नई-नवेली दुल्हन थी. रोज़ किसी न किसी का आना-जाना लगा रहता. वो बैठकर बड़ी चतुराई से बातें करतीं और मैं, उनमें छुपी उस भोली-भाली महिला को खोजने की कोशिश.
बहुत सीधी थीं वो बिल्कुल चाशनी में डूबी जलेबी सी. जब भी तसल्ली से बैठ जलेबी तक पहुंचने की कोशिश करती चाशनी का असर ख़त्म होते-होते मन भर जाता. सुना है जीवन घर के नाम कर दिया था. न कहीं निकलना, न किसी से मिलना, न ज़्यादा किसी से मतलब. सीधी-साधी पति और बच्चों के लिए करने में आनंद लेने वाली. वो भलीं और उनका घर भला.
ऐसा ये कहते थे. मैं सुगंधा उनके सीधेपन को शादी के इतने समय बाद भी समझ ही न पाई. आज बस एक ही वाक्य उनकी विशेषता में निकलता है, "सीधी हैं, सीधी बनने का नाटक करती हैं. बेवकूफ़ हैं या अति चतुर." कुल मिलाकर आज भी मेरी समझ के बाहर हैं. याद नहीं कभी मेरे आने के बाद रसोई के किसी काम में हाथ लगाया हो. लेकिन वही हाथ छोटी के आने के बाद ख़ूब चला.
मेरा पहला परिचय उनसे इस वाक्य के साथ हुआ था, "मैं रसोई में कोई दख़लंदाज़ी नहीं करती, अब वो जाने और उसका काम." सुनकर दिल गदगद हो उठा.
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कितनी अच्छी हैं. अगले ही पल आवाज़ थी. महज़ आवाज़ या घुमाफिरा कर जताया गया अपना रौब, "हम दूध हमेशा फ्रिज की ऊपर वाली शेल्फ पर ही रखते हैं. सुबह पापा दूध ढूंंढ़ते रह गए. तुम सुबह चीनी का डिब्बा भी न जाने कहां रख गई थीं. पापा को दूध फीका ही पीना पड़ा."
दूध जगह पर रख, डिब्बों की तरफ़ नज़र घुमाई. सामने ही तो है. कह नहीं पाई कि साइज़ के हिसाब से अरेंज किए हैं. चीनी-पत्ती के बीच दो दालें आ गई थीं.
नई-नवेली दुल्हन थी. रोज़ किसी न किसी का आना-जाना लगा रहता. वो बैठकर बड़ी चतुराई से बातें करतीं और मैं, उनमें छुपी उस भोली-भाली महिला को खोजने की कोशिश. गौर कर रही थी, जब भी कोई मिलने आता है उनकी हर बात के बीच एक प्रश्न कॉमन रहता है…
"आइए… आइए बहुत दूर से आईं हैं. थक गई होंगी."
"हांं, समय लग ही जाता है."
"अरे-अरे दो बस बदली होंगी."
"हां, सरोजनी नगर से दूसरी पकड़ी."
मैं सुगंधा उनकी चतुराई की कायल मन ही मन सोचती कि ये ऐसे ही कहते हैं मम्मीजी तो कितनी होशियार है सारे रास्ते जानती हैं. बैठे-बैठे शासन चलाने का हुनर भी…
वही कॉमन प्रश्न तीन दिन से हर एक से रिपीट होता. आज मैं तीसरी बार सुन रही थी.
"आइए-आइए कैसी हैं? रास्ते में परेशानी तो नहीं हुई. दूर भी तो है. दो बस बदलनी पड़ी होगी?"
"नहीं-नहीं भाभीजी हमारा घर ज़्यादा दूर ना है. बस रिक्शो कियो और पहुंच गए. तुम्हारो तो भाईसाहब के साथ आए दिन आनो होतो. खैर… तुम्हारो दोस ना है, तुम सीधी-साधी कभी अकेली निकली भी तो ना."
ओ तेरी आज समझ आई चतुराई! ये रास्ता जानती नहीं है, "दो बस बदलनी पड़ी होगी…" तो इनका तकियाकलाम है, जो मुझ अज्ञानी के सामने इन्हें चतुर दिखाने में सफल रहा.
अब नित नई सीधेपन की बातों के बीच ज़िंदगी नए और हसीन पलों को भी जी रही थी.
आज पकौड़े क्या बने लगा खाने से ज़्यादा, नमक कम ज़्यादा की रामायण हो गई.
