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कहानी- तीसरा पड़ाव (Story- Teesra Padav)

 

कमरे में एक विधवा, एक सधवा और एक कुंआरी विचारमग्न बैठी हैं. तीनों उम्र के इस तीसरे पड़ाव पर ठहर गई थीं. अब तीनों चुप थीं, पर उनके बीच पसरा सन्नाटा बोल रहा था. उस सन्नाटे में आशंका थी, ख़ौफ़ था और आनेवाले दिनों की चिन्ता गहरा रही थी…

दरवाज़े की घंटी बजी. पोस्टमैन ने शोभा को चिट्ठी पकड़ायी. सुमन की चिट्ठी थी. वह चहक उठी, इतने सालों बाद? वह जल्दी-जल्दी चिट्ठी पढ़ने लगी.

प्रिय शोभा,
तुमसे मिले तीस वर्ष हो गए और मेरी शादी को भी उतने ही वर्ष गुज़र गए. मैं अब रांची से दिल्ली आ गई हूं. दिल्ली में एक साहित्यिक आयोजन है, जिसमें तुम्हें कथा साहित्य पर कुछ बोलना है. इधर-उधर से हम अवश्य एक-दूसरे के बारे में जान रहे हैं, पर मिलने का बहुत मन हो रहा है. प्लीज़ शुभी आ जाओ. मुझे मालूम है तुम आजकल अकेली हो. तीस वर्षों का लेखा-जोखा भी बाकी है और तुम्हारे लिए एक सरप्राइज़ भी है. पता और फ़ोन नम्बर लिख रही हूं.
तुम्हारी,
सुमन

स्कूल से लेकर कॉलेज तक सुमन और शोभा की जोड़ी प्रसिद्ध थी. दूसरी लड़कियों से कुछ अलग-थलग-सी थीं दोनों. शोभा कहानियां लिखती, तो सुमन कविताएं. दोनों अपना लिखा हुआ एक-दूसरे को ही सुनाती रहतीं, फिर घंटों बहस भी होती.
कॉलेज जाने के दो साल बाद ही इनकी जोड़ी टूट गई. सेकेन्ड ईयर के बाद शोभा के लिए लड़का मिल गया और उसके मम्मी-पापा ने शोभा के रोने-धोने की परवाह किए बगैर उसकी शादी रचा दी. सुमन आगे पढ़ती गई. पढ़ाई अधूरी रह जाने के ग़म को मन में दबाए शोभा अपनी घर-गृहस्थी में रम गई. और करती भी क्या?
इस बीच एक दिन सुमन की शादी का निमंत्रण मिला. उसके पति विदेश से पढ़कर आए थे और रांची के किसी बड़े कॉलेज में प्रो़फेसर थे. सुमन ने भी पीएचडी कर ली थी और किसी स्थानीय कॉलेज में थी. शादी में बच्चों को लेकर शोभा जैसे-तैसे फेरों के समय तक पहुंच पाई, इसलिए सुमन से कुछ अधिक बात नहीं हो पाई थी उसकी. ख़ुश थी सुमन, ससुरालवालों ने सोने से लाद दिया था. बस वही शोभा की सुमन से अंतिम मुलाक़ात थी. रांची के पते पर एक-दो पत्र