“अरे, यह धमाचौकड़ी काहे मचा रखी है? क्या है आज?” अम्मा ने घर के नौकर मोहन को हाथ में ढेरों पैकेट से लदा देखा, तो अपनी उत्कंठा रोक न पाईं और पूछ ही बैठीं.
सुबह से हो-हल्ला मचा है. हर कोई व्यस्त ही नज़र आ रहा है. अनसुइया भी सुबह से रसोई में ही है. जाने क्या पकवान पक रहा है आज. रोज़ तो अब तक अनसुइया पति संदीप के साथ ऑफिस के लिए निकल चुकी होती है. आज वह भी आफिस नहीं गई. १० वर्षीय अंकुश भी
आज इधर नहीं आया, वरना उसी से पूछती कि आज क्या ख़ास है. बड़ी मुश्किल से यह मोहन पकड़ में आया है.
“आपको नहीं पता अम्माजी..? आज मालकिन ने पार्टी रखी है…” मालकिन यानी अनसुइया.
“मरा रखा मेरे हाथ का है और मालकिन बोलता है अनसुइया को…” अम्मा बुदबुदाने लगीं. तभी सामने से ड्राइवर रामदीन हाथ में फलों की टोकरी लिए निकला, तो अम्मा ने फिर पूछा, “इतने सारे फल… क्या फलाहार की दावत दी है तुम्हारी मालकिन ने?” रामदीन क्या जवाब दे? वह वहीं ठिठक गया. तभी अंदर से मोहन, जो पैकेट रख आया था, ने आकर रामदीन के हाथों से फलों का टोकरा ले लिया, “अरे तुम यहीं खड़े हो भइया, जाओ जाकर बाकी सामान ले आओ. बहुत सारे काम करने हैं.”
अम्मा टुकुर टुकुर देखती रहीं. आख़िर हो क्या रहा है?
कोई कुछ बताना ही नहीं चाहता. जानने की उत्कंठा ज़्यादा हो गई थी. शायद इस उम्र में सब कुछ जान लेने की इच्छा ज़्यादा ज़ोर मारती है. मन में आया कि दलान में जाकर स्वयं देख आए, लेकिन फिर सोचा, अभी ठाकुरजी का भोग लगाना बाकी है, दलान तक गई और कहीं पर्दा छू गया, तो फिर से नहाना पड़ जाएगा. कच्चा-पक्का का बहुत छूत मानती है अम्मा. वह भी क्या करें, जब ब्याह कर आई, तो सास पक्की छुआछूत माननेवाली. पति ने स्पष्ट कह दिया था अम्मा का धर्म तुम्हें ही निभाना है. सो उनके ढले में ख़ुद भी ढल गईं.
अम्मा इस घर की सबसे बड़ी सदस्या है. उम्र ७० वर्ष, पति का साथ छूटे १० वर्ष हो चुके हैं. ७ वर्ष बाद बहू को एक बेटा हुआ है अंकुश. संदीप भी उनका इकलौता बेटा है. सो कहीं अन्यत्र जाने का प्रश्न ही नहीं उठता. सब साथ ही रहते है. इसका श्रेय अम्मा बहू को कम, ख़ुद का ज़्यादा देती है. बहू भी नीकरी करती है, जींस सूट भी पहनती है. बोलती कम है. अम्मा को उसका जींस पहनना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता, वे कई बार यह जता भी चुकी है, पर ज़्यादा कुछ बोलती नहीं. उसे जैसे रहना है, रहती है. उनका छुआछूत का धर्म भी निभा रही है. कभी कोई बात बेटे से कहती हैं शिकायत के तौर पर तो वह स्पष्ट बोल देता है, “क्या अम्मा, अब तुम्हारी उम्र है प्रपंच करने की? जो जैसा चल रहा है, चलने दो. तुम बस ‘राम राम’ करो.”
