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कहानी- अपना-अपना सुख (Short Story- Apna-Apna Sukh)


मैं मुग्ध, निर्निमेष उन्हें निहारती रह गई. प्यार की ऐसी व्याख्या सुन मैं उनके ज़ज़्बे की क़ायल हो गई थी. मेरी आंखों में प्रशंसा के भाव शायद उन्होंने ताड़ लिए थे.
“इसमें प्रशंसा जैसी कोई बात नहीं है. मैं ऐसा दिल से चाहता हूं और इसी में सुखी हूं. हर एक इंसान का अपना-अपना सुख होता है.”
“आप ठीक कह रहे हैं. मेरा सुख आपके सुख से अलग है…” न चाहते हुए भी मेरे दिल की व्यथा शब्दों में ढलकर बह निकली. घर लौटी, तो मन बहुत हल्का हो गया था.


अमन के दोस्त कार्तिक का फ़ोन था. मेरे यह बताने पर कि अमन खेलने गया है, वह मुझसे ही अपनी पढ़ाई संबंधी समस्या पूछने लगा. शायद वह जानता था कि अमन को मैं ही पढ़ाती हूं. पूरी तरह संतुष्ट होकर उसने फ़ोन रख दिया.
इस लड़के को कुछ समझाकर जाने क्यूं मुझे भी एक संतुष्टि का-सा एहसास होता है. उसकी पढ़ाई के प्रति भूख मुझे लुभाती है. लेकिन जैसा कि अमन ने मुझे बताया कि वह औसत विद्यार्थियों में ही गिना जाता है, यह बात मुझे हैरान करती. पर होता है, कई विद्यार्थी जी-जान लगाकर भी वह सब हासिल नहीं कर पाते, जो एक विद्यार्थी थोड़ी-सी मेहनत से ही हासिल कर लेता है. जैसा कि मेरे बेटे अमन के साथ है, जो हर साल अव्वल रहता है.
कार्तिक उसका घनिष्ठ मित्र भी नहीं है, सहपाठी मात्र है. पढ़ाकू लड़के उसके दोस्त हो भी नहीं सकते. मैं कई बार सोचती हूं अमन के पास कार्तिक जैसी पढ़ाई के प्रति भूख और लगन क्यों नहीं है और कार्तिक के पास अमन जैसा तेज़ दिमाग़ और स्मरणशक्ति क्यों नहीं है? फिर अपनी ही सोच पर हंस पड़ती हूं. बचपन में ऐसे ही टेढ़े सवाल मैं अपनी टीचर से भी करती थी, “मैडम, मछली ज़मीन पर क्यों नहीं रहती और चॉकलेट पेड़ पर क्यों नहीं उगते?” मैडम बड़े ही धैर्य और प्यार से मुझे समझाती थीं, “क्योंकि ईश्‍वर ने सभी के लिए एक जगह नियत की है. जिसे जितना मिलना चाहिए, उसे उतना ही दिया है. तभी तो यह सृष्टि संतुलित रूप से चल रही है. ईश्‍वर पर भरोसा रखो. वह जो करता है, भले के लिए ही करता है.”
आज भी उनका यही तर्क मेरे हर असंतोष को दबा देता है. फिर भी दिल में उस लड़के से मिलने की उत्कंठ लालसा जन्म ले चुकी थी. परीक्षा परिणामवाले दिन यह लालसा पूरी भी हो गई. हम अमन की कक्षा की ओर जा रहे थे कि सामने से आ रहे एक बच्चे ने मुझे ‘नमस्ते आंटी’ कहा. वह अपने पिता के साथ खड़ा था. मैंने अमन से पूछा, “कौन था यह?”
“यही तो था कार्तिक.”
“ओह! पहले बताता न… उसकी मम्मी…” कहते-कहते मैं रुक गई. मैं भी तो अमन के संग अकेले ही आती हूं. कभी भी उसके पापा साथ नहीं होते, बहुत व्यस्त जो रहते हैं. शायद उसकी मम्मी भी बहुत व्यस्त हो, या बीमार हो या हो ही न, तभी तो वह मुझसे अपनी समस्या शेयर करता है… छी… मैं भी क्या ऊलजलूल बातें सोचने लगी. सिर झटककर मैंने अमन के साथ उसकी कक्षा की ओर तेज़ी से क़दम बढ़ा दिए.

