Short Stories

कहानी- अंतिम दर्शन (Short Story- Antim Darshan)

“मां, तुम तो पहेलियां बुझाने लगीं. साफ़-साफ़ कहो ना.” मेरा धैर्य चुकने लगा था.

“देखो बेटा, इस संसार में जो भी आता है उसे एक दिन सबको छोड़कर जाना भी पड़ता है. कोई भी अमर नहीं है. मुझे भी एक दिन यह दुनिया छोड़कर जाना है…..”

“मां, मैं अब भी नहीं समझी तुम क्या कहना चाहती हो.” मैंने बीच में ही कहा.

“वही कहने जा रही हूं. तुम मुझे किस रूप में याद रखना चाहोगी? सदा हंसती- मुस्कुराती, तुमसे बातें करती, लाड़-प्यार करती, सुख-दुख की बातें करती, मार्गदर्शन करती या फिर निर्जीव, जो तुम्हारे बार-बार पुकारने पर भी नहीं बोलती, तुम्हारी बातें नहीं सुनती…”

भैया का फ़ोन था, “विनी, मां नहीं रही…”

“क्या..? कब?” कहते-कहते मेरी रुलाई फूट पड़ी. भय से शरीर में कंपन-सा पैदा हो गया. कंठ सूख गया.

“कल दोपहर को उन्होंने प्राण त्याग दिए. शाम को अंतिम संस्कार कर दिया गया है.” भैया के कहते ही मैं चीख पड़ी, “क्या…? अंतिम संस्कार करने के बाद मुझे सूचित कर रहे हो? कल क्यों नहीं बताया? मैं किसी-न-किसी तरह पहुंच ही जाती. मां के अंतिम दर्शन तो कर लेती, पर आपने वह भी नहीं करने दिया.”

“विनी, शव को ज़्यादा देर तक रखा नहीं जा सकता था. डॉक्टरों का कहना था 2-3 घंटे के भीतर दाह संस्कार कर दिया जाए. शरीर में से ख़ून व पानी का रिसाव रुक नहीं रहा था. वैसे पूरे विस्तार से तुम्हारे आने के बाद ही बातें होंगी. तुम अपनी सुविधानुसार आ जाओ तेरहवीं से पहले.” कहकर भैया ने फ़ोन रख दिया.

फ़ोन रखने के बाद मैं निढाल-सी पलंग पर गिर पड़ी. क्रोध से पूरा शरीर कांप रहा था. भैया ने मुझे कल क्यों नहीं बताया? क्या कोई ऐसे भी करता है? बेशक मैं दूर रहती हूं, मां के पास पहुंचने में 20-22 घंटे लग जाते हैं. ट्रेन बदलनी पड़ती है. उस क्षेत्र के लिए सीधी वायु सेवाएं भी उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन दूसरे लोग भी तो शव को अंतिम दर्शन के लिए रखते ही हैं. ब़र्फ पर रखकर कुछ दवाएं, घोल, रासायनिक लेप आदि लगाकर तो 2-3 दिनों तक रखा जा सकता है, पर भैया ने तो अपना काम निबटा दिया. यह नहीं सोचा कि इकलौती बेटी को मां से कितना प्यार-लगाव होता है. अब सारी उम्र मुझे यही ग़म सालता रहेगा कि मैं मां के अंतिम दर्शन नहीं कर सकी.

अगले दिन की टिकट उपलब्ध होने पर पतिदेव के साथ मायके के लिए निकल पड़ी. मेरा उखड़ा मूड व उदास चेहरा देख पति मुझे सांत्वना देते रहे. समझाते रहे कि कोई कारण होगा, इसीलिए भैया ने मुझे देर से सूचना दी. लेकिन मैं तो भैया को लगातार दोषी ठहरा रही थी. भला मां-बाप के निधन की ख़बर भी कोई इतने विलंब से करता है!

पिछले महीने मां से मिलकर आई थी. उनका स्वास्थ्य बिगड़ रहा था. एक किडनी निष्क्रिय हो चुकी थी. दूसरी भी काफ़ी कमज़ोर थी, उस पर सूजन आ गयी थी. आए दिन अस्पतालों, डॉक्टरों के यहां चक्कर लग रहे थे. परिवार में तनाव का माहौल था. पिताजी, भैया-भाभी सभी चिंतित थे. मां की देखभाल में भी किसी तरह की कोई कमी नहीं थी. सभी अपने फर्ज़ को पूरी तरह निभा रहे थे. भाभी मां की सेवा-टहल में कोताही नहीं आने देती थी. इस बात से मुझे सुकून मिला था. उस दिन बातों-बातों में मां ने भी कह दिया था, “औलाद के मामले में मैं बड़ी भाग्यशाली हूं. बेशक दो ही संतानें हैं- एक बेटा और एक बेटी, पर दोनों ही लायक, आज्ञाकारी, प्यार-सम्मान व अपनापन देने वाले हैं. फिर बहू भी वैसी ही मिली है, कभी माथे पर बल नहीं डालती. अपनी ज़िम्मेदारियां बख़ूबी निभा रही है.”

