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कहानी- आज की लड़की (Short Story- Aaj ki ladki)

“क्या इससे तुम बदनामी से बच जाओगी?” “यही तो वो प्रश्‍न है, जिससे बचने के लिए सदियों से निर्दोष स्त्री सज़ा भुगतने पर विवश होती रही है… मुझे ऐसी बदनामी की कोई परवाह नहीं… अगर मैं ग़लत नहीं हूं तो डरूं क्यों? मैं आज की लड़की हूं, जो विषम परिस्थिति की चट्टान को भेदकर, सफलता की धारा बनकर प्रवाहित होने की कला भली-भांति जानती है… आप जो चाहते हैं, करें…”

ट्यूशन से लौटकर मीनाक्षी ने सायकिल बरामदे में रखी और चुपचाप अपने कमरे में चली आयी. रोज़ की तरह उसने न तो डाइनिंग रूम में टंगे मिट्ठू को दुलार किया और न ही मां से नाश्ते की फ़रमाइश ही की. कमरे में आकर उसने क़िताबें टेबल पर पटक दीं और आईने के सामने खड़ी होकर स्वयं को निहारने लगी. नहीं, उसमें तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. वो तो वही पुरानी मीनाक्षी है. सब की लाडली मीनू है…! फिर उसे आज ये एहसास क्यों हो रहा है कि मीनाक्षी न जाने कहां खो गयी है…? हंसती, खिलखिलाती, जीवन की उमंगों से भरपूर, बचपन की दहलीज़ लांघकर यौवन की मदिर सपनीली दुनिया में पग रखती, बाल सुलभ स्वभाव को अंक में समेटने का अब भी प्रयास करती, गुड़िया-सी लड़की सहसा औरत होने के एहसास से ठगी-सी क्यों खड़ी है…? नहीं, खड़ी कर दी गयी है.
“मीनू! क्या हुआ बेटी?”
मां ने नाश्ते की ट्रे टेबल पर रखते हुए पूछा, तो नम आंखें छिपाती मीनाक्षी बोली, “कुछ नहीं मां, ज़रा सर भारी लग रहा था. आप नाश्ता रख दीजिए, मैं फ्रेश होकर खा लूंगी.”
नाश्ता करके मीनाक्षी स्टडी टेबल पर बैठी, तो मन में बवंडर-सा चलने लगा. सामने खुली क़िताब के अक्षर धुंधलाने लगे. आंखों में फिर से आज का दृश्य झिलमिलाने लगा. अप्रत्याशित रूप से जब कोई सत्य अजीब स्वरूप में सामने आ जाता है तो इंसान जड़वत् खड़ा रह जाता है. मीनाक्षी भी इसी दशा में मूर्तिवत् खड़ी रह गयी थी, जब उसने सुना था, “आज तो तुम गजब ढा रही हो मीनू. कहना तो बहुत दिनों से चाह रहा था, पर आज तुम्हारे सौंदर्य के आगे चुप नहीं रह पाया. मैं… मैं… तुमसे… प्यार करने लगा हूं… ”
मीनाक्षी स्तब्ध, मूक-बधिर-सी खड़ी थी. सारा शरीर पसीने से भीग उठा था. पैर थरथराने लगे थे. अभी उसकी उम्र ही क्या हुई थी, मात्र अठारह वर्ष की ही तो थी वो. इंटर पास करके स्वर्णिम भविष्य का स्वप्न संजोए स्नातक करने के साथ-साथ प्रशासनिक अधिकारी बनने की चाह लिए उसने एक कोचिंग इंस्टीट्यूट में दाख़िला लिया था. शहर के इस नामचीन इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर थे डॉ. प्रकाश कुमार. सौम्य व्यक्तित्व के धनी डॉ. कुमार चालीस वर्ष की उम्र पार कर चुके थे और अब तक अविवाहित थे. यूं तो शहर भर में उनके रसिक मिज़ाज और सौंदर्यप्रिय होने के चर्चे आम थे. कई युवतियों के साथ उनका नाम जुड़ा था, पर हर बार डॉ. प्रकाश ने शालीनता और रहस्यमयी मोहक मुस्कान के साथ सभी बातों को अफ़वाह करार दिया था. उनका तर्क अकाट्य था… “सफल व्यक्ति के पीछे अफ़वाहों का जमघट होता ही है.” डॉ. कुमार राजनीतिशास्त्र के विद्वान कहे जाते थे. राजनीतिशास्त्र की छात्रा मीनाक्षी के लिए तो वो आदर्श थे.