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प्रथम स्थान पर अमन का नाम देख दिल ख़ुशी से झूम उठा. कक्षा से बाहर निकले तो अमन के कुछ दोस्तों ने उसे घेर लिया. सब एक-दूसरे की रिपोर्ट कार्ड देखने और आगे की प्लानिंग करने में लग गए. कार्तिक भी उनमें सम्मिलित हो गया. लिहाज़ा, हम अभिभावकों को एक-दूसरे की ओर मुख़ातिब होना पड़ा.
“आप अमन की मम्मी हैं? आपको बहुत-बहुत बधाई! बहुत होनहार है आपका बेटा. उसे शायद आप ही गाइड करती हैं. कार्तिक की भी आप बहुत मदद करती हैं. मुझसे तो वह अपनी कोई प्रॉब्लम डिसकस ही नहीं करता. कितना कहता हूं…” वे थोड़ा रुके तो मुझे लगा, मुझे भी कुछ बोलना चाहिए. “कार्तिक की मम्मी नहीं आई साथ?” घूम-फिरकर ज़ुबां पर वही सवाल आ गया, जो इतनी देर से दिल में घुमड़ रहा था.
“जी नहीं. दरअसल वो काफ़ी व्यस्त रहती है… अमन के पापा भी नज़र नहीं आ रहे?” आख़िर वो सवाल उठ ही गया, जिससे मैं बचना चाह रही थी.
“जी, वो आ नहीं पाए. चुनाव नजदीक है, तो व्यस्तता बहुत बढ़ गई है.” उनकी आंखों में प्रश्‍नचिह्न उभरते देख मैंने स्वयं ही अगले पूछे जानेवाले प्रश्‍न का उत्तर दे दिया, “जी, दिनकर वर्मा मेरे पति हैं.”
“ओह! आप दिनकरजी की पत्नी हैं. मेरी पत्नी रत्ना भी चुनाव की तैयारियों में ही व्यस्त है.” मेरी आंखों में प्रश्‍नचिह्न उभरते देख उन्होंने भी मेरी जिज्ञासा का समाधान कर दिया. “जी, मैं मेयर रत्ना बिड़ला का पति हूं.”
“ओह!” मैं जैसे आसमां से गिरी. मेरे पति की कट्टर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी. मैं उसी के पति से मित्रवत् बतिया रही हूं? कोई देख लेगा तो?
“मैं चलती हूं. अमन की स्टेशनरी वगैरह भी लेनी थी. अमन, चलो बेटे देर हो रही है.” पूरे रास्ते मैं पसीने-पसीने होती रही. दिनकर को पता चल गया तो जाने क्या कह बैठें?

मुझे ख़ुद पर आश्‍चर्य होने लगा. मैं उस दिनकर से घबरा रही हूं, जिससे मैंने प्यार किया और घरवालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ शादी की. वो दिनकर, जिससे छोटी से छोटी बात शेयर किए बिना मुझे नींद नहीं आती थी. अब मैं बड़ी से बड़ी बात भी उससे छुपाने लगी हूं कि पता नहीं क्या अर्थ लगा बैठें?
हम दोनों एक ही कॉलेज से इंजीनियरिंग कर रहे थे. एक-दूसरे की ओर कब आकर्षित हो बंध गए, हमें ही पता न चला. कॉलेज के अंतिम वर्ष में दिनकर ने मेरे सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा. यह जानते हुए भी कि दोनों के ही घरवाले राज़ी नहीं होंगे, हमने पढ़ाई ख़त्म कर शादी करने का निश्‍चय कर लिया.
उसी वर्ष होनेवाले छात्रसंघ चुनावों में दिनकर को भी उनकी प्रतिभा देखते हुए ज़बरदस्ती उम्मीदवार बना दिया गया. वे चुनाव जीत भी गए. जीत का सिलसिला, जो उस दिन आरंभ हुआ वो आज तक जारी है. अपने वादे के मुताबिक डिग्री और नौकरी मिलते ही दिनकर ने मुझसे शादी कर ली. लेकिन इस दौरान वे मेरी सौत यानी राजनीति से भी गठबंधन कर चुके थे.
लोकप्रिय नेता के रूप में एक बार उनकी छवि उभरी, तो फिर उभरती ही चली गई. छात्रसंघ चुनाव, स्थानीय चुनाव और अब यह विधानसभा चुनाव, सिलसिला था कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा था. चतुर राजनीतिज्ञ के मुखौटे के पीछे मेरा प्रियतम इंजीनियर दिनकर कहीं छुप सा गया था. अमन के लालन-पालन में मैं ख़ुद को कब तक डुबोए रखती? मेरे बार-बार के इसरार से तंग आकर दिनकर ने एक दिन मुझसे वादा किया कि जिस दिन वे कोई चुनाव हार जाएंगे, राजनीति से हमेशा के लिए दामन छुड़ाकर मेरे दामन में आ समाएंगे. तब से आज तक मैं उस अदद हार का बेसब्री से इंतज़ार कर रही हूं. घर आते ही विचारों का काफ़िला थम गया.