भाभी सचमुच बेहद समझदार, सुघड़ व समझौतावादी प्रवृत्ति की थीं. मुझसे दो वर्ष पहले भैया की शादी हुई थी. भाभी ने हमेशा मुझे बड़ी बहन-सा प्यार व सहयोग दिया. मेरी परेशानियों में साथ दिया, मार्गदर्शन किया. मेरी शादी के व़क़्त तो वे भाग-भाग कर काम करती रही थीं. रिश्तेदारों की खातिरदारी में कोई कसर नहीं रहने दी. सभी रिश्तेदार भाभी की प्रशंसा कर रहे थे. किसी ने तो कह भी दिया था, “जिनके घर में ऐसी समझदार बहू हो, उनका बुढ़ापा तो संवर गया.” शादी के बाद जब भी मैं मायके जाती भाभी मुझे पूरा समय देती. कभी हम फ़िल्म देखने चले जाते, तो कभी शॉपिंग करने. मां संतुष्ट थीं, साथ ही सदा ऊर्जा व उत्साह से भरी रहतीं. कई बार हमारे साथ फ़िल्म देखने या किसी सहेली या रिश्तेदार से मिलने भी चल पड़तीं. मेरी सहेलियां आतीं तो उनके साथ भी ख़ूब बातें करतीं. वे कहतीं, “तू कितनी भाग्यशाली है जो तुझे ऐसी मां मिली है. इतना प्यार करने वाली, सखियों की तरह हंसी-मज़ाक, दुख-सुख में साथ देने वाली, समस्याओं का उचित समाधान सुझाने वाली, हमेशा उत्साह से भरपूर. वरना कई मांएं तो बात-बात पर रोक-टोक, प्रतिबंध, डांट-डपट लगाती हैं.”

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कभी-कभी तो भैया-भाभी, मैं और मां रात को कुछ देर बैठ क़िस्से-कहानियां कहते-सुनते रहते, तो कभी ताश की बाज़ी भी जम जाती. मां कहतीं, “ये सब इकट्ठे मिल बैठने के निमित्त हैं, इसी बहाने कुछ देर सब हंस-बोल लेते हैं, आपस में प्यार व अपनापन बढ़ता है.” पिताजी एकांतप्रिय स्वभाव के थे, वे अंदर अपने कमरे में अख़बार या पुस्तकें पढ़ते रहते.

पिछले साल जब मां स्वस्थ थीं तब मैं दस दिनों के लिए आई थी. रोज़ ही गपशप, घूमना-फिरना, ख़रीदारी चल रही थी. उस दिन रात को बाहर अच्छे होटल में खाना खाने का प्रोग्राम बना. खाना खाकर घर लौटे तो कुछ देर बाद ही मां के पेट में भयंकर दर्द उठा. फौरन डॉक्टर को बुलाया गया. जांच-परीक्षण के बाद डॉक्टर ने बताया कि खाने में शायद कुछ बासी चीज़ खा ली है. दो दिन दवा लेने के बाद मां स्वस्थ हो गयीं. अगले दिन दोपहर के खाने से निबटकर जब हम आराम कर रहे थे, मां अचानक बोलीं, “विनी, तुझसे एक बात कहना चाहती हूं…” मैंने प्रश्‍नवाचक नज़रों से देखते हुए कहा, “हां, कहो न!”

“बहुत सोच-विचार के बाद यह बात कर रही हूं. तुझे अजीब तो लगेगी, लेकिन उसकी गहराई समझने के बाद अर्थ समझ आ जाएगा.”

“मां, तुम तो पहेलियां बुझाने लगीं. साफ़-साफ़ कहो ना.” मेरा धैर्य चुकने लगा था.

“देखो बेटा, इस संसार में जो भी आता है उसे एक दिन सबको छोड़कर जाना भी पड़ता है. कोई भी अमर नहीं है. मुझे भी एक दिन यह दुनिया छोड़कर जाना है…..”

“मां, मैं अब भी नहीं समझी तुम क्या कहना चाहती हो.” मैंने बीच में ही कहा.

“वही कहने जा रही हूं. तुम मुझे किस रूप में याद रखना चाहोगी? सदा हंसती- मुस्कुराती, तुमसे बातें करती, लाड़-प्यार करती, सुख-दुख की बातें करती, मार्गदर्शन करती या फिर निर्जीव, जो तुम्हारे बार-बार पुकारने पर भी नहीं बोलती, तुम्हारी बातें नहीं सुनती… सुन विनी, मैं चाहती हूं मेरे मरने के बाद तू मेरा चेहरा मत देखना. अंतिम दर्शन की परंपरा को ख़त्म कर देना.”

