कविता- सब्र (Kavita- Sabr)

चांदनी लहराती हुई
ज़मीं पर उतरी
और लिपट गई
खेत, खलिहान
ताल तलैया
नदी और समंदर की
लहरों से
धरती निहाल हो गई
और इंसान
इन ख़ूबसूरत नज़ारों में
कविता लिखने लगे
चांद को यह बात
कुछ रास नहीं आई
उसने अमावस्या बन
चांदनी को
अंधेरे में क़ैद कर दिया
कहते हैं परियों ने
चांद से धरती पे
उतरने की इजाज़त मांगी
चांद को तरस आया
और उसने
पूर्णिमा को जन्म दिया
और बस चांदनी रात में
परियां
राजमहल में बने
सरोवर में उतरने लगीं
क़िस्से और कहानी में
चांदनी

अमावस्या से
पूर्णिमा तक
हर रोज़
अपने दर्द का इज़हार करती है
अधूरी रह कर
और परियां
सिर्फ़ एक रात उतरती हैं
ज़मीं पर
बस तमन्नाओं की झील
दिल के राजमहल में
उन लम्हों के इंतज़ार का
सब्र कर सके…

– शिखर प्रयाग

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Usha Gupta

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