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उस दिन फिर कार्तिक का फ़ोन आया. हमेशा की तरह यह कहने के बावजूद कि अमन खेलने गया है, वह मुझसे ही अपनी प्रॉब्लम पूछने लगा. मैंने झुंझलाकर कह दिया, “तुम्हारी मम्मी के पास व़क़्त नहीं है, तो अपने पापा से क्यों नहीं पूछते?” दूसरी ओर एक क्षण को गहरा सन्नाटा सा छा गया. संभवतः उसे मुझसे ऐसे प्रत्युत्तर की उम्मीद नहीं थी. वह सहम गया था. मेरा मन गहरे पश्‍चाताप से भर उठा. मैं कहां का़ ग़ुस्सा कहां निकाल रही हूं?
“अं… सॉरी बेटा. पूछो, क्या पूछना है?” अपनी प्रॉब्लम पूछने के बाद भी कार्तिक ने फ़ोन नहीं रखा.
“आंटी, मुझे आपसे कुछ कहना है.”
“हां, बोलो बेटे?”
“मम्मी के पास मेरे लिए व़क़्त नहीं है. इस बात का अपराधबोध पापा को है. उसकी पूर्ति हेतु वे मेरा ज़रूरत से ज़्यादा ख़याल रखने का प्रयास करते हैं. पर क्यों? मैं अब बच्चा नहीं हूं. बड़ा हो गया हूं. अपनी ज़िंदगी ख़ुद जी सकता हूं. मुझे किसी के सहारे की ज़रूरत नहीं है. बेकार ही आपको भी इतने समय तक परेशान करता रहा. अब आगे से…”

“अरे, नहीं बेटा. मुझे तो बहुत अच्छा लगता है, तुम अपना समझकर मुझसे कुछ पूछते हो तो? पढ़ना-पढ़ाना तो मेरी शुरू से हॉबी रही है. तुम निःसंकोच कभी भी मुझे फ़ोन कर सकते हो.”
“थैंक्यू आंटी.” कार्तिक ने प्रसन्नता से फ़ोन रख दिया, तो मेरे दिल का बोझ कुछ हल्का हो गया. व्यर्थ ही बच्चे का दिल दुखा दिया था. अब कभी उसे इंकार नहीं करूंगी. मैंने मन ही मन निश्‍चय किया. लेकिन उसके मनोविज्ञान ने मुझे चौंका दिया. अवहेलना से लोग अवसाद में चले जाते हैं, ज़्यादा प्यार, देखरेख भी इंसान सह नहीं पाता. पर एक की अवहेलना की दूसरे द्वारा भरपाई भी किसी में आक्रोश जगा सकती है, ऐसा पहली बार देख रही थी.
दो दिन बाद ही मुझे अपने निश्‍चय पर पुनर्विचार करने की नौबत आ गई. जब दिनकर ने शाम को लौटते ही मुझ पर तड़ से प्रश्‍न दाग दिया.
“सरू, सुना है तुम किसी कार्तिक नाम के लड़के की पढ़ाई में मदद करती हो?” मेरे ‘हां’ कहने पर उन्होंने अगला प्रश्‍न दागा.
“जानती हो वो किसका लड़का है?”
“जानती हूं.” मैंने ठंडे, लेकिन संयत स्वर में कहा.

