बगल वाले कमरे में बहू पति के पास भुनभुना रही थी, “ताईजी और कितने दिन रहेंगी. बीस दिन तो हो गए. मेहमान और कितने दिन रहता है?..”
ताई जी को याद आया अपने बच्चों को रोता छोड़कर उन्होंने हमेशा राकेश को संभाला था. तब कभी नहीं सोचा था. कभी भेदभाव नहीं किया कि वह मेरा बेटा नहीं है.
“उनके अपने बच्चे तो उन्हें रखने को तैयार नहीं है, इसलिए वे चाह रही हैं कि उनके दिन यहां आराम से कट जाए.”
ताईजी को याद आया राकेश को तेज बुखार था. किसी से संभल नहीं रहा था. तब वही चार रात चार दिन उसे गोद में लेकर बैठी रही थी. कभी घुमाती कभी बांहों में झूलाती. एक मिनट के लिए भी वे लेट नहीं पाई थी. ना खाना हुआ, ना नहाना, पर उन्हें मन में सुकून था कि राकेश को उनकी गोद में आराम था.
“मैं सब चालाकियां समझती हूं. तुम्हारे सीधेपन का फ़ायदा उठाकर यहीं बस जाने का इरादा करके आई हैं. पर बहुत हो गया, अब उन्हें चलता करो.” बहू का स्वर बहुत कड़वा और रुखा था.
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बगल वाले कमरे में अपनी अटैची में कपड़े जमा कर जाने की तैयारी करने लगी ताईजी की आंखों से झर-झर आंसू बह रहे थे. बहू के शब्दों से भी अधिक राकेश का मौन उन्हें गहराई तक आहत कर गया था. अपनों के बीच का यह परायापन उन्हें सालता चला गया.
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