कहानी- आत्मावलोकन (Short Story- Aatmaavlokan)

शगुन भी आश्चर्य करती की यह फोन पर अपने परिवारजन से बात करते कभी भी ऊंची आवाज़ नहीं करती. हमेशा ख़ुशमिजाज़ रहना, गुनगुनाते हुए काम करना, आगे बढ़कर लोगों की मदद करना जैसे काम से शगुन यक़ीन नहीं कर पा रही थी कि कोई इतना सहज कैसे रह सकता है. उसको कमतर आंकते वो अक्सर उस पर अपना हुक्म चलाने का प्रयास करती. सीमा सरल रहते या तो उसकी बात मान लेती या हंसी में ऐसे टालती की शगुन को बुरा भी नहीं लगता. शगुन अपने पूर्व की उपलब्धियों के बखान उसके सामने कर अपनी तारीफ़ सुनने को बेताब रहती, पर सीमा उसके मन-मुताबिक़ प्रतिक्रिया नहीं देती, तो वो और बैचेन हो जाती.

बचपन से ही बहुत तेज-तर्रार थी शगुन. चार साल की उम्र से ही उसे लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचना आ गया था. ऊर्जा से भरपूर कुछ ना कुछ करते रहना उसकी फ़ितरत बन गई थी. चाहे ग़लत हो या सही, जोड़ना, तोड़ना, बनाना, बिगाड़ना फिर बना देना यही सब चलता ही रहता था. माता-पिता को भी उसके अंदर एक सामान्य से कहीं अधिक बुद्धिमान बच्चा नज़र आता, जिसको प्रदर्शित करने का दोनों ही कोई मौक़ा नहीं चूकते. मित्रों, जानकारों के सामने उसके चित्रों का बखान हो या कोई नया क्राफ्ट बढ़-चढ़ कर उसकी प्रशंसा की जाती. शगुन भी अब इतनी अभ्यस्त हो चुकी थी कि उसे हर समय प्रशंसा आवश्यक हो गई. कोई अगर प्रशंसा ना करें, तो वो नाराज़ और चिड़चिडी़ हो जाती. उसे लगने लगा की बस वो ही सबसे बेहतर है और वो ही सब कुछ जानती है.
दस साल की होते-होते पढ़ाई में अपनी प्रभुता रखते अब वो अन्य बच्चों के अलावा टीचर्स को भी कमतर आंकने लगी थी. पढ़ाती टीचर्स को बीच में टोकना और अपनी महत्ता दर्शाती बात को बेमौक़े रखने से उससे टीचर्स परेशान होने लगे. पर अच्छे अंक सफलता और बेहतरी का मापदंड होना शगुन की सभी ग़लतियां ढापने के लिए काफ़ी था. ‘मैं अच्छी हूं’ से ‘मैं ही अच्छी हूं’ के भाव ने कब मज़बूती से व्यवहार में जगह बना ली इसका आभास भी शायद शगुन को नहीं हो पाया. किशोरावस्था से वयस्क होने तक उसके ‘अटेंशन सीकर’ का भाव भी वयस्क हो चुका था.

