गुरुकुल में शिक्षा समाप्त होने पर तीन शिष्यों ने अपने गुरुजी से गुरुदक्षिणा बताने की विनती की. गुरु ने एक थैला भर सूखे पत्ते लाने को कहा. शिष्यों को लगा कि यह तो बहुत सरल काम है और वह जंगल की ओर चल दिए जहां हर ओर सूखे पत्ते बिखरे रहते हैं. पर उस समय वहां ज़मीन साफ़ थी. वह परेशान खड़े थे कि उन्हें वहां एक किसान आता दिखाई दिया. पूछने पर उसने बताया कि सुबह ही सब पत्तों को इकट्ठा कर उसने ईंधन के तौर पर प्रयोग कर लिया है.
तब वह तीनों पास के एक गांव में सूखे पत्तों की तलाश में पहुंचे. वहां भी सूखे पत्ते नहीं दिखे. इतने में एक व्यापारी मिला. उसने बताया कि उन सूखे पत्तों से दोने बनाकर वह बाज़ार में बेच आया है.
शिष्यों की सहायता करने के लिए उसने एक बूढ़ी स्त्री का पता बताया, जो रोज़ जंगल में पत्ते बीनने जाया करती थी.
परन्तु काम वहां भी नहीं बना. वह वृद्धा पत्तों को अलग-अलग छांट कर उनसे औषधियां बनाया करती थी.
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खाली हाथ और निराश- शिष्य गुरुजी के पास लौटे, तो गुरुजी ने पूछा, “ले आए सूखे पत्ते?”
“हमने तो सोचा था कि यह बहुत सरल काम है. नहीं जानते थे कि वह भी इतने उपयोगी होते हैं?” शिष्यों ने कहा.
गुरुजी ने कहा, “जब यह सर्वत्र सुलभ पत्ते भी व्यर्थ नहीं होते, तो हम कैसे किसी वस्तु या व्यक्ति को महत्वहीन मान उसका तिरस्कार कर सकते हैं?
इस सृष्टि में चींटी से लेकर हाथी तक और तलवार से लेकर सुई तक सब का अपना-अपना महत्व है.
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