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“फिर भी?” दिनकर हैरान हो उठे. “यह जानते हुए भी कि वो मेरी कट्टर प्रतिद्वंद्वी रत्ना बिड़ला का बेटा है, तुम उसकी मदद कैसे कर सकती हो सरू?”
“अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में बच्चों को बीच में मत घसीटिए. कार्तिक अमन का दोस्त है. जिस तरह मैं अमन को कुछ समझाती हूं, वह भी कुछ पूछ लेता है तो उसे भी समझा देती हूं.”
“लेकिन?”
“प्लीज़. तुम्हारी राजनीति में मेरी कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही है दिनकर और मैंने कभी उसमें दख़ल भी नहीं दिया है. मैं उम्मीद करती हूं तुम भी मेरे मामलों में हस्तक्षेप नहीं करोगे.” मेरे दो टूक जवाब ने दिनकर की बोलती तो बंद कर दी, लेकिन उसके चेहरे पर उभर आई तिलमिलाहट आनेवाले तूफ़ान का संकेत दे रही थी.
दिनकर के घर से बाहर निकलते ही अमन ने मेरा हाथ थाम लिया, “ममा, आप बिल्कुल भी परेशान मत होइए. आज से मैं मन लगाकर पढ़ूंगा. कार्तिक को भी जो पढ़ाई संबंधी परेशानी आएगी, उसे मैं सुलझाऊंगा. मैं उसकी पूरी मदद करूंगा. उसे आपसे बात करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी.”
अमन की आवाज़ से उसकी गंभीरता और दृढ़ निश्‍चय झलक रहा था. मैं हैरानी से उसे ताकती रह गई. ज़मानेभर को आगे बढ़ता देखती रही और यह भी नहीं जान पाई कि मेरा अपना बेटा कब इतना बड़ा और समझदार हो गया. अमन ने जो कहा, वह करके भी दिखाया. पढ़ाई के प्रति वह अचानक ही बेहद संजीदा हो उठा था.
इस बीच एक प्रदर्शनी में मेरी मुलाक़ात कार्तिक के पापा से हो गई. वे एक बार फिर मेरा आभार व्यक्त करने लगे कि मेरी और अमन की मदद की वजह से ही कार्तिक अब पढ़ाई में काफ़ी अच्छा हो गया है. मैंने उन्हें कार्तिक के मनोविज्ञान से परिचित कराना ज़रूरी समझा. मेरी बात सुनकर वे थोड़ा गंभीर हो गए. फिर मुस्कुराकर बोले, “मैं उसकी भावनाएं समझ सकता हूं. मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है. लेकिन मैं रत्ना को भी कुछ नहीं कह सकता. सरिताजी, दुनिया में कुछ लोग कुछ विशेष प्रयोजन के लिए ही पैदा होते हैं. रत्ना बनी ही राजनीति के लिए है. उससे घर चलाने, बच्चे पालने की उम्मीद रखना न केवल बेवकूफ़ी होगी, बल्कि उसकी प्रतिभा के साथ नाइंसाफ़ी भी होगी. राजनीति उसका पहला प्यार है और रत्ना मेरा पहला और आख़िरी प्यार है. मैं ख़ुश हूं, क्योंकि मेरा प्यार अपने प्यार के संग ख़ुश है.”
मैं मुग्ध, निर्निमेष उन्हें निहारती रह गई. प्यार की ऐसी व्याख्या सुन मैं उनके ज़ज़्बे की क़ायल हो गई थी. मेरी आंखों में प्रशंसा के भाव शायद उन्होंने ताड़ लिए थे.
“इसमें प्रशंसा जैसी कोई बात नहीं है. मैं ऐसा दिल से चाहता हूं और इसी में सुखी हूं. हर एक इंसान का अपना-अपना सुख होता है.”
“आप ठीक कह रहे हैं. मेरा सुख आपके सुख से अलग है…” न चाहते हुए भी मेरे दिल की व्यथा शब्दों में ढलकर बह निकली. घर लौटी, तो मन बहुत हल्का हो गया था.
