Others

कहानी- अनुत्तरित (Short Story – Anuttarit)


 विजया कठाले निबंधे

 

“पूरी ज़िंदगी मैं ‘मेरा गांव, मेरा घर, मेरा परिवार’ जैसे बोलों के अर्थ समझने को तरसती रही थी. तुमसे मिलकर मैं थोड़ी स्वार्थी हो गई. थोड़े समय के लिए ही सही, पर उस अलौकिक सुख को मैं भोगना चाहती थी. किसी पशु की भांति लावारिस नहीं मरना चाहती थी. तुमसे मिली तो लगा कि मेरी मृत्यु पर तुम अवश्य विलाप करोगे. मेरी मृत्यु से तुम्हें अवश्य फ़र्क़ पड़ेगा.”

 

मेरे ख़्याल से किसी कहानी का कभी अंत नहीं होता. हम ही हैं, जो नियति के इस खेल को आरंभ या अंत जैसे शब्दों में बांधते हैं. जब हममें उम्मीद जागे तो आरंभ और जब हम हताश या निराश हों तो अंत. हम जीवन, मृत्यु और मृत्यु के बाद आत्मा की अनश्‍वरता, निरंतरता पर विश्‍वास करते हैं, तो फिर रिश्तों की कहानियों का अंत कैसे संभव है?’
आज फिर एक बार हमारे गांव पर बादलों ने अपनी उदारता बरसाई है, पर यह सावन हमेशा से ही इतना उदार नहीं था. पांच साल पहले जब भयंकर सूखा पड़ा, तो धरती की छाती चीरकर अपना पेट भरनेवालों के आंसू तक सूख गए थे. वैज्ञानिक होने के बावजूद मैं कभी अपना गांव नहीं छोड़ना चाहता था. तब भी नहीं, जब वह श्मशान बनता जा रहा था. मौत के भय ने पूजा-पाठ, मान-मनौतियां और तंत्र-मंत्र शुरू करवा दिए थे. मैं भी मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रहा था. मेरी प्रार्थना का ऐसा फल मिला कि स़िर्फ गांव की ही नहीं, बल्कि मेरे जीवन की शुष्कता भी दूर हो गई. एक जोड़ी ऐसे क़दम गांव में पड़े, जो बादल भी लाया और साथ में भावनाओं की आर्द्रता भी.
उस रात अचानक मूसलाधार बारिश शुरू हो गई और मुझे सर्किट हाउस से बुलावा आया कि शहर से एक महिला आई हैं, जो मुझसे मिलना चाहती हैं. पहले मैंने सोचा कि बिजली नहीं है, कल सुबह उजाले में चला जाऊंगा. फिर लगा, कुछ ज़रूरी काम हुआ तो…? यह सोचकर मैं छाता उठाकर चल पड़ा.
राह चलते हुए मैं अपने ही विचारों में मग्न था कि कल की सुबह कितनी मोहक होगी. मिट्टी की इस सौंधी ख़ुशबू ने ही शायद मुझे यहां बांधकर रखा है. गांव की यही मिट्टी मुझमें एक वास्तविकता के अंश का आभास कराती है और वास्तविकता अप्राकृतिक नहीं है. गांव की मिट्टी के कारण ही यहां के लोग भी मिट्टी की ही तासीर के हैं- नरम दिल, मासूम, वास्तविक. शायद इसलिए लोग इन्हें हमेशा से ही रौंदते आए हैं. शहर के लोग सीमेंट की तरह कठोर हो जाते हैं.
सहसा सर्किट हाउस के चौकीदार ने पूछा, “साहब, किससे मिलना है?” और मैं अपने विचार-लोक से बाहर आ गया. तभी आवाज़ आई, “आप शायद मुझसे मिलने आए हैं.”
मिश्री को शहद में लपेटकर बोले गए इन शब्दों की आवाज़ की स्वामिनी को देखने के लिए मैं आतुर हो उठा. अंधेरा मुझे आज जितना खल रहा था, उतना पहले कभी नहीं खला था. उस आवाज़ का पीछा करते-करते मैं दीवानखाने तक जा पहुंचा. शायद इसलिए, क्योंकि अंधेरे की वजह से कुछ भी देख पाना मुश्किल था.