“मां, ये कैसी बातें कर रही हो?” मैं अवाक् थी.

“सही कह रही हूं. मेरे मृत शरीर को देख तू रोएगी, विलाप करेगी, फिर कहेगी…‘मां उठो ना… कुछ तो बोलो… हमें छोड़कर मत जाओ…’ और भी न जाने क्या-क्या, लेकिन मैं तो कुछ भी नहीं कर पाऊंगी ना! फिर मेरे उस निर्जीव चेहरे की पता नहीं कैसी दशा होगी, क्योंकि मृत्यु के बाद कइयों के चेहरे विकृत भी हो जाते हैं. अब तुम्ही बताओ, क्या तुम सारी उम्र उस निर्जीव चेहरे की आकृति याद रखना चाहोगी जो रोने, पुकारने, विलाप करने पर भी हलचल नहीं करता… क्या जीवित अवस्था में कोई मां इतनी निष्ठुर हो सकती है? नहीं ना! फिर क्यों उस चेहरे को स्मृतियों में बसाया जाए जो स्पंदनहीन हो, निष्ठुर हो. उस चेहरे को मधुर स्मृतियों में बसाना चाहिए, जो सदा हंसता, मुस्कुराता, ममता-प्यार लुटाता रहा हो. छोटी-सी परेशानी होने पर भी हिम्मत व संबल प्रदान करता हो, मार्गदर्शन देता हो. इसलिए तुम मेरा मृत चेहरा मत देखना.”

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मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़-सी मां का मुंह देखती रह गई. यह कैसी बात कह दी मां ने और यह ख़याल उनके मन में आया कैसे? मां बहुत पढ़ी-लिखी तो नहीं थीं, लेकिन उन्हें पुस्तकें पढ़ने का बेहद शौक़ था. दोपहर के खाने के  पश्‍चात घंटाभर कुछ-न-कुछ ज़रूर पढ़ती थीं. इनमें कहानियों-क़िस्सों के अलावा बड़े-बड़े लेखकों की कृतियां भी होती थीं. मैंने सोचा, मां ने शायद किसी दार्शनिक की क़िताब में से शायद ऐसे विचार पढ़े होंगे तभी ऐसी बातें कर रही हैं. प्रत्यक्ष में इतना ही कहा, “मां, ऐसी बातें क्यों कर रही हो! अभी तो तुम्हें ख़ूब जीना है. हम सब की ख़ुशियां देखनी हैं, नाती-पोते देखने हैं. फिर अभी तुम एकदम स्वस्थ हो और अभी तुम्हारी उम्र भी कितनी है….?”

“पगली, मौत क्या किसी की उम्र देखकर उसे ले जाती है? फिर आज मैं स्वस्थ हूं, लेकिन कल का क्या भरोसा?” मां के कहते ही मैंने बीच में टोक दिया. “अब ये बातें बंद करो, तुम्हें कुछ नहीं होनेवाला.”

कुछ देर मैं ज़रूर परेशान रही, लेकिन धीरे-धीरे उस बात को भूलने का प्रयास करने लगी. ख़ैर, व़क़्त अपनी गति से चलता रहा. छ: महीने बीत गये और मैं मां की बात पूरी तरह से भूल  चुकी थी.

उस दिन भाभी का फ़ोन आया. कुशलक्षेम आदान-प्रदान के बाद उन्होंने बताया कि मां का एक गुर्दा ख़राब होकर पूरी तरह निष्क्रिय हो चुका है. बेशक यह ख़बर भारी मानसिक तनाव देने वाली थी, लेकिन भाभी ने काफ़ी धीरज बंधाया तथा कहा कि इंसान एक गुर्दे के सहारे भी मज़े से जी सकता है, इसलिए मैं व्यर्थ तनाव न पालूं. लेकिन मेरा मन काफ़ी बेचैन था, अत: मैं दो-चार दिनों के लिए मां से मिलने चली गई. मां शारीरिक रूप से तो अस्वस्थ नहीं लग रही थीं, लेकिन मानसिक रूप से तनावग्रस्त थीं. यह स्वाभाविक भी था. जब मैंने उन्हें बताया कि मेरी सहेली के पिताजी पिछले 25 वर्षों से एक गुर्दे के सहारे सहज जीवन जी रहे हैं, तो वे कुछ आश्‍वस्त हुईं. दो-चार दिनों के बाद मैं लौट आई. तब तक मां अपनी बीमारी को जीवन का एक हिस्सा मानकर सहज होने लगी थीं.

