सात जन्मों का बंधन कही जाने वाली शादी की उम्र दिन-प्रति-दिन घटती जा रही है. अग्नि को साक्षी मानकर मरते दम तक साथ निभाने की कसमें खाने वाले कपल्स अब कुछ साल भी साथ नहीं रह पाते. आज के मॉडर्न युग में जिस तेज़ी से तलाक़ के मामले बढ़ रहे हैं, उससे शादी के अस्तित्व पर ही संकट मंडराता नज़र आ रहा है. आख़िर युवाओं के लिए शादी निभाना इतना मुश्किल क्यों होता जा रहा है? पेश है ख़ास रिपोर्ट.
कमज़ोर होते रिश्ते
गांवों के मुक़ाबले महानगरों में तलाक़ के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं. एक सर्वे के अनुसार, 1960 में सालभर में जहां तलाक़ के एक या दो मामले ही आते थे, वहीं 1990 तक ये आंकड़ा 1000 को पार कर गया. 2005 में फैमिली कोर्ट में तलाक़ के 7 हज़ार से भी ज़्यादा मामले दर्ज़ थे. ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली में हर साल तलाक़ के 8-9 हज़ार केस दर्ज़ हो रहे हैं, वहीं मुंबई में ये तादाद क़रीब 5 हज़ार है. जीवनसाथी डॉट कॉम के एक सर्वे के मुताबिक, तलाक़ लेने वालों में 25-35 साल के कपल्स की संख्या ज़्यादा है. मैरिज काउंसलर डॉ. राजीव आनंद के मुताबिक, “आजकल के युवा शादी को कमिटमेंट की बजाय कन्वीनियंट (सुविधाजनक) रिलेशनशिप मानते हैं. जब तक सहजता से रिश्ता चलता है वो चलाते हैं और जब उन्हें असुविधा महसूस होने लगती है, तो बिना किसी गिल्ट के झट से रिश्ता तोड़ देते हैं.” कुछ जानकार टूटते रिश्तों के लिए शहरों में तलाक़शुदा महिलाओं को मिल रही स्वीकार्यता को भी ज़िम्मेदार मानते हैं. साइकोलॉजिस्ट मीता दोषी कहती हैं, “तलाक़ को अब लोग कलंक नहीं मानते. पहले तलाक़शुदा महिलाओं को घर तोड़ने वाली कहकर आस-पड़ोस वाले और नाते-रिश्तेदार ताने मारते थे. इतना ही नहीं, माता-पिता भी तलाक़शुदा बेटी को अपनाने से कतराते थे, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं. तलाक़शुदा महिलाएं अब समाज से नज़रें चुराकर नहीं, बल्कि गर्व से सिर उठाकर जी रही हैं.”
आर्थिक स्वतंत्रता
डॉ. आनंद का मानना है, “महिलाओं की आत्मनिर्भरता से भी उनके रिश्तों की लय बिगड़ गई है. आर्थिक रूप से मज़बूत होने की वजह से उन्हें लगता है कि जब वो अकेले सब कुछ मैनेज कर सकती हैं, तो घुटन भरे रिश्ते को ढोने की भला क्या ज़रूरत है? दिलचस्प बात ये है कि पुरुषों को कमाऊ पत्नी तो चाहिए, लेकिन उसे वे ख़ुद से ऊपर उठता नहीं देख सकते. पत्नी के सामने अपना रुतबा कम होता देख पुरुषों के अहं को ठेस पहुंचती है और यही ठेस उनकी शादीशुदा ज़िंदगी में दरार डाल देती है.” कुछ ऐसी ही राय साइकोलॉजिस्ट मीता दोषी की भी है. उनके मुताबिक, “आजकल महिलाएं इंडिपेंडेंट हो गई हैं, आर्थिक रूप से वो किसी पर निर्भर नहीं हैं. ऐसे में पति से अलग होने का ़फैसला करने पर उन्हें इस बात का डर नहीं रहता कि अलग होने के बाद उनका ख़र्च कैसे चलेगा? बच्चों का पालन-पोषण कैसे होगा या समाज क्या कहेगा?” पहले ज़्यादातर महिलाएं मजबूरी में खोखले हो चुके रिश्तों का बोझ भी ढोती रहती थीं. शहरों में तलाक़ के बढ़ते मामलों का एक बड़ा कारण डबल इनकम नो किड्स का बढ़ता चलन भी है. आजकल के ज़्यादातर दंपति करियर की ख़ातिर अकेले रहना पसंद करते हैं. ऐसे में तलाक़ की स्थिति में उन्हें ये डर भी नहीं रहता कि उनके अलग होने पर बच्चों पर क्या असर पड़ेगा?