तभी एक पीली रोशनी ने कमरे में प्रवेश किया. मेरा अनुमान सही था. वह दीवानखाना ही था. वह रोशनी धीरे-धीरे क़रीब आने लगी और दृश्य कुछ स्पष्ट होता गया. तभी उस सुनी हुई आवाज़ को शक्ल मिल गई और शक्ल भी ऐसी, जो अपनी आवाज़ से भी ज़्यादा विनम्र थी. औसत क़द. मोमबत्ती की पीली रोशनी में उसका सांवला रंग भी सोने-सा दमक रहा था. आंखें कुछ बड़ी, पर भौंहों की कमानों को संभालती हुई. उसकी आभा, बाहरी सौंदर्य से ज़्यादा उसकी सुंदर आत्मा के बारे में बता रही थी.
“आइए, बैठिए.” इन शब्दों से दीवानखाने की ख़ामोशी टूटी. “आपको बुलावा मैंने ही भेजा था.” मैं तब भी ख़ुद को समेटकर चुपचाप बैठा था. शायद ख़ुद को सही तरी़के से प्रस्तुत नहीं कर पा रहा था.
“आप चाय लेंगे?” इस बार भी बात उसी छोर से शुरू हुई. मैंने हामी भरते हुए स़िर्फ सिर हिला दिया. उसने धीरे से पूछा, “आप काफ़ी असहज लग रहे हैं?”
मैं झेंप गया. यूं लगा, जैसे मेरी चोरी पकड़ी गई हो. मैंने कहा, “नहीं-नहीं. वैसे आपने मुझे क्यों बुलवाया?” यह हमारी पहली मुलाक़ात के वार्तालाप में मेरा पहला योगदान था. हालांकि मेरे द्वारा सीधे मुद्दे पर आकर दागे गए सवाल के कारण वह अचरज में थी, पर अब भी चेहरे पर वही नपी-तुली मुस्कान क़ायम थी.
“मुझे कामवाली ने बताया कि आप इस गांव के सबसे पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं. मैं शहर से आई हूं, गांव देखना चाहती हूं. क्या आप मुझे कल गांव दिखलाने ले जाएंगे?” मैं जल्द से जल्द उस जगह या कहें, उस स्थिति से बाहर निकलना चाहता था. इसलिए मैंने हां कर दी.
घर लौटने पर मैं सारी बातों का विश्‍लेषण करने लगा. पूरे मामले में मुझे यही समझ में नहीं आया कि वह महिला गांव क्यों घूमना चाहती है? सोच-सोचकर झुंझलाहट भी हो रही थी कि गांव कोई सर्कस या सिनेमा है, जिसे देखने वह शहर से यहां आ धमकी है?
लेकिन वही क्यों, शहरों में तो ऐसे कई लोग हैं, जो गांव को बस देखने आते हैं. यहां की धूल और मिट्टी से बचने के लिए नाक पर रूमाल रखते हैं. गांव के लोगों को देखकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं. किसी प्राणी या वस्तु संग्रहालय की भांति गांवों को देखने आते हैं. फिर सोचा, यह महिला शायद अन्य शहरी लोगों से अलग हो.
पर दूसरे ही दिन मेरी अपेक्षा भंग हो गई. रात को देर तक जागने के बावजूद मैं पौ फटते ही उठ गया. कल रात पूरा गांव नहाया था और मैं उस धुले गांव की पहली झलक देखना चाहता था. गांव की सूखी और भूरी ज़मीन काली हो गई थी. पूरा गांव झील में नहाकर आई नवयौवना-सा लग रहा था. मैं सैर पर निकल पड़ा. हल्की-हल्की हवा चल रही थी और सूरज अपना घूंघट उठाने को था. किसानों के चेहरों पर कुछ वैसा ही संतोष और निश्‍चिंतता थी, जैसी किसी पिता के चेहरे पर अपनी बेटी को एक सुखी परिवार में ब्याहने के बाद होती है.
गांव देखते-देखते ख़याल आया कि कोई और भी आज गांव देखना चाहता है. कुछ देर बाद मैंने सर्किट हाउस की तरफ़ रुख किया, जहां वह पहले से ही तैयार थी. अब गांव में कोई रिक्शा या गाड़ी तो थी नहीं, इसलिए हमने पैदल ही अपनी यात्रा शुरू कर दी.


