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कहानी- बहू-बेटी (Story- Bahu-Beti)

 

”हमें अपनी लड़ाई स्वयं ही लड़नी है और इसके लिए पुरुषों के विरुद्ध झण्डा उठाने की भी ज़रूरत नहीं. हमें ही एक-दूसरे का सहारा बनना है, एक-दूसरे का दर्द पहचानना है. सौभाग्यवश आज की सास शिक्षित है. उसकी सोच संकुचित नहीं रह गई. अब वह घर बैठ हर समय बहू की नुक्ताचीनी करने में अपना समय नहीं गंवाती.”

जया स्वयं को उतना उत्साहित नहीं पा रही थी, जितना कि छह माह पश्‍चात् घर लौटने पर उसे होना चाहिए था. स्पष्ट कुछ भी नहीं था. बस लौटना था, इसलिए लौट रही है. अमेरिका का उसका छह माह का वीज़ा समाप्त होने पर था. यह समय वह अपनी बेटी, दामाद और दो नटखट नातिओं के संग बिता कर अब अपने घर आ रही थी. यहां भी भरा-पूरा परिवार है. एक ही घर के ऊपर-नीचे की मंज़िल में दोनों बेटे सपरिवार रहते हैं. मकान तो उसके पति का ही बनवाया हुआ है और यहां उसका

निरादर होता हो, ऐसा भी नहीं है. तो फिर मन क्यों उचाट है? पिता की मृत्यु के बाद बेटी ने बुलवा भेजा था, ताकि मन बहल जाए कुछ दिन, पर रहना तो आख़िर यहीं है. अपने वतन और अपने लोगों के बीच और यही उसे पसन्द भी है.

हवाई जहाज के उड़ान भरते ही उसने अपनी दृष्टि पासवाली छोटी-सी बन्द खिड़की के पास ग़ड़ा दी. हवाई टिकट बुक कराते समय वह सदैव ही खिड़की वाली सीट के लिए भी आवेदन कर देती है. केबिन के खिड़की से बाहर देखना उसे बहुत अच्छा लगता है. एकदम अलौकिक दृश्य- दूर तक फैला अनन्त. दूर- बहुत दूर एक होते पृथ्वी और आकाश- बस और कुछ नहीं. कहां दिखता है ये सब महानगरों की बहुमंज़िली इमारतों के बीच. बादलों के आ जाने पर हवाई जहाज उनके भी ऊपर चला जाता है. स़फेद रूई के फाहों जैसे बादलों के ऊपर यह दृश्य एकदम अलग होता है.

पहले तो ये नज़ारे सदैव ही उसके मन में पुलक जगा जाते थे, पर आज ये भी उसे अधिक समय तक नहीं बांध सके. वह आंखें मूंद अपने अतीत के गलियारों में घूमने लगी. कितना बदल गया है समय. जब उसका विवाह हुआ था तो सास अर्थात् बिना ताज की एकछत्र साम्राज्ञी. तिस पर उसकी सास तो कठोर और निर्मम भी थी. पति भी तो ऐसे नहीं थे कि कभी दबी ज़ुबान से ही पत्नी के पक्ष में बोल देते. घोर अन्याय तक की बात में भी ख़ामोश ही रहते. पुरुष जो ठहरे.

पर जया को अपने बड़े बेटे समीर का बहुत सहारा है. जाने किस मिट्टी का बना है वह. कभी किसी का दिल नहीं दुखाया होगा उसने. मां की पूरी देखभाल करता है और पत्नी वसुधा भी प्रसन्न है. और क्यों न हो? अपनी इच्छा से ही तो विवाह किया है दोनों ने. बैंगलौर में दोनों ने एक संग मैनेजमेन्ट का कोर्स किया है. दोस्ती हुई और विवाह का फ़ैसला कर लिया. कितना परेशान हो गए थे वे दोनों. ‘वसुधा को एक शब्द भी हिन्दी बोलनी नहीं आती’ बताया था समीर ने.

“अब हमें क्या अपने घर में अंग्रेज़ी बोलनी पड़ेगी? या फिर तमिल ही सीखनी पड़ेगी?” झुंझलाकर कहते उसके पिता.