“अरे वाह… ‘राम-राम’ कहने का ठेका क्या सिर्फ़ बूढ़ों ने ले रखा है? बाकी तो सारे लोग नए रंग में रंग चुके हैं…”
यह बात अलग है कि जब यह बडबडाती हैं तो बहू कुछ नहीं कहती. उम्र हो गई है, इसलिए चिड़चिड़ी स्वभाव की हो गई होगीं यही सोच कर अनसुइया चुप्पी साधे रहती है और अम्मा इसे अपनी जीत समझ कर शांत हो जाती हैं.
अब पूरे घर में शांति हो गई है. अम्मा की उत्सुकता बढ़ गई. कुछ विशेष है, पर क्या, यह उन्हें कौन बताए… बूढ़ी मां का अस्तित्व ही क्या है घर में? तभी उधर अंकुश आया, तो अम्मा ने उसे पकड़ कर अपने पास खींच लिया, “क्यों रे, आज यह चहल-पहल काहे की?”
“लो दादी… तुम्हें पता ही नहीं. आज मम्मी-पापा की वेडिंग एनिवर्सरी है न.”
“वेडिंग एनिवर्सरी?.. यह क्या होता है?” अम्मा बुदबुदाई़.
“दादी तुम भी बस… कहता हूं मुझसे अंग्रेज़ी पढ़ना शुरू कर दो. अरे भई. आज के दिन मम्मा-पापा की शादी हुई थी न.” अंकुश ने उन्हें समझाया.
“ओह सालगिरह, तो यूं बोल ना. अच्छा तो आज घर पर बहुत लोग आएंगे?”
“हां दादी… आएंगे और तोहफ़े भी लाएंगे. अच्छा दादी तुम बताओ, मां की सालगिरह पर तुम उन्हें क्या दे रही हो?”
अम्मा का गला सूख गया. उपहार वह क्या दे. यह तो कभी जाना ही नहीं इसके पहले. सीधी-सादी ज़िंदगी थी उनकी. इसके पहले बेटे-बहू ने भी इतने धूमधाम से सालगिरह नहीं मनाई, वरना पहले से कुछ सोचतीं भी. उनके समय में तो जन्मदिन हो या शादी की सालगिरह, सत्यनारायण भगवान की कथा हो जाती थी. पैसा, तोहफ़ा कुछ न मिलता था. हां, आशीर्वाद ज़रूर मिलता था सबका, जब पूजा के बाद हल्के घूंघट में वह सबके पैर छूती थीं.
चीका और पूजाघर बिल्कुल सटा हुआ है, पुश्तैनी मकान है उनका. बेटे-बहू की नौकरी भी एक ही शहर में है. साथ रहने का एक कारण यह भी है.
अभी दोपहर का खाना नहीं बना, वरना बहू बुलाती. तभी एक थाली में पूरी तरकारी और दही लिए हुए बहू आ गई.
“अम्मा, आज काम ज़्यादा था, सो रोटी नहीं बन पाई, पक्का ही बना है, खा लीजिए.”
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उन्होंने संतोष की सांस ली. कुछ भी हो, बहू ध्यान तो रखती है. एक बार मन में आया, बहू के सिर पर हाथ रखकर ‘अखण्ड सौभाग्यवती’ का आशीर्वाद दे दें, पर फिर अहं आड़े आ गया, मुझे क्या मालूम, आज क्या है. बहू बताए, तब तो जानू.
कोई चार बजे संदीप आया. पूजाघर में बाहर से ही झांककर उसने कहा, “अम्मा सो गईं क्या?”
जी में तो आया अम्मा के कि कह दे, तू तो चाहता होगा, ज़िंदगीभर के लिए बुढ़िया सो जाए, फिर मन का तूफ़ान दबाए हुए धीमे से बोलीं, “नहीं, जगी हूं अभी, बोल क्या बात है?”
“अम्मा, तुम तो जानती हो, आज घर में फंक्शन है, तुम्हें बताया था न कि पिछले माह मेरा प्रमोशन हो गया है.”
अम्मा ने लाख दिमाग़ पर ज़ोर डाला कि ये दोनों बातें उन्हें कब बताई गई हैं, पर कुछ याद नहीं आया. क्या उनकी याद्दाश्त कमज़ोर हो गई है? वह तय नहीं कर पाईं.