लिखे, पर कोई उत्तर नहीं मिला. बस इधर-उधर से छिटपुट समाचार अवश्य मिलते रहे, जिसमें सुमन के मां न बन पाने की चर्चा भी थी. सुमन को धन मिला, औलाद नहीं और शोभा पति की मामूली-सी नौकरी और चार बच्चों के साथ सिलाई-कढ़ाई करके और सिखाकर दिन काट रही थी. इन सारी परेशानियों के बीच लेखन तो बस नाममात्र ही रह गया. इस बीच अचानक मामूली-सी बीमारी में पति दर्शन नहीं रहे. वह ठगी-सी रह गई.
बच्चों का जीवन संवारना था वह भी अकेले. दिन-रात मेहनत करके बच्चों को पढ़ाया. बेटियों की शादी की. बेटे ने अपने जीवनसाथी का चुनाव स्वयं कर लिया. बस, उसके बाद धीरे-धीरे वह दिन-ब-दिन अकेली होती चली गई.
सुमन का पत्र पाकर शोभा ने दिल्ली जाने का मन बना लिया. स्टेशन पर दोनों ने कुछ पल की दुविधा के बाद एक-दूसरे को पहचान लिया और गले लग गईं. वर्षों बाद मिलने की ख़ुशी में दोनों की आंखों से आंसुओं की धार बह चली.
घर आने पर दरवाज़ा खोलकर कोई परदे की ओट में छुप गया. दरवाज़े के अन्दर शोभा के क़दम रखते ही कोई उससे लिपट गया.
“अरे भई चेहरा तो दिखाओ, आख़िर कौन हो तुम?” शोभा चौंककर बोली. बेल की तरह लिपटी किरण ने चेहरा ऊपर उठाया तो शोभा के मुंह से आश्‍चर्यमिश्रित चीख निकल गई, “किरण! कहां थी इतने सालों तक?”
“यही था तुम्हारे लिए सरप्राइज़.” सुमी खिलखिला उठी.
हाईस्कूल तक किरण भी इन दोनों के साथ थी. तीनों नाश्ते और खाने के बीच गप्पे भी मारती रहीं और एक-दूसरे के बदन के भराव को देख-देख कर अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों को याद करती रहीं, जब तीनों दुबली-पतली-छरहरी थीं.
रात हो चुकी थी. तीनों फुर्सत पाकर बैठीं, तो गुज़रा व़क़्त परत-दर-परत खुलता चला गया. पच्चीस वर्षों तक पति धीरज के साथ सुमन नारकीय जीवन जीती रही. नपुंसक धीरज ख़ुद को सही सिद्ध करने के लिए नये-नये उपाय अपनाता और दूसरों के साथ उसके अनैतिक संबंध और बांझ बता-बता कर जलील करता रहता. सुमन की नौकरी तो शादी के तुरंत बाद ही धीरज ने छुड़वा दी थी. एक तरह से सुमन को कैद करके रख दिया था धीरज ने. जैसे-तैसे वहां के नारकीय जीवन से मां के यहां आयी कि कुछ सुकून मिल जाए, पर वो भी नसीब न हुआ.