पर ऐसा कुछ भी नहीं करना पड़ा था. सादे-से विवाह समारोह के पश्‍चात् बेटे-बहू ने प्रयत्न करके उसी शहर में नौकरी ढूंढ़ी और एक संग रहने का फैसला भी किया. वसुधा ने एक दिन भी महसूस नहीं होने दिया कि उन्हें अंग्रेज़ी सीखनी पड़ेगी, बल्कि सालभर के भीतर हिन्दी बोलने-समझने तो लगी ही थी, साथ में कुछ शब्द पंजाबी के भी सीख लिए थे. बहुत आदर-सम्मान करती थी सब का. उसके नौकरी करने से सास पर ही काम का सब बोझ न आन पड़े, इसलिए दिनभर के लिए आया की भी व्यवस्था कर दी थी और जल्द ही घर नन्हीं किलकारियों से भी गूंज उठा.

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इतना कुछ पाकर भी एक अरमान रह गया था जया के मन में. दूसरी बहू तो वह अपने कुल-गोत्र की ही लाएगी. अपने सब अरमान पूरे करेगी वह अपने बेटे रंजन के ज़रिए. पूरे रस्मो-रिवाज़ के साथ व्याह रचाएगी. बहुत-सी लड़कियों से मिलवाने के बाद ही रंजन ने माधवी को पसन्द किया था. पूरे विधि-विधान से विवाह सम्पन्न हुआ. जया ने बहू माधवी का बहुत खुलेदिल से स्वागत किया और अपनत्व देने का प्रयत्न किया. पर वह सबसे खिंची-खिंची अलग-थलग ही रहती. अपने कमरे में चुपचाप कुछ पढ़ती रहती अथवा रेडियो चला कर आंखें मूंदे लेटी रहती.

जया उससे बात करने का प्रयत्न भी करती लेकिन वह या तो चुप ही रहती अथवा रूखा, संक्षिप्त-सा उत्तर देकर चली जाती.

जया को अपने प्रति किया व्यवहार न अखरता, यदि रंजन-माधवी आपस में ही हंसी-ख़ुशी रह लेते, पर दोनों का ही मुंह अलग-अलग दिशा में रहता. वह यह भी नहीं कह सकती कि पूरा दोष माधवी का ही था. उसका बेटा भी तो कम आत्मकेन्द्रित नहीं. साथ ही पूरी तरह से पुरुष सत्तात्मक सोच भी थी उसकी. कहां ग़लती हो गई

उसके लालन-पालन में? संस्कार तो उसने अपने दोनों पुत्रों में एक-से ही डाले थे. वह इस आशा में थी कि मेरी परवाह भले ही न करे, लेकिन कम-से-कम अपनी पत्नी को तो प्यार करेगा. वह किसी तरह आपस

में ही सामंजस्य बिठा ले, यही सोचकर उसने ऊपर वाला हिस्सा उन्हें अलग रहने के लिए दे दिया.

प्रायः ऐसा होता है कि बहू सास से प्रताड़ना पाती है और अपना समय आने पर ब्याज सहित अपनी बहू से वसूलती है. पर जया ने इसके विपरीत यह तय किया कि जो कुछ उसने सहा-सुना, वह उसकी बहुओं के साथ न हो. वह उन्हें बेटियों-सा ही स्नेह देती. बड़ी से तो ख़ैर उसे कोई शिकायत नहीं थी. पर माधवी…? और जब उसे मालूम था कि वसुधा अपनी बीमार मां को देखने गई हुई है, तब भी क्यों उसे घर पहुंचने का उत्साह नहीं हो रहा? समीर उसे हवाई अड्डे लेने आया. रास्ते में उसने बताया कि रंजन और माधवी में तनातनी कुछ बढ़ी ही है, कम नहीं हुई और उनके बीच होते तकरार प्राय: ही नीचे सुनाई देते रहते हैं.

दूसरे दिन इतवार था. दोपहर के भोजन के पश्‍चात वह लेटी ही थी कि बाहर आहट हुई. बाहर के दरवाज़े की सांकल भी खुली. नीचे के हिस्से में उस व़क़्त कौन जा रहा है? यह देखने कमरे से बाहर आई तो पाया माधवी खड़ी है. द्वार के पास एक अटैचीकेस भी रखा है.

“कहां जा रही हो इस तपती दोपहरी में?” उसने पूछा.

