कहानी- बाबा मैं बरगद का पेड़ (Short Story- Baba Main Bargad Ka Ped)

तुम्हें डर है कि तुम जर्जर हो रहे हो और मैं बेल के समान तुम्हारे अस्तित्व से लिपटी रहूंगी… नहीं बाबा, मुझे थोड़ा-सा अवकाश दो, ताकि मेरी जड़ें इस भूमि की तह तक जा पहुंचें और टहनियां इतनी विकसित हो जाएं कि मैं आकाश को छू लूं. तुम्हारा तना बन सकूं, उस बरगद के पेड़ की तरह, जो मेरे मन के भीतर पल रहा है...

आज के समय में वर और वर के बीच कोई अर्थभेद नहीं. यह दोनों ही दुर्लभ वस्तुएं हैं. उपास्यदेव को संकीर्तन अथवा भावोद्ववेक अश्रुकणों से प्रसन्न किया जा सकता है. लेकिन वो वर जो नरदेव के हाथ है, उसे प्राप्त करने के लिए घनघोर तपस्या करनी पड़ती है. घर जितना उच्च एवं श्रेष्ठ होगा, उसकी लालसाओं और कामनाओं की गठरी उतनी ही भारी होगी. जो पिता इस बोझ को उठा सकने में सक्षम होगा, ये वर उसी को दान हो जाएंगे. ऐसे ही उत्कृष्ट वर की आस में हर पिता की तरह मेरे बाबा भी इस
गठरी को ढोने पर विवश थे. किसी उत्कृष्ट वर की आस हो, तो एक नई नीति ख़ूब प्रचलित हो रही है- घर आकर्षक एवं प्रभावशाली हो, मूल्यवान वस्तुओं से सजा हो, नए संबंध बनाना उतना ही आसान होगा.
ऐसे ही कोई उत्कृष्ट पुरुष आनेवाले थे. कितनी त्रुटिया निकलतीं, लंबी-लंबी बहस चलती. कभी उघड़े हुए घर और कभी मुझ पर वाद-विवाद, वार्तालाप, अंततः इसी नई नीति पर चलने का निर्णय हुआ.
इस नई नीति का प्रभाव मेरे जीर्ण-शीर्ण घर और मुझ पर भी पड़ा. छिली हुई दीवारों की निर्जीव आकृतियां अपने मौन अचेतन रूप में भी जो मेरी कल्पनाओं के साथ दूर-दूर तक दौड़ती थीं, सीमेंट और रंग की परत में दबा दी गई और मैं अपने अस्तित्वहीन अस्तित्व को सहेजती और समेटती रही. इस चिकनेपन की नीति से मेरे सूखे-फटे चेहरे पर भी क्रीम और पाउडर की परत चढ़ी, तो लगा कि कितनी समानता है हममें और निर्जीव मूक आकृतियों में. सोचती हूं शायद वे आकृतियों भी मेरी तरह ही घुटती होंगी आपने रंग के लिए. मेरा असली रंग भी कितना छटपटाता-घुटता था. आख़िर चेहरा चमकदार और लुभावना होना चाहिए, आंखें चमकीली और नाक नुकीली हो, तो संबंध जल्दी बन जाते हैं. यदि दुर्भाग्य से सुंदरता का अभाव हो, तो लक्ष्मी की चमक स्वयं ही उनकी आंखों को चकाचौंध कर सकती है.


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परंतु मेरे घर की अर्थव्यवस्था तो चरमराई हुई है. टूटी हुई मेज-कुर्सियां, दीमक खाए दरवाज़े, जिनके भद्देपन और भोडे़पन को तो पर्दो और रंगों ने छुपा लिया. शेष रहे आंतरिक गुण या सौन्दर्य तो इनका कोई प्रश्न ही नहीं उठेगा. वे सुशिक्षित हैं. दिव्य दृष्टिवान तो नहीं, यहां सब दिखावट जो दिखता है, उसी को सत्य माना जाता है.
अतः वो आए. मेरी कल्पनाओं जैसे पुरुष थे वो. अब तक जिन सजावटों और दिखावटों से मुझे चिढ़ हो रही थी, शायद उसी ने मेरा साथ दिया. उन्होंने स्वीकार कर लिया था मुझे. उस दिन कुछ अंकुरित सा हुआ था हृदय में, जिसने एक आयु जितने स्वप्न बुने थे तुम्हारे लिए. एक जीवन बिता दिया था मैंने कल्पनाओं में तुम्हारे साथ. तुमसे अविच्छिन्न मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया था. सोचा था तुम्हारे विशाल सीने पर सिर रख कर कहूंगी, “मुझे इस समुद्र जैसे विशाल सीने में किसी नाव की तरह डूबने-उतराने दो, यही मेरा अंतिम लक्ष्य है, पर डूब कर भी मैं उस समुद्र से सूखी लौट आई. तुमने अपने सीने से उठाकर पटक दिया था मुझे. पता चला, तुम किसी गददेवार सोफे, रंगीन लाइटों और मूल्यवान सजावटों का सामान हो गए हो. सुना है कि उनका कीमती कालीन बन चुके हो तुम, अब वो अपने जूतों की कीचड़ भरी एडियों तले कुचलते हैं तुम्हें. परम सौभाग्यशाली हो तुम! ऐसे चाटुकारों के लिए कितना झुके थे बाबा तुम. जैसे मेरा बोझ ही किसी ने सचमुच तुम्हारे कंधों पर टिका दिया हो. कितना बोझ है मुझमें बाबा. फिर भी मेरा ही पलड़ा क्यों हर बार हल्का पड़ जाता है, मेरी चढ़ती हुई उम्र हर क्षण बोझ बनकर तुम्हारे कंधों पर चढ़ती जाती है.
चार वर्ष बीत चुके हैं. न जाने कितने ही लोग अपनी आकांक्षाओं और लालसाओं के धरातल पर मेरा विश्लेषण कर चुके हैं. इन चार वर्षों में बाबा, तुम बाबा से मालिक, मैं बिकाऊ परिधान और यह घर दुकान जैसा बन चुका है. इस दुकान के शीशमहल के हैंगर में लटकी में समय की धूल-धूप में धुंधली पड़ चुकी हूं. मेरा मालिक गला फाड़-फाड़कर चिल्लाता है, “यह टिकाऊ, है. बिकाऊ है.”