“मां, अगर प्रकाश सर के इंस्टीट्यूट में मेरा दाख़िला हो जाए, तो मैं पहले प्रयास में ही आईएएस की परीक्षा पास करके दिखा दूंगी.” मीनाक्षी ने इंस्टीट्यूट की प्रवेश परीक्षा देने के बाद हुलसकर मां को बताया था.
मां-पापा की लाडली मीनाक्षी बचपन से ही आईएएस बनने का सपना संजोए आगे बढ़ती जा रही थी. छोटे भाई पीयूष की प्यारी मीनू दीदी… दादी की मुनमुन… को ईश्‍वर ने मुक्तहस्त से सौन्दर्य प्रदान किया था.
“ये तो साक्षात् दुर्गा का रूप है बहू… सुन्दरता में भी, तेज में भी.” उसकी दादी हमेशा गर्व से कहा करती थीं.
“मीनू, तुझ पर तो हर रंग फबता है… जिस रंग का कपड़ा तू पहनती है, लगता है वो जैसे तेरे लिए ही बना है.” मां भी दिन में हज़ार बार नज़र उतारती थी. मीनू का पसंदीदा रंग काला, जो उसके गोरे रंग पर ख़ूब फबता था, आज उसे तीव्र दाह, भीषण दहक से भर गया था. ठीक ही कहती थी मां, “तू काला कपड़ा पहनकर बाहर मत जाया कर. कहते हैं, काला रंग हर बुरी नज़र से बचाता है, पर तुझे तो इसी काले रंग के पहनावे पर किसी की नज़र लग जाएगी. मैं मां होकर आंखें हटा नहीं पा रही तो औरों का क्या हाल होगा?” और मीनाक्षी लाज और आह्लाद मिश्रित मोहक हास्य के साथ मां के गले से लिपट झूल जाती, “तुम भी न मां… अपनी बेटी किसे प्यारी नहीं लगती. मुझे किसी की बुरी नज़र नहीं लगनेवाली.”
पर उसे बुरी नज़र लग ही गयी थी. आज वो ख़ूब शौक़ से काला शिफ़ॉन का सूट पहनकर इंस्टीट्यूट गयी थी. क्लास ख़त्म होने के बाद डॉ. प्रकाश ने उससे ऑफ़िस में मिलने को कहा था. वो वहां पहुंची तो एक अप्रत्याशित सच उसकी प्रतीक्षा कर रहा था.
“पिछले पांच महीनों से रोज़ तुम्हें देख रहा हूं… देखो, मुझे ग़लत मत समझना, मैं… सच में तुमसे प्यार…”
“पर… सर आप… ये क्या कह रहे हैं…?”
मीनाक्षी का कम्पित स्वर कमरे में गूंज उठा, तो डॉ. प्रकाश ने उसके क़रीब आते हुए धीमे स्वर में कहा, “देखो, मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं… अपना घर बसाना चाहता हूं…”
मीनाक्षी की समझ में नहीं आ रहा था कि वो क्या कहे. उसका जी चाह रहा था, किसी तरह वह भागकर घर पहुंच जाए. कहां तो वो इस व्यक्ति में अपने अभिभावक, पिता, गुरु और आदर्श की छवि तलाशती थी और कहां इसका ये अजीब-सा रूप सामने आकर उसे दहला गया था.
“तुम अच्छी तरह सोचकर जवाब देना मीनाक्षी… मुझे जल्दी नहीं है, लेकिन ये तो सोचो कि मैं तुम्हारे करियर को कहां से कहां पहुंचा सकता हूं…”
डॉ. प्रकाश की आंखों में दंभ, गर्व, अभिलाषा के साथ इस सूक्ष्म घृणित भाव का स्पर्श स्पष्ट था कि मीनाक्षी उसकी प्रेयसी बन जाए. शिष्या… पुत्रीवत युवती… प्रेयसी… अंकशायिनी… उफ़! मीनाक्षी का माथा फटने लगा था. धड़कनों की थाप कनपटियों पर सुनाई देने लगी थी.