“अभी सोचा नहीं.”

“मतलब?”

“आपके बेटे ने कहा है कि यह घर उसका है और मैं यहां से चली जाऊं.”

जया उसका हाथ थाम अपने कमरे में ले आई. उसे स्नेहपूर्वक अपने पास बिठाया और कहा.

“हां, अब बताओ.”

पर वह तो मुंह खोलने को ही तैयार नहीं थी.

“माधवी, तुम इस घर में व्याह कर आई हो. अतः अब यह घर उतना ही तुम्हारा है, जितना रंजन का.”

“घर तो आप लोगों का है, रंजन का है. मेरा कैसे हो सकता है?”

“फिर तो यह घर मेरा भी न हुआ. मैं भी तो तुम्हारी तरह बाहर से आई हूं… अच्छा, फिर यह बताओ मेरा और तुम्हारा घर कौन-सा है?”

माधवी चुप ही बैठी रही.

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“मां के घर सुनते रहे कि बेटी पराया धन है और ससुराल का घर तो पति का होता है, भले ही यह घर स्त्री ही तिनका-तिनका जोड़कर बनाती है. उस घर की दिन-रात देखभाल करती है. अपने से पहले पति और बच्चों की ज़रूरत पूरी करती है. फिर भी घर उसका नहीं. अच्छा, फिर यह बताओ उसका घर कौन-सा है?”

“क्या पता?” माधवी ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया.

“हमने कभी संग बैठ बातें नहीं की. दुख-सुख नहीं बांटा. चलो आज ही शुरुआत करते हैं…”

माधवी की तरफ़ से कुछ हरकत न पा जया ने ही आगे जोड़ा.

“मायके में जब भी तुम्हें कोई समस्या होती थी तो तुम मां से अथवा घर के किसी अन्य सदस्य से बात कर मन का बोझ

हल्का कर लेती थी न? वैसे ही आज भी कर लो… चलो पहले मैं ही तुम्हें आपबीती सुनाती हूं. तब तुम्हें शायद मन की बात कहने का हौसला मिल जाए.

मेरा विवाह हुआ तो मेरे साथ क्या होता था, जानती हो? शाम को बेटे के घर में घुसते ही दिनभर की शिकायतों का पुलिन्दा खोल कर बैठ जाती थीं अम्मा. कूप मण्डूक-सा ही जीवन जीया था उन्होंने और मैं सह शिक्षा में पढ़ी हुई थी. अत: अम्मा को तो मेरी हर बात नागवार गुज़रती. मेरी हर बात पर नुक्ताचीनी करतीं वह. पति के मित्रों के साथ हंसकर बात कर लेना उन्हें अक्षम्य अपराध लगता. पति भी तो ऐसे नहीं थे कि मां से कहते- ‘मां अब सिर ढंककर रहने का ज़माना नहीं रहा.’ अपनी पत्नी की हर बात, हर ज़रूरत को नज़रअंदाज़ कर अपने माता-पिता की ही हर बात सुनना- यही तो उस ज़माने में आदर्श बेटा होने का प्रमाण था.

यूं पूरा दोष अम्मा का भी नहीं था. पढ़ी-लिखी वह थीं नहीं. उस समय स्त्रियों की बातचीत का मुद्दा प्राय: इधर-उधर की शिकायतें, मीन-मेख निकालने का ही होता था. फिर उन्होंने स्वयं बहुत प्रताड़ना सही थी. युवावस्था में ही पति की मृत्यु हो गई.

पहले की महिला आर्थिक, सामाजिक रूप से पूर्णत: पति पर निर्भर थी तो ससुराल की सब धौंस चुपचाप सहती थी. पर अब शिक्षित होने पर वह उतनी निर्भर नहीं है. उसमें आत्मविश्‍वास भी आ चुका है तो वह ये सब क्यों सहे? पर सास की छवि आज भी वही है और इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि संयुक्त परिवार टूटने लगे हैं. जबकि दरअसल उनकी ज़रूरत बढ़ी है, कम नहीं हुई. मिल-जुलकर रहने से दोनों का ही लाभ है. मां के नौकरी करने पर छोटे बच्चे दादा-दादी की स्नेह की छत्रछाया में पलते हैं और वृद्धावस्था में बच्चे मां-बाप का सहारा बन जाते हैं.