“आपने मुझसे पूछा नहीं कि मैं गांव क्यों देखना चाहती हूं?” उसने बात शुरू की. मैंने अनमने ढंग से जवाब दिया, “अब इसमें पूछना क्या? गांव में कई ऐसे शहरी आते हैं, जो गांव देखना चाहते हैं.”
मैं चाहता था कि वह जल्द से जल्द गांव देखकर यहां से चलती बने. पर उस व़क़्त मैं यह नहीं जानता था कि एक दिन उसका जाना ही मेरे लिए कितना पीड़ादायक बन जाएगा और सारी कोशिशों के बावजूद मैं उसे रोक नहीं पाऊंगा. यह भी कहां जानता था कि जीवन के कई अहम् रिश्ते अक्सर अनजाने में ही बन जाते हैं.
उस दिन के बाद हम रोज़ मिलने लगे. उसे गांव की जीवनशैली में काफ़ी रुचि थी. वह गांव की समस्याओं के बारे में जानना चाहती थी. फिर एक दिन उसने मुझे बताया कि वह गांव की जीवनशैली और समस्याओं पर एक थीसिस लिख रही है और पीएचडी के लिए उसे इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड विश्‍वविद्यालय में प्रस्तुत करेगी. फिर भी मुझे यक़ीन था कि गांव में उसकी आत्मीय रुचि थी.
दिसंबर की वह गुनगुनी दोपहर मैं आज तक नहीं भूला. हम दोनों गांव की चौपाल पर बैठे थे. उस एकांत व शांति में भी एक संवाद था. तभी उसने कहा, “आपने स्वयं के बारे में कुछ नहीं बताया?” ऐसा लगा, मानो मैं वर्षों से इसी प्रश्‍न की प्रतीक्षा कर रहा था. लगा कि मन का सारा बोझ इसके सामने उंड़ेल दूं.
मैंने उसे बताया, “मेरे पिता डॉक्टर थे. इसी गांव में बरसों पहले एक महामारी फैली. उन्होंने कईयों को बचाया. अंत में माता-पिता दोनों ही उस बीमारी का ग्रास बन गए.” पर मेरी कहानी उसके अतीत के सामने कुछ भी नहीं थी. आगे उसने जो बताया, वो दिल दहलानेवाला था.
उसने कहा, “आपको यह तो पता है कि आपके पिता कौन थे और उनकी मृत्यु कैसे हुई, पर मैं तो… मेरी मां को कोढ़ था. वह गांव से बाहर एक आश्रम में रहती थीं. गांव के कुछ लोगों ने उनके साथ बलात्कार किया और फिर मेरा जन्म हुआ. समाज मुझे मार न डाले, इस डर से उन्होंने मुझे ख़ुद से दूर अनाथाश्रम में भेज दिया. पर जगह बदलने से अतीत नहीं बदलते. आज भी अपने अतीत से भाग रही हूं.” ये सब बताते हुए उसकी आंखों में आंसू की जगह द्वेष व क्रोध था. कुछ देर की ख़ामोशी के बाद सामान्य होते हुए उसने कहा, “चलिए, चलते हैं.”
मेरी आसक्ति उसके लिए बढ़ने लगी और शायद उसकी भी. हमारा खालीपन हमें क़रीब ला रहा था.. हमारी व्यथाएं एक-सी थीं. अब हम एक-दूसरे से काफ़ी सहज हो गए थे. छह महीने में हम एक-दूसरे के बारे में काफ़ी जान चुके थे. हमारे इस रिश्ते को उसका समर्थन भी था.
उसकी कुछ बातें मुझे हमेशा खटकतीं, जैसे- वह भोजन हमेशा मिनरल वॉटर में बनाकर ही खाती, हमेशा मिनरल वाटर ही पीती. जब मैं पूछता, “तुम ऐसा क्यों करती हो, क्या तुम्हें गांव के पानी पर विश्‍वास नहीं?” तो वह बात को हंसकर हवा में उड़ा देती या कभी ऐसे गंभीर हो जाती, मानो कोई रहस्यमय क़िताब पढ़ रही हो.
और तभी वह दिन आ गया. एक दिन अचानक उसने मुझसे कहा, “तुम यहां गांव में अपनी प्रतिभा क्यों व्यर्थ गंवा रहे हो? मेरे साथ चलो.” इस अप्रत्याशित प्रस्ताव के जवाब में मैंने भी एक सवाल किया, “क्यों? क्या तुम गांव में बसना नहीं चाहतीं?”
उसने कहा, “बिल्कुल नहीं. मैं थीसिस लिखने आई थी, जो पूरी हो गई है और अब मुझे जाना होगा. मैं चाहती हूं कि तुम भी मेरे साथ चलो.” मुझे लगा, जैसे मेरे सारे सपने, सारी अपेक्षाएं ज़िंदा दफ़ना दी गई हों.
उसने आगे कहा, “इतने साल यहां रहकर तुमने क्या किया? सिर्फ़ ख़ुद को नष्ट किया है.” उसके लिए मेरी आसक्ति अब विरक्ति में बदल चुकी थी. फिर भी पता नहीं क्यों, मैं उसे रोकना चाहता था. किसी भी तरह से मैं उसे जाने देना नहीं चाहता था.
अगली सुबह यही सोचकर कि किसी भी तरह उसे मना लूंगा, मैं सर्किट हाउस गया. लेकिन चौकीदार ने यह कहते हुए मेरे पैरों तले की ज़मीन ही खींच ली कि ‘मैडम तो तड़के ही शहर लौट गईं और रात को बिदेश जा रही हैं.’ उसके बारे में मुझसे ज़्यादा जानकारी तो उस चौकीदार को थी. मेरा दिमाग़ सुन्न हो गया. मैं सोच रहा था, कोई इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है? मैं ख़ुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा था. एक प्रगाढ़ जीवंत संबंध का ऐसा अप्रत्याशित अंत मुझे सदमे में छोड़ गया.
ईश्‍वर ने मनुष्य को एक कमाल की वस्तु दी है- विस्मृति. धीरे-धीरे दूभर लगने वाला जीवन सहज होने लगा था. पर मुझे यह पता नहीं था कि नियति ने अभी अपना अंतिम दांव नहीं खेला था. तब तक गांव में मेरे रहने और उस सावन के आने के लक्ष्य और उद्देश्य का पता मुझे नहीं चला था.
रात के लगभग 12 बज रहे थे और मैं चांद की रोशनी में अपनी धूमिल पड़ती स्मृतियों को पढ़ने की कोशिश कर रहा था. तभी फिर से सर्किट हाउस का चौकीदार हांफता हुआ आया और बोला, “बिदेस से मेमजी ने फ़ोन किया है. आपको बुलावा भेजा है, वह फिर से फ़ोन करेंगी.”
मेरे क़दम बिना किसी सवाल के सर्किट हाउस की ओर बढ़ गए. दिल ऐसे धड़क रहा था, मानो सीने से बाहर आ जाएगा. मैं जैसे-तैसे सर्किट हाउस के दीवानखाने में रखे उस फ़ोन के पास पहुंचा. घंटी बजी, मैंने फ़ोन उठाया. इस बार भी संवाद वहीं से शुरू हुआ.
उसने कहा, “कैसे हो?” मैं आज भी उस मधुर आवाज़ के पीछे छिपे चेहरे को देखने के लिए आतुर था. उसने बात आगे बढ़ाई, “स़िर्फ एक बार मुझसे मिलने यहां आ जाओ. वादा रहा, तुम्हें रोकूंगी नहीं. एक दिन के लिए आ जाओ. चुप क्यों हो? बोलो, आओगे ना?”
मेरी सारी कड़वाहट पलभर में छू हो गई. अनायास ही मेरे मुंह से ‘हां’ निकल पड़ा. मैं शून्य में था. क्यों, कैसे, किसलिए…? यह कुछ भी दिमाग़ में नहीं था. अगले ही महीने मैं इंग्लैंड जा पहुंचा. विमानतल पर मेरे नाम की तख़्ती लिए एक आदमी खड़ा था. वही मुझे उसके घर ले गया, जहां एक और विस्मय, एक और दुख मेरी प्रतीक्षा कर रहा था.