“मैं चलती हूं…” कहकर किसी तरह वो घर पहुंची थी. मन बेतरह खिन्न हो उठा था. सामने रखी क़िताब बंद करके उसने टेबल पर सिर रख दिया और रो पड़ी. छीः डॉ. प्रकाश ने ऐसा सोच भी कैसे लिया? वो सिर पर हाथ रखने की बात कहकर अपना आशीष ही व्यक्त करते हैं न…? आशीष, जो संतानतुल्य छात्र-छात्राओं को गुरु से सहज ही प्राप्त होता है, पर मीनाक्षी के साथ तो एकदम उल्टा हुआ है… बेटा… बाबू… बच्ची… बेटी… कहने वाली ज़ुबान से ‘प्रेयसी’ शब्द सुनकर उसकी आत्मा कैसी छलनी हुई है, वो ही जानती है. हे ईश्‍वर! अब क्या होगा…? मैं कैसे वहां सहज भाव से पढ़ सकूंगी? डॉ. प्रकाश की आंखों में कौंधते भाव को कैसे नज़रअंदाज़ करूंगी…? मेरी पढ़ाई अधर में लटक जाएगी… गुरु से मिला ये भीषण घात कैसे सहूंगी…? क्या आजीवन भुला पाऊंगी…? उसकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे थे.
पूरी रात वो सोचती रही. मन में तर्क-वितर्क चलता रहा. फिर उसकी सोच एक प्रश्‍न पर ठिठक-सी गयी… आख़िर उसका क्या दोष है? वो क्यों निर्दोष होते हुए भी किसी से नज़रें चुराए? नहीं… मुझे प्रकाश सर का सामना करना ही होगा… उसने मन ही मन निर्णय ले लिया था.
दूसरे दिन वो रोज़ की तरह क्लास में गयी. प्रकाश सर की नज़रें बार-बार उस पर फिसल रही थीं, पर वो ऐसे बैठी रही मानो कुछ हुआ ही न हो. “सर ऑफ़िस में बुला रहे हैं.” चपरासी की इस बात पर उसे ज़रा भी आश्‍चर्य नहीं हुआ.
“जी सर!”
“आज शाम कहीं घूमने चलें?” डॉ. प्रकाश की आंखें चमक उठी थीं.
“सर, आपको ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं. मेरी उम्र अभी करियर बनाने की है… और फिर आप अपनी उम्र का भी तो लिहाज़ करें…”
“व्हाट उम्र…? मुझे तुम पसन्द हो, दैट्स ऑल.” डॉ. प्रकाश बिफर उठे थे.
“पर मुझे ख़ुद पर शर्म आ रही है कि मैंने कैसे आप जैसे व्यक्ति को अपना आदर्श मान लिया.”
मीनाक्षी के शब्दों ने जैसे आग में घी का काम कर दिया. डॉ. प्रकाश अपना आपा खो बैठे. “गो टू हेल… जाओ… निकल जाओ यहां से. पर याद रखना इस शहर में चैन से नहीं जी पाओगी… मेरे एक इशारे पर…”
आगे के शब्द डॉ. प्रकाश के मुंह में ही रह गए. मीनाक्षी तेज़ क़दमों से ऑफ़िस से बाहर निकल गयी.
घर पहुंचकर वो चुपचाप अपने कमरे में बंद हो गयी. भय, दुख, पीड़ा और अपमान की सम्मिलित अनुभूति ने उसके कोमल मन को तार-तार कर दिया था. ‘क्या वो मां के सामने मन की व्यथा रख दे? क्या मां उसे समझ पाएगी? कैसे लड़े वो इस परिस्थिति से?’ कई सवाल मीनाक्षी के अंतर्मन में तीक्ष्ण सुई की चुभन-सा दंश दे रहे थे. बार-बार उसे दादी मां की कही एक बात याद आ रही थी… “हमारा समाज बड़ा विचित्र है मुनमुन! कैसी भी परिस्थिति हो, प्रत्येक ग़लती का दोष स्त्री के सर ही मढ़ दिया जाता है.”
‘नहीं… ये पुरानी अवधारणा थी. मैं आज की लड़की हूं… मुझमें सही निर्णय लेने की क्षमता है.’ मीनाक्षी ने मन ही मन दृढ़ता से दोहराया.
“मीनू तुम्हारा फ़ोन है.” मां ने पुकारा तो वो गहरी सोच से उबरी.
“किसका फ़ोन है मां.?”
“तुम्हारे प्रकाश सर का… तुम्हारी प्रशंसा कर रहे थे… मीनाक्षी जैसी बुद्धिमान लड़की पर सब को नाज़ होना चाहिए…” मां गर्व से फूली नहीं समा रही थी, लेकिन मीनाक्षी का चेहरा विवर्ण होता जा रहा था.
“हैलो!” उसने थरथराते स्वर में कहा.
“मैं अभी… इसी व़क़्त तुमसे मिलना चाहता हूं… तुम…”
“मैं कल क्लास के बाद ही मिलूंगी.” कहकर मीनाक्षी ने फ़ोन रख दिया.
दूसरे दिन अपनी क्लास के बाद मीनाक्षी डॉ. प्रकाश से दो टूक बात करने का निर्णय लेकर उनके ऑफ़िस पहुंच गई.
“देखिए सर, मेरे मन में आपके लिए जो थोड़ी इ़ज़्ज़त बची है, उसे रहने दीजिए. ऐसा न हो कि मैं अपनी सीमा भूल जाऊं.” मीनाक्षी ने सीधे स्वर में कहा तो डॉ. प्रकाश चिढ़कर बोले, “अजीब हो तुम, तुम्हारे सामने एक स्वर्णिम भविष्य खड़ा है और तुम बेकार की बातों में समय गंवा रही हो. मेरी पहुंच कहां तक है, तुम शायद जानती नहीं… किस तरह ‘सेटिंग’ करके मैं अपने प्रिय छात्रों को उच्च पदों तक पहुंचाता हूं, तुम्हें क्या पता?”
“एक बात पूछूं…?”
“हां!”