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लड़की कितनी भी पढ़ी-लिखी हो, आधुनिक हो- परिचित माहौल को छोड़कर नई जगह में बसने का भय, एक झिझक तो होती ही है. उस पर यदि घर की प्रमुख स्त्री यानी सास विद्रोही खेमे में ही खड़ी हो तो समस्या और भी बढ़ जाती है. तुम्हारे मन में भी शायद मेरी यही छवि बनी हुई है.

सदियों से चली आ रही परम्परा को तोड़ना इतना आसान न भी हो, पर इतना तो हम कर ही सकते हैं कि नई नवेली दुल्हन का विशाल हृदय से स्वागत करें. यह तो संभव है कि हम आपस में मां-बेटी-सा रिश्ता कायम कर लें, दोस्ताना व्यवहार करें. एक-दूसरे के दुख-दर्द को समझें.

हमें अपनी लड़ाई स्वयं ही लड़नी है और इसके लिए पुरुषों के विरुद्ध झण्डा उठाने की भी ज़रूरत नहीं. हमें ही एक-दूसरे का सहारा बनना है, एक-दूसरे का दर्द पहचानना है. सौभाग्यवश आज की सास शिक्षित है. उसकी सोच संकुचित नहीं रह गई. अब वह घर बैठ हर समय बहू की नुक्ताचीनी करने में अपना समय नहीं गंवाती. उसकी अपनी रुचियां हैं, सामाजिक दायरा है.

अब आई बात रंजन और तुम्हारी. ज़िन्दगी की प्रत्येक समस्या का हल न हो तो भी अनेक का होता ही है, बशर्ते हम उसे शान्तिपूर्वक बैठ कर सुलझाने का प्रयत्न करें. यदि रंजन कुछ ग़लत करता है और सोचता है कि पुरुष होने के नाते अथवा इस घर का सदस्य होने के नाते उसकी मनमानी चल जाएगी तो वह ग़लत सोच रहा है. यदि वह तुम पर अन्यायपूर्ण बात थोपता है तो मैं तुम्हारे साथ हूं और उसकी मां होने के नाते सही राह दिखाना मेरा फ़र्ज़ है और यदि तुम  कोई ग़लती करोगी तो मैं तुम्हें भी डांट सकती हूं, क्योंकि तुम भी अब इसी घर की बेटी हो.”

जया खिसक कर माधवी के क़रीब आ गई और स्नेहपूर्वक उसे आलिंगनबद्ध कर लिया. माधवी एक पल के लिए रुकी रही. पर उसके चेहरे से लग रहा था कि ब़र्फ पिघल रही है. उसने पहले झिझकते हुए, फिर कस के जया का आलिंगन किया और अपना सिर उसके कंधे पर टिका कर आंखें मूंद लीं. फिर आंसुओं को पीते हुए बोली, “मां, मैंने तो हमेशा ही इस घर को और आप सभी को अपना समझा, पर इनका रूखा व्यवहार मुझे निराश करता चला गया. लेकिन धीरे-धीरे मैं बहुत-कुछ समझने और जानने लगी हूं. बस, एक परायेपन की फांस थी, जो आपने बहुत कुछ कह कर और प्रेम, अपनेपन से दूर कर दी है. सच, मैं ख़ुद को बेहद भाग्यशाली मानती हूं कि हमारा रिश्ता सास-बहू का नहीं, बल्कि मां-बेटी का है.”

जया प्यार से माधवी के सिर पर हाथ फेरने लगी.

       उषा वधवा

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कहानी-बहू-बेटी(Short Story-Bahu-Beti) | Hindi Family Drama | Hindi Kahaniya
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''हमें अपनी लड़ाई स्वयं ही लड़नी है और इसके लिए पुरुषों के विरुद्ध झण्डा उठाने की भी ज़रूरत नहीं. हमें ही एक-दूसरे का सहारा बनना है, एक-दूसरे का दर्द पहचानना है. सौभाग्यवश आज की सास शिक्षित है. उसकी सोच संकुचित नहीं रह गई. अब वह घर बैठ हर समय बहू की नुक्ताचीनी करने में अपना समय नहीं गंवाती.''
Author
Usha Gupta

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Usha Gupta

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