. बातों ही बातों में अंजलि और पलाश ने उसे घर आने का न्यौता दिया, तो पसोपेश में पड़ी दामिनी चाहते हुए भी मना न कर पाई या शायद पलाश के दिल में दबी राख को कुरेदकर बची चिंगारी की आंच को देखना चाहती थी. वॉर्डरोब से साड़ियां ढूंढ़ने में मशक़्क़त करनी पड़ी. सब एक जैसी बॉर्डरवाली सूती साड़ियां. “मैडम कोई आया है?” “आ-हां... उन्हें बिठाओ, मैं आती हूं.” उ़फ्! क्या पहनूं आज समझ में नहीं आ रहा है. दामिनी के दिल की धड़कन की गति वैसी ही थी, जब वह कॉलेज कैंटीन में अपने जन्मदिन पर पलाश का दिया गुलाबी सूट पहनकर उसका इंतज़ार कर रही थी. “पिंक कलर का सूट कैसे पहन लिया तूने, ये तो तुझे बिल्कुल पसंद नहीं है न?” संजना के पूछने पर वह मुस्कुरा दी थी. कैसे बताती कि यह पलाश का फेवरेट कलर है. दामिनी का हाथ एक गुलाबी साड़ी की ओर बढ़ा ही था कि वह एक अजीब-से संकोच से घिर उठी और उसके हाथ अनायास ही एक सुंदर-सी रेशमी साड़ी की ओर बढ़ गए. दामिनी तैयार हुई, तो कुछ देर ख़ुद को निहारती रही. उसे याद आया जब जन्मदिन पर अविरल ने उसे यही साड़ी देते हुए अर्थपूर्ण ढंग से कहा था, “दामिनी, मुझे तुम्हारी पसंद के बारे में नहीं मालूम है, पर इतना जानता हूं कि तुम इसे पहनकर बहुत अच्छी लगोगी और तुम्हें इसमें देखकर मुझे बहुत अच्छा लगेगा.” निर्विकार भाव से दामिनी ने उसे स्वीकार तो कर लिया, पर वह इसे कभी पहन नहीं पाई, लेकिन आज अचानक पलाश की पसंद का रंग न पहन उसने अविरल की दी साड़ी कैसे पहन ली, वो ख़ुद भी नहीं समझ पाई. अतीत और वर्तमान में हिलोरें लेती दामिनी तैयार हो बाहर आई, तो हाथों में लिए कुछ काग़ज़ों में दृष्टि गड़ाए पलाश नज़र आया. दामिनी को सामने देख, वो चौंककर खड़ा हो गया. यह भी पढ़ें: 2018 चार धाम यात्राः कैसे पहुंचें और किन बातों का रखें ख़्याल “सॉरी दामिनी, मुझे आने में देर हो गई. दरअसल, परसों एक सेमिनार है. उसके लिए एक प्रोजेक्ट तैयार करना है, उसमें मैं ऐसा डूब गया कि समय का पता ही नहीं चला.” पलाश की सहज बातें दामिनी की धड़कनों की रफ़्तार को थाम गईं. कुछ ही देर में दोनों पलाश के घर पहुंच गए. दामिनी ने 4-5 घंटे उसके यहां बिताए. अंजलि और वैभवी की स्नेहसिक्त बातों से दामिनी प्रभावित हुए बिना न रह पाई. अंजलि ने खाना बहुत अच्छा बनाया था. घर के रख-रखाव को देख कहा जा सकता था कि वैभवी की मम्मी वास्तव में परी मम्मी थी. पलाश अपनी पत्नी और बेटी के प्रति पूरी तरह समर्पित था. दामिनी के भीतर अभी भी बहुत कुछ बह रहा था. जाने क्यों पलाश उसे जाना-पहचाना नहीं लगा. पूरे समय वह अपनी बेटी वैभवी की उपलब्धियां गिनाता रहा. उसके छोटे-छोटे सर्टिफ़िकेट पलाश ने बहुत ही अच्छी तरह से संभालकर रखे थे. बातों-बातों में उसने बताया कि अंजलि गाती बहुत अच्छा है. बैठक के कोने में रखा तानपुरा भी मानो उनके जीवन में बिखरे सुरों को बयां कर रहा था. चारों ओर पलाश का वर्तमान अंजलि और वैभवी के रूप में अपने पूरे अस्तित्व के साथ खड़ा था. अतीत का एक कतरा भी शेष न था. दामिनी घर आकर निढाल-सी आंखें मूंदे सोफे पर ही लेट गई. अतीत अनेक सवालों के साथ सामने आकर खड़ा हो गया. दामिनी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि की थी. आंखों में सदा ही आकाश कुसुम तोड़ लाने के सपने मचलते, तभी उसकी मुलाक़ात पलाश से हुई. दिल के तार उससे कुछ यूं बंधे कि पता ही न चला. आंखों में पले पूर्व स्वप्न कब तिरोहित हो गए, वो जान ही न पाई. पलाश के प्यार की