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ज़िंदगी की इन्ही छोटी-बड़ी बातों को लेकर वक़्त बीतता रहा. कई बदलाव उनमें भी आए कई मुझमें भी. ससुरजी के चले जाने से घर में एक रिक्तता थी, लगता था वो भी घर के और सदस्य से ज़्यादा मैं महसूस कर रही थी. होती भी क्यों नहीं बड़े प्यार से बहू बनाकर लाए थे. अब उनके नित नए रूप देखने को मिलते. सीधेपन का चोला किसी के ज्ञान से जल्दी उतर गया. अब फोन की घंटी बजने पर फोन उठाने के अधिकार से लेकर टीवी, अख़बार, खाना सबमें पहला अधिकार उनका था. पर कहते हैं ना सिखाया ज्ञान दो घड़ी का…
मन करता कह दूं, "सारा समेट कर कहां जाओगी?" लेकिन दिल को मना लेती शायद सच में सीधी हैं. पहले कभी ये अधिकार नहीं मिले, इसलिए उन्हीं से अपना अस्तित्व जीवित रखना चाहती है.
आज तो हद ही हो गई जब बैंक से फोन आया.
"हेलो मैं बोल रही हूं."
"मैडम, हमें रमाकांतजी से बात करनी है."
"नहीं हैं वो!"
"कहां गए?"
"चले गए"
"कहां?"
"पता नहीं."
"आपको बताकर नहीं गए?"
"नहीं!"
"फिर भी…"
"उन्होंने अपनी दूसरी दुनिया बसा ली है."
"ओह सॉरी मैम, मुझे नहीं पाता था क्या आपको उनका एड्रेस पता है."
"नहीं, आगे से फोन मत करना."
वार्तालाप बहुत देर तक जारी रहा, जिसमें उन्होंने ख़ुद की विद्वता दिखाने में कहीं कमी नहीं छोड़ी. उनकी बातें सुनकर हमारा भी दुख के बदले हंसी से पेट दर्द हो रहा था. एक साधारण सी बात कि उनकी मृत्यु हो चुकी है, को उस भोली-भाली महिला या अति ज्ञानी महिला ने तिल का ताड़ बनाकर परोस दिया.
आते ही पतिदेव पर बड़बड़ाई, "ये नहीं कि पढ़ी-लिखी बहू खड़ी है. उसकी बात करवा दें, लेकिन मेरा तो इस घर में कोई वजूद ही नहीं. जानते हैं उनकी बातों से बैंक वाले ने सोचा होगा कि वो इन्हें छोड़ किसी और के साथ… कहिए ना कुछ. किसी भी बात का जवाब नहीं देते."
पतिदेव मुस्कुराए, "सुगंधा, तुम्हारी महक इस घर को महकाए रखती है, तुमने कैसे सोच लिया कि तुम्हारा वजूद नहीं. मैं आज फिर वही कहूंगा, बहुत सीधी हैं वो. चतुर होतीं, तो क्या इस तरह की बात करतीं. परिवार में हमेशा पिताजी का शासन रहा और वो सदा अपने वजूद को तरसी हैं. आज जब काग़ज़ पर उनके साइन करवाए जाते हैं. आने वाले उनसे मिलने आते हैं. उन्हें लगता है अब वो अधिकार सारे उनके हैं, जो कभी पिताजी के पास थे… यही नहीं मैं ये देख रहा हूं कि तुम भी उन्हें अच्छे से समझने लगी हो, तभी तो हर बार उनकी चतुराई में उनका सीधापन ढूंढ़ लाती हो. जीवन इन्हीं मिलीजुली खट्टी-मीठी बातों का गुलदस्ता है, जिसे तुम्हें यानी सुगंधा को अपनी महक से बरक़रार रखना है."
आज सुगंधा की शादी को तीस साल हो चुके हैं. सासू मां आज भी बहुत सीधी हैं और सारा सीधापन सुगंधा के आगे ही दिखाती हैं.
"अजी भाभीजी बहू ने मिठाई बहुत अच्छी बनाई है."
"हांं, अच्छी बनाने लगी है. तीस साल हो गए शादी को अब जाकर बिल्कुल मेरे हिसाब का सीख पाई है." सुगंधा को मीठी और भोली-भाली मुस्कुराहट सासू मां ने दिखा दी.
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सुगंधा आज भी वहीं उलझी थी, ये सीधी हैं? सीधेपन का नाटक करती हैं या चतुर हैं? सारी सोच परे रख मंद ही मंद मुस्कुराई, "ये भी ना सच में सीधी हैं. चाशनी में लिपटी जलेबी सी. कभी नहीं बदलेंगी."
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