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पहले से ही तय लक्ष्य की प्राप्ति में एक कदम आगे बढ़ाते उसने भौतिक शास्त्र में स्नातक होने के लिए दिल्ली के नामी कॉलेज में प्रवेश ले लिया था. खोजी और जिज्ञासु मन ने एक नामी वैज्ञानिक बनने की ठान ली थी. अपने को सबसे बेहतर माननेवाली शगुन को नए माहौल और लोगों के साथ तालमेल बिठाने में काफ़ी मुश्किल पेश आने लगी. वहां सब एक से बढ़कर एक क़ाबिल और तेज दिमाग़ लोगों का समंदर था, जो शगुन जैसे छोटे से पोखर का ध्यान खींचने में असमर्थ था. सेंटर ऑफ अट्रैक्शन रहने की आदि शगुन के लिए यह एक बहुत ही असहज स्थिति थी. आते ही अपने झंडे गाड़ देने का ख़्वाब लेकर आई छोटे शहर की लड़की के लिए यह किसी गहरे दुख से कम नही था. वाह-वाह और शाबाश सुनने के आदि कान अब उसके आगे बढ़कर किए मित्रता प्रस्ताव पर भी उपहास के शब्दों से आहत हो रहे थे. रोज़ शाम को अपने माता-पिता से फोन पर भड़ास निकालने उसे एक महीने से ज़्यादा हो गया था, पर पांच हज़ार विद्यार्थियो के विश्वविद्यालय में वो सिर्फ़ एक मित्र बना पाने मे सफल हो पाई थी और वो भी उसकी रूम पार्टनर थी. इसलिए उसके साथ वक़्त गुज़ारना इच्छा से ज़्यादा मजबूरी थी. सीमा दक्षिण भारतीय, कम बोलनेवाली लड़की थी. शांत मिजाज़ और चेहरे पर सदा दिखनेवाली मंद मुस्कान उसकी पहचान थी. शगुन की बातें वो बडे़ ध्यान से सुनती और बहुत कम शब्दों में अपनी बात को कह लेती थी. शगुन भी आश्चर्य करती की यह फोन पर अपने परिवारजन से बात करते कभी भी ऊंची आवाज़ नहीं करती. हमेशा ख़ुशमिजाज़ रहना, गुनगुनाते हुए काम करना, आगे बढ़कर लोगों की मदद करना जैसे काम से शगुन यक़ीन नहीं कर पा रही थी कि कोई इतना सहज कैसे रह सकता है. उसको कमतर आंकते वो अक्सर उस पर अपना हुक्म चलाने का प्रयास करती. सीमा सरल रहते या तो उसकी बात मान लेती या हंसी में ऐसे टालती की शगुन को बुरा भी नहीं लगता. शगुन अपने पूर्व की उपलब्धियों के बखान उसके सामने कर अपनी तारीफ़ सुनने को बेताब रहती, पर सीमा उसके मन-मुताबिक़ प्रतिक्रिया नहीं देती, तो वो और बैचेन हो जाती.
रविवार की छुट्टी के दिन दोनों शहर घूमने और ज़रूरी सामान ख़रीदने चले गए. शगुन ने कुछ मंहगी पोशाक ख़रीदी, तो सीमा ने चयन करने में उसकी मदद कर दी, पर अपने लिए कुछ ना लिया.
स्टेशनरी की दुकान से जब सीमा ने अपने लिए दो बडे केनवॉस और रंग ख़रीदे, तो शगुन आश्चर्य से बोली, “अरे, तुम भी पेंटिंग करती हो, तुमने कभी बताया नहीं? चलो मैं भी एक कैनवॉस ले लेती हूं.” रात का भोजन कर शगुन तो थककर सो गई, पर सीमा ने अपनी चित्रकारी शुरू कर दी.
चार घंटे लगातार शांत वातावरण और शांत मन ने एक दौड़ते श्वेत अश्व का नयनाभिराम चित्र लगभग तैयार कर लिया. सुबह शगुन सोकर उठी, तो चित्र देखकर दंग रह गई. उसे विश्वास नहीं हुआ कि एक रात में इतनी सुंदर पेंटिंग भी कोई बना सकता है. सीमा के जागने पर उसने शिकायत की, “तुम इतना अच्छा पेंटिंग करती हो और तुमने कभी ज़िक्र भी नहीं किया?” सीमा हौले से मुस्कुराते हुए बोली, “तुम अपने बारे में इतनी मशगूल रही कि मुझे सुनने का तुम्हारा मन कभी नज़र ही नहीं आया. जैसा तुम बताती हो, तुम भी बहुत अच्छी चित्रकारी करती ही होगी.”
“हां, पर तुम्हारा तो बेहतरीन हाथ है.” शगुन को आज पहली बार कमतरी का एहसास हो रहा था. अगले एक हफ़्ते तक उस चित्र पर सीमा ने काम कर उसे एकटक देखने लायक बना दिया, तो शगुन को अपने अंदर किसी हमउम्र के लिए पहली बार सम्मान के भाव महसूस हुए. अब वो सीमा पर हावी होने के प्रयास को छोड़कर सार्थक चर्चा करती. जैसे-जैसे वो उसके बारे में जानती गई, वैसे-वैसे वह अपने ‘मैं ही सर्वश्रेष्ठ’ के भाव से मुक्त होती गई.

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पहला सेमेस्टर पूरा हो चुका था. शगुन पहले दस में भी नहीं थी और सीमा ने तीसरा स्थान प्राप्त किया था. क्लास के सभी लोगों ने अपने घर जाने से पहले एक छोटी-सी पार्टी रखी थी. जब सीमा ने एक सुंदर लोकगीत गाया. सभी दंग रह गए. सधा कंठ और सधा स्वर. शगुन अब पूरी तरह सीमा की मुरीद हो चुकी थी. उससे पूरे उल्लास और स्नेह से जब सीमा को गले लगाया, तो ख़ुद उसे अपने दंभ की बर्फ़ पिघलती-सी नज़र आई. कमरे में सामान पैक करते बातचीत से उसे नई बात पता चली कि सीमा एक प्रशिक्षित कत्थक नृत्यांगना है. इतनी सारी ख़ूबियां और इतनी सरल, शगुन अब भी यक़ीन नहीं कर पा रही थी. सीमा के स्वभाव और पांच महीने की संगत ने शगुन को आत्मावलोकन करना तो सिखा ही दिया था. पांच महीने बाद माता-पिता भी घर लौटी नई शगुन को देख अचंभित थे, जिसमें आत्मविश्वास बेशक थोड़ा कम था, पर जीवन को सकारात्मक नज़रिए से देखने का वयस्क भाव पूरी तरह दृष्टिगोचर था जो अब तक दिखने से नदारद था.

– संदीप पांडे

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