अमन की प्रतियोगी परीक्षाएं समीप थीं. वह जी-जान से पढ़ाई में जुट गया था. मैं उसकी सफलता के प्रति आशान्वित थी, पर बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा देख मन ही मन आशंकित भी थी. उसमें जितनी तेज़ी से शारीरिक परिवर्तन हो रहे थे, उतनी ही तेज़ी से मानसिक परिवर्तन भी हो रहे थे. उसका लंबा क़द, उन्नत शारीरिक सौष्ठव उसे एक सुदर्शन युवक में तब्दील कर रहे थे. बचपना कहीं खो-सा गया था. स्वभाव में धैर्य और गंभीरता आ गई थी. कभी-कभी दोस्तों के बीच जब वह धाराप्रवाह किसी विषय पर बोल रहा होता, तो मेरी नज़रें उस पर ठहर सी जातीं. फिर घबराकर मैं ही अपनी नज़रें हटा लेती, कहीं मेरे बेटे को मेरी ही नज़र न लग जाए.
उसे देखकर मुझे कॉलेजवाले दिनकर याद आ जाते. दिल एक अनजानी आशंका से धड़कने लगता. ख़ैर, परीक्षाएं समाप्त हुईं और रिज़ल्ट भी आ गया. अमन का आई.आई.टी. में चयन हो गया था. मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा. बरसों की साध पूरी हो गई थी. दिनकर भी बहुत ख़ुश थे. यह अलग बात है कि चुनावों में व्यस्तता के कारण उनके पास इस ख़ुशी को सेलीब्रेट करने का व़क़्त नहीं था.
वोट पड़ चुके थे. मतगणना जारी थी और वे धड़कते दिल से परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे. पर इस परीक्षा परिणाम में मेरी कोई रुचि नहीं थी. इसलिए अमन ने जब दोस्तों द्वारा दी जा रही पार्टी में मुझे भी साथ चलने का प्रस्ताव रखा, तो मैं सहर्ष मान गई.
रास्ते में उसने बताया कि कार्तिक का भी एक अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला हो गया है. सुनकर मेरी ख़ुशियां दोगुनी हो गईं. होटल में पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी. कई अभिभावक एक-दूसरे को बधाइयां देते हुए पार्टी का लुत्फ़ उठा रहे थे. मैं भी उनमें शामिल हो गई.
तभी पीछे से “बधाई हो सरिताजी” के उल्लासित स्वर ने मुझे चौंका दिया. मुड़कर देखा, कार्तिक के पापा थे.
“जी धन्यवाद. आपको भी. कार्तिक की मेहनत रंग लाई.”
बात आगे बढ़ पाती, इससे पहले ही किसी ने हॉल में लगा टीवी ऑन कर दिया. चुनाव परिणाम घोषित किए जा रहे थे. सबके साथ हमारी भी नज़रें टीवी पर टिक गईं.
“रत्नाजी भारी बहुमत से विजयी होकर प्रदेश की पहली महिला विधानसभा सदस्या बन गई हैं. उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी दिनकर वर्मा को एक लाख से भी अधिक मतों से शिकस्त दी…” टीवी उद्घोषणा सुन लेने के बाद भी मुझे अपने कानों पर विश्‍वास नहीं हो रहा था. क्या सचमुच मैं अपनी जीत की उद्घोषणा ही सुन रही थी? मेरे चेहरे पर उभरती प्रसन्नता की लहरों को मेरे सामने खड़े शख़्स ने बख़ूबी पहचान लिया.
“बहुत-बहुत बधाई हो सरिताजी. आपके सुख का दिनकर तो आज उदय
हुआ है.”
हमारे आसपास खड़े हमें जाननेवाले अभिभावक हमें आश्‍चर्य से घूरने लगे. अब मैं उन्हें कैसे समझाती कि सबका अपना-अपना सुख होता है.

संगीता माथुर


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