कुछ ठहरकर सुमन बोली, “तुम्हारे बच्चे तो हैं. मेरे पास तो वह भी नहीं.” शोभा कुछ देर तक फीकी हंसी हंसती रही. हंसते-हंसते ही वह सिसक उठी. थोड़ी देर बाद अपने आपको सम्हालते हुए बोली, “इस मामले में तुम्हें मालूम है सुमी, तुम मुझसे अधिक भाग्यशाली हो कि तुम्हें कोई कटघरे में खड़ा नहीं करेगा. बच्चे होते तो तुम उस घर से निकल नहीं सकती थी, अगर निकलती, तो बच्चे सारा दोष तुम पर ही लगा देते. तुम्हारे बच्चे पिता का महल छोड़कर तुम्हारे इस एक कमरे में रूखी-सूखी खाकर रहने वाले नहीं थे. अगर तुम बच्चों के लिए उसी नरक में ज़िन्दगी गुज़ार भी देतीं, तो भी बच्चे अपने पांव पर खड़े होते ही नज़रें फेर लेते. वो नहीं देखते कि साठ साल की उम्र में तुम कहां जाओगी? कहां रहोगी? आजकल अपने पेट से पैदा हुए बच्चे पति से अधिक बेरहम हैं.” तीनों बहुत देर तक सिसकती रहीं. इस बीच सुमन सबके लिए चाय बनाकर ले आई. रात गहराती जा रही थी.
किरण की कहानी भी कुछ कम दर्दभरी न थी. “मां बीमार रहती थी, जिससे बड़े भाई की शादी में सारी भागदौड़ मैंने ही की. भाई की शादी इसलिए की गई थी कि घर सम्हालनेवाली बहू आ जाए. बहू ने आकर घर नहीं सम्हाला, तो मैं ही घर सम्हालती रही. इस बीच भाभी के भांजे को मेरी छोटी बहन भा गई. कल को कोई ऊंच-नीच न हो जाए, सोचकर दोनों की शादी कर दी गई. मेरे बाद वाले भाई ने शादी नहीं की. मैं दूसरे नम्बर पर थी. चौथे नम्बर की बहन ब्याही गई. कुछ दिन बाद पांचवें नम्बर की बहन भी ब्याही गई. जैसे मैं ही उन सबकी मां थी. सारी ज़िम्मेदारियां निभाती गई. आज की स्थिति यह है कि घर में दो-दो भाभियां आ गई हैं. अब मेरी वहां किसी को कोई ज़रूरत नहीं रही. आजकल मां भी उन्हीं के स्वर में बोलती है. कहती है शादी-वादी करके इस घर से चली जा.” किरण सिसकने लगी.
“घरवालों के दिन-रात के ताने से तंग आकर मैं यहां आ गई. यहां रेडीमेड कपड़ों की फैक्टरी में नौकरी लग गई. किसी तरह जीवन ही गुज़ारना है न, सो गुज़र ही जाएगा. अब हम एक से दो हो गई हैं, तो मन को तसल्ली-सी हो गई है कि चलो कोई तो है अपना, अपने जैसा…”
घड़ी देखी तो सुबह के चार बज चुके थे. बाहर मॉर्निंग वॉक करनेवालों की छिटपुट आवाज़ें सुनाई दे रही थीं. किसी चिड़िया की सुरीली आवाज़ और दूर से जवाब में वैसी ही आवाज़ सुन शोभा सोच रही थी कि हर शहर की सुबह एक जैसी होती है और हर शहर में चिड़ियों का सुबह-सुबह यह सवाल-जवाब भी एक जैसा ही होता है, पर हर इन्सान का जीवन एक जैसा कहां होता है?
कमरे में एक विधवा, एक सधवा और एक कुंआरी विचारमग्न बैठी हैं. तीनों उम्र के इस तीसरे पड़ाव पर ठहर गई थीं. अब तीनों चुप थीं, पर उनके बीच पसरा सन्नाटा बोल रहा था. उस सन्नाटे में आशंका थी, ख़ौफ़ था और आनेवाले दिनों की चिन्ता गहरा रही थी… उम्र बढ़ रही है, अगर बीमार पड़ गए तो? चश्मे का नम्बर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है. अगर आंखों ने ही जवाब दे दिया तो? कहीं अगर लकवा… अपने पांव नहीं चल पाए तो? नौकरी भी कब तक करेंगे? शरीर ढल रहा है, पूंजी कोई है नहीं. साठ की उम्र के बाद कितने दिन कमा पाएंगे? ये सभी प्रश्‍न उन्हें अन्दर-ही-अन्दर मथ रहे थे. एक-दूसरे की उपस्थिति से दूर तीनों की सूनी वीरान आंखें छत पर टिकी थीं. जैसे वही उनका अपना कोई आसमान हो- सूना और खाली-खाली आसमान.
किरण इतने में उठकर बैठ गई, “अरे सुमन उठो, ऑफ़िस जाना है ना! अब कुछ मत सोचो तुम लोग, हम तीनों हैं न, एक-दूसरे की पूरक! हममें से कोई पहले ऊपर पहुंच भी गई, तो हम जैसी कोई और आकर इस कारवां में शामिल हो जाएगी. हमारी उम्र की अधिकांश औरतें परिवारों में रहकर भी अकेली और ठुकराई हुई हैं.” सुमन और शोभा उठकर बैठ गईं. तीनों अब मुस्कुराकर एक-दूसरे की तरफ़ देख रही थीं. तीनों ने एक-दूसरे के हाथ कसकर थाम रखे थे.

  सन्तोष झांझी

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