साथ व़क्त न बिताना
बिज़ी लाइफस्टाइल के कारण पति-पत्नी के पास एक-दूसरे के लिए व़क्त ही नहीं रहता. कभी-कभी तो हफ्तों-महीनों तक वे एक-दूसरे से सुकून से बात तक नहीं कर पाते. ऐसे में उनके लिए एक-दूसरे को समझना मुश्किल हो जाता है, जिससे उनमें भावनात्मक दूरियां बढ़ने लगती हैं और रिश्ता टूटने की कगार पर पहुंच जाता है. औरतों से बहुत ज़्यादा उम्मीद की जाती है. पहले वो चुपचाप सब कुछ सह लेती थीं, लेकिन अब वो हिम्मत करके बोल रही हैं. जब बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता है, तो वो रिश्ता ख़त्म करने में ही भलाई समझती हैं. वैसे भी जिस रिश्ते में तिल-तिलकर रोज़ मरना हो उसे तोड़ देना ही बेहतर है.
कपल्स ख़ुद की आइडेंटिटी को ज़्यादा महत्व देने लगे हैं. रिश्ता टूटने के लिए कोई एक ज़िम्मेदार नहीं होता, ताली दोनों हाथों से बजती है. हो सकता है, एक 70 फ़ीसदी ज़िम्मेदार हो तो दूसरा 30 फ़ीसदी ही हो, लेकिन ग़लती दोनों की होती है.
– मीता दोषी, साइकोलॉजिस्ट
समाज व परिवार का सीमित दायरा
डॉ. आनंद कहते हैं, “आजकल किसी भी कपल की ज़िंदगी में समाज और परिवार का रोल सीमित हो गया है, जिससे उनके बीच की छोटी-मोटी अनबन या झगड़ों को सुलझाने वाला कोई नहीं रहता. मनमुटाव की स्थिति में कपल्स अपना धैर्य खो देते हैं और तुरंत अलग होने का ़फैसला कर लेते हैं. आजकल के युवा बेस्ट पार्टनर चाहते हैं, जो हर चीज़ में परफेक्ट हो, लेकिन वो पार्टनर की मदद कर उसे किसी काम में परफेक्ट बनाने की ज़हमत नहीं उठाते. रिश्ते टूटने की एक बड़ी वजह धैर्य की कमी है, जिससे कुछ समय बाद कपल्स का एक-दूसरे के प्रति प्यार व आकर्षण कम हो जाता है, यही वजह है कि लव मैरिज करने वाले भी आसानी से तलाक़ ले रहे हैं.”
प्यार व विश्वास में कमी
आई लव यू बोल देना ही इस बात का सबूत नहीं कि पति-पत्नी के प्यार की डोर मज़बूत है. महानगरों में जहां वर्किंग कपल्स की तादाद दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, उनके बीच प्यार व विश्वास उतना ही कम होता जा रहा है. घर लेट से आने या फोन न उठाने पर पति-पत्नी दोनों को ही लगने लगता है कि पार्टनर का किसी और से संबंध है इसलिए वो उन्हें नज़रअंदाज़ कर रहा है. फिर शक़ का यही बीज उनके रिश्तों को खोखला कर देता है. कई कपल्स तो अपने साथी की हर हरकत पर नज़र रखने के लिए उनके पीछे जासूस लगाने से भी नहीं हिचकिचाते. विश्वास ही शादी की बुनियाद है, अगर बुनियाद ही कमज़ोर हो जाए, तो शादी टिक पाना मुश्किल हो जाता है.