दरवाज़ा खुलते ही मैंने देखा कि हड्डियों का एक ढांचा व्हील चेयर पर पड़ा हुआ है. सिर पर बाल नहीं, भौंहें तक नहीं. आंखें ग़ौर से देखने पर ही नज़र आतीं. पूरा शरीर सुर्ख-स्याह-सा पड़ गया था. तभी उस ढांचे से आवाज़ आई, “आओ, अंदर आओ.”
मैं स्तब्ध था. वही मधुर आवाज़. उसकी यह दशा देखकर लगा, मैं किसी अंधे कुएं में औंधे मुंह जा गिरा हूं. उसके लिए मेरी करुणा आंखों से बहने लगी. वह भी जानती थी, मेरे मन-मस्तिष्क में अनेक प्रश्‍न उबल रहे हैं. बिना पूछे ही उसने बताना शुरू किया, “मैं चार-पांच सालों से कैंसर से जूझ रही हूं. अब तो यहां के डॉक्टरों ने भी घुटने टेक दिए हैं.. तुम्हारे गांव आने से कुछ समय पहले ही मुझे पता चला था कि मेरे पास समय कम है. मैं मृत्यु के आने से पहले कुछ ऐसा करना चाहती थी, जो आत्मा को कुछ संतोष दे सके.
“तुमसे मिलने के बाद ही पता चला कि मुझे क्या करना है. मैंने तुम्हारे गांव पर थीसिस लिखी. उसी दौरान मैंने तुम्हें और तुम्हारे गांव को ग़ौर से पढ़ा. पूरी ज़िंदगी मैं ‘मेरा गांव, मेरा घर, मेरा परिवार’ जैसे बोलों के अर्थ समझने को तरसती रही थी. तुमसे मिलकर मैं थोड़ी स्वार्थी हो गई. थोड़े समय के लिए ही सही, पर उस अलौकिक सुख को मैं भोगना चाहती थी. किसी पशु की भांति लावारिस नहीं मरना चाहती थी. तुमसे मिली तो लगा कि मेरी मृत्यु पर तुम अवश्य विलाप करोगे. मेरी मृत्यु से तुम्हें अवश्य फ़र्क़ पड़ेगा.
“तुमसे इतनी आसक्ति होने पर भी मैं शादी नहीं करना चाहती थी, क्योंकि बंधन हमेशा कर्त्तव्यों के दायित्व ले आते हैं और फिर प्रेम जैसी अनुभूति भी एक कर्त्तव्य बन जाती है, जिसका बोझ उठाना कभी-कभी मुश्किल हो जाता है. पर मैं तुमसे हमेशा के लिए जुड़ जाना चाहती थी और तुम्हारे दिल का रास्ता गांव से होकर गुज़रता था. तुम्हें जानकर ख़ुशी होगी कि अब हमारा गांव भी तऱक़्क़ी करेगा. वह गांव, जो मेरी मृत्यु को एक पहचान देगा.
“थीसिस से मुझे पीएचडी तो मिली ही, मेरी थीसिस को ब्रिटिश सरकार की मान्यता भी मिल गई है, जिससे गांव के हर विकास कार्य के लिए अनुदान राशि मिलने में अब परेशानी नहीं होगी. मैंने उन्हें तुम्हारे बारे में बताया है, कल तुम उनसे जाकर मिल लेना.”
इतने लंबे संवाद के बाद भी मेरे अंदर मृत्यु का सन्नाटा था. मेरे सारे अनुत्तरित प्रश्‍नों का उत्तर उसने दिया भी तो इन हालात में… नियति का यह कैसा क्रूर खेल है… फिर से अनुत्तरित हूं मैं… इसके एक ह़फ़्ते बाद ही उसकी मृत्यु हो गई. इस बार भी मैं उसे रोकने में विफल रहा था. फिर से वही सन्नाटा मेरे चारों ओर पसर गया. पहली बार पता चला कि शांति और सन्नाटे में क्या अंतर है. कितना भयानक होता है सन्नाटा, बिल्कुल खाली-खाली- सा. मृत्यु के बाद भी मेरे गांव, मेरे जीवन में वह जीवंत है. मैंने उसके जीवन से यह शिक्षा ली कि कोई व्यक्ति, कोई रिश्ता नकारात्मक नहीं होता और न ही मृत्यु. उसकी मृत्यु मुझे एक सकारात्मकता और जीवन का उद्देश्य दे गई. मैं उसकी मृत्यु पर बहुत रोया… शायद यही तो उसकी अंतिम इच्छा भी थी!