सुगंध कस्तूरी की भांति बयार को महका चुकी थी. उस दिन पापा की कड़कदार आवाज़ दिल को दहला गई थी, “सरिताजी, पूछिए अपनी लाडली से, शाम को किसके साथ थी?” मां हैरान-सी मुंह देखती रह गई, “दामिनी, तुम तो अपनी सहेली के यहां पढ़ने गई थी न?” दामिनी आंखें चुराते हुए बोल पड़ी, “पापा, पलाश नाम है उसका, शादी करना चाहता है मुझसे.” “करता क्या है?” “मेडिकल की पढ़ाई कर रहा है.” “ख़ुद तो मेडिकल की पढ़ाई कर रहा है और तुझे अपने लक्ष्य से भटका रहा है. बेवकूफ़ लड़की, क्यों अपने भविष्य को ध्वस्त कर रही है?” “पापा, पलाश बहुत अच्छा लड़का है. आप एक बार...” बात आधी हलक में ही अटक गई, पापा के झन्नाटेदार थप्पड़ के साथ घर में नीरवता छा गई. “पापा, आप अपना सपना मुझ पर क्यों लादना चाहते हैं?” दामिनी के शब्द पापा के सीने पर नश्तर से चला गए. उन्होंने चुप्पी साध ली थी. ब्लड प्रेशर पहले से ही था. मां की चिंता और उनकी मिन्नतें आख़िर में दामिनी को पिघला गईं. “हमेशा इंतज़ार करूंगा.” इन शब्दों के साथ मेडिकल के आख़री साल के ख़त्म होते ही पलाश बैंगलुरु चला गया. पर पलाश कहां उसका इंतज़ार कर पाया था? पलाश की शादी की ख़बर आई भी तो उस दिन, जिस दिन दामिनी को अपने आईएएस में सिलेक्ट होने की ख़बर मिली थी. घर पर जश्‍न की स्थिति थी. दामिनी पापा से नाराज़ थी. उन्होंने अपनी ज़िद उसके प्यार को रौंदकर पूरी की थी. “मम्मी, मैंने पापा का सपना पूरा कर दिया है. अब मुझसे कोई और उम्मीद आप लोग मत रखना.” मां उखड़ गई थी, “दामिनी, पापा ने तुम्हारा भविष्य बनाया है, कोई गुनाह नहीं किया. तुम्हारे जीवन को एक दिशा दी है.” “तो अब उसी दिशा में बहेगा मेरा जीवन.” दामिनी के प्रस्तर शब्द घायल कर गए थे. पापा उसे अक्सर समझाते, “हर चीज़ का समय होता है. जो मुक़ाम तुम्हें मिला है, वो कितने लोग पाते हैं. बचपन से ही तुम कुछ बड़ा करना चाहती थी. पढ़ने-लिखने और करियर बनाने की उम्र में तुम शादी के चक्कर में पड़ गई. उस वक़्त आवेश में पलाश के साथ जीवन बिताने का किया गया तुम्हारा फैसला तुम्हें ग़लत साबित करता. बचपन में तुम्हारे द्वारा देखे गए अधूरे सपने, कभी न कभी तुमसे हिसाब मांगते, तो क्या तुम चैन से रह पाती? अब जब तुम्हारा करियर बन चुका है, तो गृहस्थ जीवन अपनाकर अपनी ज़िंदगी को संपूर्णता प्रदान करो. वैसे यदि पलाश चाहता, तो तुम्हारा इंतज़ार कर सकता था.” पापा की ये बातें आग में घी डालने का काम करतीं. यह भी पढ़ें: हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं!  ‘पापा, पलाश आपकी वजह से मुझसे दूर हुआ है. मैं आपको कभी माफ़ नहीं करूंगी.’ दामिनी बोल तो न पाती, पर अपने आचार, व्यवहार से जता देती. पापा के भीतर बेटी के प्रति किए गए अन्याय से ग्लानि उत्पन्न होने लगी थी. वे अब कम ही बात करते, लेकिन मां तो मां ही थीं. वे अपने मान-अपमान की चिंता किए बगैर बेटी को मनाने का कोई प्रयास नहीं छोड़तीं. उन्होंने दामिनी के ब्याह की तैयारियों में कपड़ों से आलमारियां और बक्से भर लिए थे. “ये हरी साड़ी तुम पर बहुत फबेगी और ज़रा ये गोटा का काम तो देख, कितना सुंदर है. ये जोधपुर से करवाया है.” दामिनी उनकी उन बातों से चिढ़कर स्वयं को फ़ाइलों में डुबो लेती. सूती बॉर्डरवाली साड़ियां ही उसकी पहचान बन चुकी थीं. तभी दामिनी का तबादला सूरत में हो गया, जहां उसकी मुलाक़ात अविरल से हुई. अविरल को दामिनी की सादगी और कर्मठता भा गई थी. मम्मी-पापा को सरल स्वभाव का अविरल भा गया