पहले जहां पति-पत्नी का रोल तय होता था, वहीं अब महिलाओं की भूमिका बदल रही है. उन्हें पहले से ज़्यादा अधिकार प्राप्त हैं और ये बात पुरुषों को हज़म नहीं हो रही. इसके अलावा आर्थिक, भावनात्मक और शारीरिक (सेक्सुअल) पहलू भी रिश्ता टूटने के लिए ज़िम्मेदार है. कपल्स को ढेर सारी उम्मीदें रखने की बजाय एक-दूसरे के अलग व्यक्तित्व को स्वीकारना चाहिए. शादी निभाने के लिए भव्य शादी समारोह की नहीं,
बल्कि समझदारी की ज़रूरत है.– चित्रा सावंत, मीडिया प्रोफेशनल
बहुत ज़्यादा अपेक्षाएं
डॉ. माधुरी सिंह के मुताबिक, “महिलाएं शादी निभाने की कोशिश करती हैं. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो वर्किंग वुमन के प्रति नज़रिए में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है. आज भी पुरुष ऐसी बीवी चाहते हैं, जो अच्छी दिखती हो, अच्छा कमाती हो और जो उनके घर-परिवार को भी अच्छी तरह संभाल सके, यानी पत्नी उनकी हर कसौटी पर खरी उतरे, जो संभव नहीं है.” आजकल पुरुषों को ही नहीं, बल्कि महिलाओं को भी अपने साथी से बहुत-सी उम्मीदें रहती हैं, जैसे- पति अच्छा दिखे, अच्छा कमाए, उसकी हर बात सुने, उसके माता-पिता का ज़्यादा ध्यान रखे आदि. साइकोलॉजिस्ट दोषी कहती हैं, “आजकल कपल्स की शादी से अपेक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं. एक-दूसरे से की गई ये अपेक्षाएं जब पूरी नहीं होतीं तो पति-पत्नी के रिश्ते में दूरियां आने लगती हैं और धीरे-धीरे ये दूरियां इस क़दर बढ़ जाती हैं कि उनके रास्ते ही अलग हो जाते हैं.”
दोनों ज़िम्मेदार
तलाक़ के लिए हर बार पति ही ज़िम्मेदार हो, ये ज़रूरी नहीं. 3 साल पहले लव मैरिज करने वाले मुंबई के दिनेश इन दिनों अकेले हैं. दिनेश कहते हैं, “मैं अपने माता-पिता का इकलौता बेटा हूं. शादी के बाद मेरी पत्नी को बेवजह न जाने क्यों मेरे पैरेंट्स से परेशानी होने लगी. वो चाहती थी कि मैं अपने मां-बाप को छोड़कर उसके साथ दूसरे फ्लैट में रहूं, जो संभव नहीं था. मैं अपने बूढ़े माता-पिता को अकेला नहीं छोड़ सकता, ये कहने पर वो मुझे ही छोड़कर चली गई और तलाक़ का नोटिस भेज दिया.”
तलाक क़ानून
हमारे देश में तलाक़ लेना आसान नहीं है. इसके लिए लंबी क़ानूनी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है, जिसमें सालों लग जाते हैं. हालांकि पिछले साल कैबिनेट ने हिंदू मैरिज एक्ट में कुछ संशोधन करके इसे आसान बनाने की कोशिश की है यानी अब पति-पत्नी यदि स्वेच्छा से अलग होना चाहें, तो ऐसे मामलों को अधिक समय तक लंबित नहीं रखा जाएगा. अदालत को ऐसे मामलों को जल्द से जल्द निपटाना होगा. पहले तलाक़ की अर्ज़ी देने के बाद पति-पत्नी को सुलह के लिए 6 महीने की समय सीमा दी जाती थी, लेकिन अब ये बाध्यता ख़त्म हो चुकी है. फिर भी अदालत को सही लगे, तो वो कपल्स को सुलह के लिए कुछ व़क्त दे सकती है.
– कंचन सिंह
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