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उनके स्निग्ध स्पर्श मुझे छूते हैं, तो अपने खुरदुरेपन पर मुझे लज्जा आती है. वे इच्छानुसार मेरा निरीक्षण करते हैं. खींच-तान, नाप-तौल, मूल्यांकन और वही असंतुष्टी का भयानक चेहरा बनाकर अपनी राह पकड़ते हैं. इतने वर्षों बाद मेरा स्तर भी गिर चुका है. अब हर कोई हेय दृष्टि से मुंह बिचकाकर कहता है, “यह आउट ऑफ फैशन है.” मूल्य घट गया, तो स्तर भी गया. अब तो मैं कृपा दृष्टि की पात्र रह गई हूं.
परंतु मालिक की व्यापारिक बुद्धि काम कर गई, हैंगर से उतारकर सेल की कतारों में शरण मिली. दो सौ का माल सौ में, सौ का पचास में, अब रेतीले बर्फीले हाथ ही मेरी ओर बढ़ते हैं.
उनके हाथों में स्निग्धता कोमलता थी. इन हाथों में खुरदुरापन है. उनके हाथों में मैं चुभती थी, इनके हाथ मुझे चुभते हैं. आज फिर कुछ लोग आए हैं. जीवन की कैसी परीक्षा है ये! चुपचाप आत्मसमर्पण कर दूं या शून्य हो जाऊं. मेरे सिर पर कितनी ही मजबूरियों का ढूह रखा है. बोझ से गर्दन तक तो उठती नहीं. ‘हां’ या ना करने की क्षमता कहां से लाऊं. प्रश्न मेरे ‘हां’ या ‘ना’ का नहीं, यहां तो केवल डर है उनके ‘ना’ करने का. आख़िर फिर इस बेचारी का क्या होगा? कैसी घृणित, क्षुद्र, दया की पात्र हूं मैं! दाता मुझे गिड़गिड़ाकर, नतमस्तक होकर मिक्षुक के पात्र में डालता है. कहां से झंझोड़ू अपने इस जर्जर उत्साह को, उस प्रतिकार को, शक्ति को, इस शक्ति के स्रोत को.
इस प्रतिकार की शक्ति मुझे मिली उस कीड़े से, जो दिनभर कई चोचों के प्रहारों से बचता-लड़ता था, फिर भी जीवन के प्रति कितना उत्साह था उसमें.
उसने अपनी शक्ति का प्रयोग किया और मैं अपनी प्रकृति को समझने में असमर्थ रही. अपनी उसी शक्ति को समझने की प्रेरणा दी उसने मुझे. अब मैं प्रतिकार करती हूं ऐसी कृत्रिमता का, ऐसी दिखावटों का, ऐसे अयोग्य वरों का. जहां ईश्वर ने कण-कण में शक्ति दी है, तो मुझे भी स्वयं अपनी ही शक्ति का निरीक्षण करना होगा और ढूंढ़ना होगा अपना एक विच्छिन्न रूप. ये ब्रह्मरूपा, सृष्टिरूपा नारी आज कितनी असुरक्षित है अपने गर्भगृह में भी. जहां स्वयं इसके अपने रूप की कृति को भी विदीर्ण कर दिया जाता है. उसकी छवि की भी कलात्मक सौंदर्य का नाम देकर उसका व्यापार किया जाता है, कलात्मक सौंदर्य की कलाकृतियां ये मृण्मूर्ति (मिट्टी की मूर्ति), नारी चित्रकारी, कवियों की प्रेरणा, छन्दों-अलंकारों-उपमाओं की कृत्रिमता में ऐसी फंसी कि अपने यथार्थ से परे होती चली गई. अपने ही पत्थर के कवच मैं अपनी संवेदनशील इच्छाओं को दबाए अपने ही मन के भीतर के भावोद्वेग को सुनती रही. में नारी शक्ति की स्रोत क्यों न किसी विस्फोट की तरह फट पडू अपने अधिकारों के लिए!


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आख़िर क्यों समझती रही हूं मैं ख़ुद को कभी परिधान, कभी निष्प्राण धातु, जबकि मुझमें चेतना है, प्राण है. मेरे हृदय में भी गति है, जिसमें प्रज्जवलित होती है असंख्य इच्छाएं. इसलिए मैं चाहती हूं कि तुम मालिक से फिर बाबा बन जाओ. तुम्हें डर है कि तुम जर्जर हो रहे हो और मैं बेल के समान तुम्हारे अस्तित्व से लिपटी रहूंगी… नहीं बाबा, मुझे थोड़ा-सा अवकाश दो, ताकि मेरी जड़ें इस भूमि की तह तक जा पहुंचें और टहनियां इतनी विकसित हो जाएं कि मैं आकाश को छू लूं. तुम्हारा तना बन सकूं, उस बरगद के पेड़ की तरह, जो मेरे मन के भीतर पल रहा है. हां बाबा हां, मैं बरगद का पेड़!

– शाहीन खान

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Usha Gupta

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