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES

Meri Saheli Team

Share
Published by
Meri Saheli Team
Tags: Story

Recent Posts

नाती टिकविण्यासाठी वेळ कसा काढाल? (How Do You Find Time To Maintain A Relationship?)

आजकालच्या जोडप्यांना एकमेकांसाठी वेळ नाही-फुरसत नाही. घर-ऑफिस, पोरंबाळं, त्यांचं संगोपन आणि घरातील रामरगाडा यांच्या कचाट्यात…

April 12, 2024

अभिनेते सयाजी शिंदे यांच्यावर अँजिओप्लास्टी, आता प्रकृती स्थिर (Sayaji Shine Hospitalied, Actor Goes Angioplasty In Satara)

आपल्या खणखणीत अभिनयाने मराठीसह हिंदी चित्रपटसृष्टी गाजवणारे अभिनेते सयाजी शिंदे यांच्यावर अँजिओप्लास्टी करण्यात आली आहे.…

April 12, 2024

घरी आलेल्या पाहुण्यांच्याबाबतीत प्रकर्षाने पाळला जातो हा नियम, खान ब्रदर्सनी सांगितलं सत्य (No One go hungry from Salman Khan’s house, father Salim Khan has made these rules for the kitchen)

सलमान खान आणि त्याचे वडील सलीम खान यांच्या दातृत्वाचे अनेक किस्से बरेचदा ऐकायला मिळतात. भाईजान…

April 12, 2024

महेश कोठारे यांनी केली ‘झपाटलेला ३’ची घोषणा (Director Mahesh Kothare Announces Zapatlela-3)

अभिनेते महेश कोठारे यांच्या संकल्पनेतून तयार झालेला 'झपाटलेला' हा चित्रपट तुफान हिट ठरला होता. आता…

April 11, 2024
© Merisaheli