समाज सुधार आंदोलनों के दौर में करीब 160 साल पहले हुई एक महत्वपूर्ण घटना ने 16 जुलाई को भारतीय इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज करा दिया. 16 जुलाई, 1856 को समाज सुधारकों की लंबी लड़ाई और प्रयास के बाद देश में ऊंची जाति की विधवाओं को पुनर्विवाह करने की अनुमति मिली. इससे पहले हिंदुओं में ऊंची जाति की विधवाएं दोबारा विवाह नहीं कर सकती थीं. इस कानून को लागू करवाने में समाजसेवी ईश्वरचंद विद्यासागर का बड़ा योगदान था. उन्होंने विधवा विवाह को हिंदुओं के बीच प्रचलित करने के लिए अपने बेटे का विवाह भी एक विधवा से किया. आइये उनके इस लड़ाई से जुड़ी कुछ और ज़रूरी बातें जानते हैं.
– विधवा विवाह का अभिप्राय ऐसी महिला से विवाह है जिसके पति का देहांत हो गया हो और वो वैधव्य जीवन व्यतीत कर रही हो.
– पहले भारत मे ब्राह्मण, उच्च राजपूत, महाजन, ढोली, चूड़ीगर तथा सांसी जातियों में विधवा विवाह वर्जित था. अन्य जातियों में विधवा विवाह प्रचलित थे.
– कुलीन वर्गीय ब्राह्मणों में ये व्यवस्था थी कि पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष किसी भी उम्र में दूसरा विवाह करके नया जीवन शुरू कर सकते थे.
– कई बार तो वो दूसरे विवाह के लिए किशोरवय लड़कियों का भी चुनाव करते थे और उन्हें उनकी इच्छानुसार विवाह के लिए योग्य वधु मिल भी जाती थी.
– लेकिन पति की मृत्यु के बाद महिलाओं को दूसरे विवाह की इजाज़त नहीं थी और उन्हें वे वैधव्य झेलने के लिए ही बाध्य थीं.
– इतना ही नहीं विधवा महिलाओं के साथ समाज में दुर्व्यवहार और कई परिवारों में तो पाशविक व्यवहार भी किया जाता था.
– विधवा विवाह को बेहद घृणित दृष्टि से देखा जाता था.
– समाजसेवी ईश्वरचंद विद्यासागर को ग़रीब और आम विधवाओं की व्यथाओं ने प्रभावित किया और उन्होंने इस कुरीति के खिलाफ़ जंग छेड़ दी. विधवाओं को समाज में सम्माननीय स्थान दिलाने के लिए लम्बी लड़ाई लड़ी.
– अक्षय कुमार दत्ता के सहयोग से ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह को हिंदू समाज में स्थान दिलवाने का कार्य प्रारंभ किया.
– इसके लिए उन्होंने संस्कृत कॉलेज के अपने दफ़्तर में न जाने कितने दिन-रात बिना सोये निकाले, ताकि वे शास्त्रों में विधवा-विवाह के समर्थन में कुछ ढूंढ सके.
– और आख़िरकार उन्हें ‘पराशर संहिता’ में वह तर्क मिला जो कहता था कि ‘विधवा-विवाह धर्मवैधानिक है’. इसी तर्क के आधार पर उन्होंने हिन्दू विधवा-पुनर्विवाह एक्ट की नींव रखी.
– उनके प्रयासों से 16 जुलाई 1856 यानी आज ही के दिन अंग्रेज़ी सरकार ने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित कर इस अमानवीय मनुष्य प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की कोशिश की.
– ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने पुत्र का विवाह भी एक विधवा से ही किया था. इस शादी का जहाँ एक तरफ़ बहुत से लोगों ने विरोध किया तो दूसरी तरफ़ ऐसे भी लोग थे, जिन्होंने इस शादी का पुरज़ोर समर्थन किया. हिन्दू विधवा पुनर्विवाह एक्ट पास होने के बाद होने वाला यह पहला कानूनन विधवा विवाह था.
बदलाव तो आया है, पर अभी और बदलाव की ज़रूरत
– विधवा पुनर्विवाह कानून बनने के बाद विधवाओं के जीवन में बदलाव तो आया है, पर अभी भी उनके लिए जीवन उतना आसान नहीं है.?
– विधुर पुरुषों के मुकाबले विधवाओं के पुनर्विवाह के मामले बहुत कम सामने आते हैं.
– तमाम सोशल बंधनों में जकड़ी ऐसी महिलाओं को अक्सर परिवार और सोसायटी नजरअंदाज कर देता है.
– आज भी वैवाहिक संपत्ति के बंटवारे में और बच्चों पर अधिकार में विधवा महिलाओं को वंचित कर दिया जाता है. – कामकाजी महिलाओं के लिए हालात फिर भी ठीक होते हैं, लेकिन आर्थिक रूप से परिवार पर आश्रित महिलाओं को बहुत तकलीफों का सामना करना पड़ता है.
हालांकि विधवाओं के जीवन सुधार के लिए समय-समय पर देश में कानून बनाये गये, लेकिन आज भी हमारे देश में विधवाओं के सामान्य जीवन से जुड़े तमाम कई ऐसे मसले हैं, जिनका हल किया जाना ज़रूरी है.
5.5 करोड़ से अधिक विधवाएं हैं भारत में
एक अनुमान के मुताबिक भारत में साढ़े पांच करोड़ से अधिक विधवाएं हैं. यह संख्या दक्षिण अफ्रीका और तंजानिया जैसे देशों की आबादी के लगभग बराबर है. विधवाओं की यह संख्या दक्षिण कोरिया या म्यांमार की आबादी से अधिक है.
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