था, लेकिन दामिनी भावशून्य-सी पलाश के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई थी. आज जब परिस्थितियों ने पलाश से उसे मिलवाया, तो उसे महसूस हुआ कि इस लंबे अंतराल में बहुत कुछ बदल चुका है. पलाश समय के साथ आगे बढ़ चुका था. अपने परिवार और कार्यक्षेत्र में रम चुका था, पर दामिनी ठहरे हुए पानी की तरह वहीं रुकी हुई थी. यदि आज पलाश से मुलाक़ात नहीं होती, तो क्या वो पूरा जीवन यूं ही भ्रमित गुज़ार देती? पलाश ने ज़िंदगी के नए रंग अपना लिए थे, पर वो अपने जीवन को बेरंग किए बैठी थी. तभी दामिनी को पलाश के यहां बिताए लम्हों में याद आया कि किस तरह पलाश ने अपनी बेटी वैभवी की आइस्क्रीम खाने की ज़िद पर सख़्ती बरती थी. पलाश के इस व्यवहार से असहज दामिनी बोल पड़ी, “इतनी ज़िद कर रही है, तो थोड़ी-सी देने में क्या हर्ज है?” “अरे नहीं दामिनी, तुम नहीं जानती, इसे टॉन्सिल है. ठंडा बिल्कुल मना है इसे. गला ख़राब हो गया, तो हाई फीवर हो जाता है. दो हफ़्ते बाद एक सिंगिंग कॉम्पटीशन में भाग ले रही है, जिसके लिए इसने बहुत मेहनत की है.” उस वक़्त पलाश की आंखों में बेटी को सफल देखने की एक चमक-सी उभर आई थी. कुछ ऐसी ही चमक वो अपने पापा की आंखों में भी देखती थी. जब छोटी-सी दामिनी अपने नन्हें हाथों में पापा का रूल लेकर कलेक्टर बन अकड़कर घूमती थी, तो पापा स्नेह से अपनी बिटिया को गोद में उठा लेते थे. उस वक़्त उनकी आंखों में भी वह यही चमक देखती थी. दामिनी के पाले सपने पापा ने अपनी आंखों में बसा लिए थे. फिर जाने कैसे और कब उसके सपने पापा के सपनों से अलग हो गए. क्या वास्तव में उसके सपनों को सहेज पापा ने एक भूल की थी? उसे इस मुक़ाम तक पहुंचाने के लिए पापा द्वारा की गई सख़्ती क्या क्षमा योग्य नहीं है? नहीं, क्षमादान की पात्र, तो वह स्वयं है, जिसने पलाश के लिए अपने मम्मी-पापा का दिल दुखाया. जाने क्यों पापा को यादकर उसका कंठ अवरुद्ध-सा होने लगा. आख़िर कब तक पलाश को न पाने की सज़ा वह ख़ुद को और अपनों को देती रहेगी? कब तक वह अविरल की स्वयं के प्रति अनुरक्ति को यूं ही अनदेखा करती रहेगी और मम्मी के सपनों को सपना ही रहने देगी? नहीं, पलाश को खोने की सज़ा वह स्वयं को नहीं देगी. पलाश से मिलने के बाद आज उसे एहसास हुआ कि वह किस भ्रम में जी रही थी. अनायास दामिनी का हाथ फ़ोन की ओर बढ़ गया, भावावेश में वह पापा को फ़ोन मिला बैठी. फ़ोन मम्मी ने उठाया था, “हेलो मम्मी, मैं दामिनी, पापा हैं क्या?” मम्मी ने आशंका से भरकर रिसीवर पापा को पकड़ा दिया था. “पापा, कैसे हैं आप?” इतना बोलते ही आंखें पनियां आई थीं. रुलाई रोकने की कोशिश में गले में कांटे-से चुभने लगे थे. पापा चुप थे, पर उनकी चुप्पी बता रही थी कि बेटी के मुंह से यह बोल सुनने को वो कितना तरस गए थे. दामिनी के दिल का ज्वार उमड़ पड़ा था. “आपने कितना कुछ किया, लेकिन मैं...” “दामिनी, ये सब समय का फेर है, हमारा प्रारब्ध हमें कितना कुछ दे जाता है, पर हम उसकी कद्र करने में समय लगा देते हैं.” “पापा, आप और मम्मी अविरल के पैरेंट्स से मिलना चाहते थे न?” दामिनी की बात का अर्थ समझ वे जल्दी से बोल उठे, “बस, समझ गया. हम अगली गाड़ी से आ रहे हैं.” पापा की आवाज़ ख़ुशी से कांप रही थी. भ्रम की अंधेरी रात बीत चुकी थी. पलाश के मोहपाश से मुक्त दामिनी आनेवाले सुनहरे पलों को सहेजने के लिए तैयार थी.          मीनू त्रिपाठी

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