कुछ माह बाद ही मां के दूसरे गुर्दे में सूजन आ गई तो परिवार में चिंता का माहौल बन गया. बेशक यह बात मुझे कुछ विलंब से बताई गई थी, लेकिन फिर भी मैं मां से मिलने चली गई, साथ में पति भी थे. इस बार परिवार के सभी सदस्य तनावग्रस्त थे. संपूर्ण जांच-परीक्षण, दवाओं के बावजूद मां का गुर्दा केवल पचास प्रतिशत कार्य कर रहा था. फलस्वरूप शरीर में दूसरी बाधाएं आने की संभावना बढ़ गई थी. दो-तीन दिन रहकर हम लौट आए थे, लेकिन ध्यान तो उधर ही था. फ़ोन पर लगभग रोज़ाना ही भाभी से बात कर मां के स्वास्थ्य के बारे में पूछ लेती थी. उन्होंने बताया था कि हाल स्थिर है तथा दवाएं चालू हैं.

स्टेशन आ गया था और मैं भी अतीत की गलियों से निकलकर वर्तमान में लौट आई थी. घर पहुंची तो देखा, बरामदे में कुछ लोग बैठे थे. सामने मां की तस्वीर पर ताज़ा फूलों का हार चढ़ा था. अगरबत्ती की महक पूरे वातावरण में फैली हुई थी. तस्वीर में मां मुस्कुरा रही थीं. मैं स्वयं पर नियंत्रण खो बैठी, भाभी के गले लग कर बुक्का फाड़कर रोने लगी. कुछ शांत होने पर भैया से शिकायत की, “आपने मुझे इतना ग़ैर समझ लिया कि दूसरे दिन ख़बर की. मां के अंतिम दर्शन भी नहीं करने दिए. कभी कोई ऐसे भी करता है?”

“विनी, मैं मजबूर था…” भैया ने मेरे सिर पर सांत्वना भरा हाथ रखा. फिर भीतर के कमरे में ले गये जहां मां की वही तस्वीर, जो बाहर रखी थी छोटे आकार में दीवार पर टंगी थी.

“पंद्रह दिन पहले मां का दूसरा गुर्दा भी फेल हो गया था. उन्हें डायलिसिस पर रखा जा रहा था. वे बेहद कमज़ोर हो गई थीं. उनका रंग भी काला पड़ने लगा था. उन्हें पता लग चुका था कि अब वे कुछ ही दिनों की मेहमान हैं. एक दिन वे मुझसे बोलीं, “मैं चाहती हूं कि मेरी मौत के बाद विनी को ख़बर न किया जाए. मेरा मरा मुंह, निर्जीव शरीर देख वह रोए-चीखे व विलाप करेगी और मैं निष्ठुर बनी कुछ नहीं सुन-देख पाऊंगी, यह सोचकर ही मुझे घबराहट व तनाव होने लगता है. अंतिम संस्कार के बाद ही उसे सूचित करना. मैं चाहती हूं, वह मेरा हमेशा हंसता-बोलता व मुस्कुराता चेहरा ही याद रखे. वह बड़ी संवेदनशील है. पता नहीं मौत के बाद मेरे चेहरे, शरीर की क्या दशा होगी. अगर उसने देख लिया तो सदा उसी को याद कर तनावग्रस्त रहेगी. तुम्हें अटपटा ज़रूर लगेगा, लेकिन मेरी यही अंतिम इच्छा है.” और विनी, सचमुच मां के चेहरे की स्थिति इस कदर बिगड़ गई थी कि शव का दो-तीन घंटे के भीतर ही दाह संस्कार करना पड़ा. अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करता?” भैया की आंखों में नमी तैर आई थी.

भैया के प्रति शिकायत के जो भाव मेरे मन में पैदा हुए थे, वे तिरोहित होने लगे थे… और मां की दूरदर्शिता के आगे मैं नतमस्तक हो गई थी.

नरेंद्र कौर छाबड़ा

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“मां, तुम तो पहेलियां बुझाने लगीं. साफ़-साफ़ कहो ना.” मेरा धैर्य चुकने लगा था. “देखो बेटा, इस संसार में जो भी आता है उसे एक दिन सबको छोड़कर जाना भी पड़ता है. कोई भी अमर नहीं है. मुझे भी एक दिन यह दुनिया छोड़कर जाना है.....” “मां, मैं अब भी नहीं समझी तुम क्या कहना चाहती हो.” मैंने बीच में ही कहा. “वही कहने जा रही हूं. तुम मुझे किस रूप में याद रखना चाहोगी? सदा हंसती- मुस्कुराती, तुमसे बातें करती, लाड़-प्यार करती, सुख-दुख की बातें करती, मार्गदर्शन करती या फिर निर्जीव, जो तुम्हारे बार-बार पुकारने पर भी नहीं बोलती, तुम्हारी बातें नहीं सुनती...”
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