संदीप बोलता गया, “आज हमारी शादी की सालगिरह भी है. दोस्त पार्टी माग रहे थे. सो हमने सोचा प्रमोशन और सालगिरह दोनो की पार्टी एक साथ दे देते है.”
अरे निगोड़ों, सालगिरह थी, तो दोनों आकर मां का पांव छूकर आशीर्वाद तो ले गए होते, पर प्रमोशन और सालगिरह दोनों का मेल कुछ समझ में नहीं आया. वह कुछ बोली नहीं, लड़का पुन बोला, “अम्मा, आज तुम कमरे से निकलना मत, हम तुम्हारे लिए खाना यहीं पहुंचा देंगे.”
अम्मा पर मानो गाज गिर पड़ी. उन्हें इसी कारण सूचना दी जा रही है कि कहीं चार मेहमानों के सामने अपना झुर्रीदार चेहरा लिए मां बाहर न आ जाएं. मुंह से लार टपकती है, इसी कारण हाथ में बराबर रूमाल दबाए रहती हैं. बाल उलझे पड़े है. कौन सुलझाए? कौन तेल डाले? चोटी करे? वाह रे संदीप के बाबूजी, अच्छा धर्म निभाया, ख़ुद तो चले गए, उन्हें छोड़ गए बेटे के भरोसे.
बेटा कह-सुन कर चला गया, तो वह पूजाघर की चौखट पर सिर रखकर ठाकुर जी की मूर्ति हाथों में लेकर बिलख उठीं. बेटे का बचपन का चेहरा कई रूपों में सामने नाच उठा. बहती नाक या टट्टी, पेशाब से सने बालक को मां स्नेह से अपने आंचल में समेट लेती है. उसे साफ़ करती है. आज मां का बुढ़ापा बेटे पर इतना भारी हो गया. रुलाई का वेग रुक नहीं रहा था. वहीं पड़ी रहीं ठाकुरजी को मुट्ठी में दाबे, तभी उन्हें अपने कंधे पर एक मुलायम, किन्तु सुखद स्पर्श का एहसास हुआ.
“अम्मा!”
“कौन?” सिर उठा कर देखा बहू अनसुइया थी. कुछ घाव देना बाकी था क्या, जो यह भी आ गई? डबडबायी आखों से उन्होंने बहू की तरफ़ देखा.
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“अम्मा, आज मैं आपके पास सुबह आ नहीं पाई, आपने पूजा नहीं की थी न तब तक, यह साड़ी लाई हूं आपके लिए. शाम को सभी लोग आएंगे आप यही साड़ी पहनिएगा, पसंद है न आपको?”
अम्मा ने साड़ी पर हाथ फेरा, रेशमी मुलायम, सफ़ेद रंग की साड़ी, पर कत्थई बार्डर, “मैं पर…”
“क्यों अम्मा हमारी सालगिरह या बेटे के प्रमोशन की दावत पर आप नहीं चलेगीं? आपके ही आशीर्वाद से तो इन्होंने तरक़्क़ी की है. आप तैयार होइए, लाइए मैं पहले आपके बाल सुलझा कर चोटी कर दूं.”
बहू के हाथ बालों पर फिसलते रहे और अम्मा रोती रहीं, जाने क्यों, आज रुलाई रुक ही नहीं रही थी. कम बोलनेवाली बहू अपने अंतर में इतनी ममता समेटे हुए है. बहू जाने लगी, तो उन्होंने बहू का हाथ कसकर पकड़ लिया और बिलख उठीं.
“अम्मा हमसे कोई भूल हुई है? आप परेशान क्यों हैं?”
वह क्या बोलती कैसे कहती कि पराई बहू आज अपनी हो गई है और अपना बेटा परायापन दिखा गया है. अपना कांपता हाथ बहू के सिर पर रखकर वह बुदबुदा उठीं, “अखंड सौभाग्वती भव. सदा सुखी रह बेटी!..”
– साधना राकेश
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