“सरिता सिंह भी तो आपकी प्रिय छात्रा थी न, जिसके साथ आप विवाह करना चाहते थे?” इस प्रश्‍न पर डॉ. प्रकाश बौखला से गए. “करना चाहता था… पर आज की डेट में मैं तुमसे प्यार करता हूं.”
“कल की डेट में किसी और से प्यार नहीं होगा, इसका प्रमाण दे सकते हैं?”
“तुम… मुझसे… डॉ. प्रकाश से… इस तरह की बातें कहने का साहस आख़िर कैसे कर सकती हो?” डॉ. प्रकाश आपा खोने लगे थे.
“क्योंकि मैं अपने चारित्रिक बल पर गर्व करती हूं. मुझे पता है कि क्या सही है और क्या ग़लत. भावनाओं में बहकर इंसान के हाथ केवल निराशा की धूल ही लगती है… अनुभूति की मिठास नहीं… रही बात भविष्य की… तो मैं आज की लड़की हूं… मुझे अपना भविष्य संवारना आता है.” मीनाक्षी की बात बीच में ही काटते हुए डॉ. प्रकाश ने ग़ुस्से से तिलमिलाते हुए कहा, “भविष्य? मैं चुटकी बजाते ही तुम्हारा भविष्य बर्बाद कर सकता हूं… मैं चाहूं तो…”
“स़िर्फ आपके चाहने से क्या होगा सर…? अगर चाहूं तो मैं भी प्रेस के सामने आपका सारा कच्चा चिट्ठा खोल कर रख सकती हूं. आपका दर्शनशास्त्र… ओछापन… सेटिंग… वेटिंग… सब दुनिया के सामने उजागर हो जाएगी.” हतप्रभ डॉ. प्रकाश ने पूछा. “क्या इससे तुम बदनामी से बच जाओगी?”
“यही तो वो प्रश्‍न है, जिससे बचने के लिए सदियों से निर्दोष स्त्री सज़ा भुगतने पर विवश होती रही है… मुझे ऐसी बदनामी की कोई परवाह नहीं… अगर मैं ग़लत नहीं हूं तो डरूं क्यों? मैं आज की लड़की हूं, जो विषम परिस्थिति की चट्टान को भेदकर, सफलता की धारा बनकर प्रवाहित होने की कला भली भांति जानती है… आप जो चाहते हैं, करें…”
इतना कहकर मीनाक्षी दृढ़ चाल से ऑफ़िस से बाहर चली आई. जड़वत् खड़े डॉ. प्रकाश रुमाल से माथे का पसीना पोंछते हुए कुर्सी पर बैठ गए. आज तक हर लड़की को वो जिस दृष्टिकोण से आंकते आए थे, उसकी धज्जियां उड़ गई थीं.
“कैसे हो मिट्ठू राम?” तोते का पिंजरा ज़ोर से हिलाकर खिलखिलाकर हंसती मीनाक्षी को देखकर मां ने पूछा,
“आज बड़ी ख़ुश हो मीनू.”
“हां, क्योंकि मैं जान गयी हूं लड़की की सबसे बड़ी सुन्दरता है स्वयं सही निर्णय लेने की क्षमता. अपनी कठिनाइयों से ख़ुद जूझने की हिम्मत, है न मां?” कहकर मीनाक्षी मां के गले से लिपट गयी.


        डॉ. निरुपमा राय
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Meri Saheli Team

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