जब भी भाषा की बात होती है, मुझे भाषा के संबंध में रामचन्द्र शुक्ल की लिखी परिभाषा याद आ जाती है- ‘भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के माध्यम को भाषा कहते हैं,’ भाषा सीखने के लिए उस भाषा की वर्णमाला एवं लिपि को भी समझना ज़रूरी है. जिस भाषा की कोई वर्णमाला न हो, कोई लिपि न हो, उसे भला कैसे सीखा जाए? यह बड़ी विकराल समस्या थी, लेकिन मनुष्य के लिए कोई भी समस्या हमेशा समस्या नहीं बनी रहती. कुछ ही दिनों में उसका समाधान हो ही जाता है.
इसमें सहायक होती है उसकी बुद्धि और अनुभव, मेरे साथ भी यही हुआ,
मेरे बेटे अक्सर मेरे पीछे पड़े रहते कि एक पप्पी (कुत्ते का बच्चा) ले लो, लेकिन मैं पप्पी को रखने में होने वाली परेशानियों को समझ कर हर बार उनके इस आग्रह को टाल देती. बच्चे भी कहां हार मानने वाले थे. अब तो उन्होंने हर बात के लिए एक ही ज़िद पकड़ ली, “बर्थडे गिफ्ट पप्पी चाहिए…” “अच्छे नंबर आने पर पप्पी चाहिए…” कभी कोई ख़ुशी व्यक्त की जाती, तो झट से कहते, “चलो, इसी ख़ुशी में पप्पी ले लेते हैं.”
इस तरह मेरे न चाहते हुए भी एक दिन एक छोटा सा, नाजुक सा अल्सेशियन पप्पी आ ही गया. बच्चे इतने ख़ुश थे, जितने शायद हम इनके आगमन पर भी न हुए हों.
नन्हा सा पप्पी कूं-कूं करता छोटी सी जगह में चक्कर काटने लगा. उसे बोतल से दूध पिलाया जाता, टॉफी-चॉकलेट खिलाई जाती. सब उसे अपनी गोद में बिठाने को लालायित रहते. मैं उन सबके बीच कुछ देर ही रहती, क्योंकि मुझे उसे देखकर प्यार कम, दया ज़्यादा आती. बच्चों ने एक गत्ते के डिब्बे को सजाया-संवारा, उसमें सुंदर सा कपड़ा बिछाया. इस तरह उसके लिए ‘स्वीट होम’ तैयार हुआ.
अब आई समस्या ‘नामकरण’ की. बच्चा एक और नाम सौ. बड़ी मुश्किल से लिस्ट छोटी करते, अंततः ‘जेनी’ नाम पर सभी एकमत हुए और वह घर की एक नई, प्यारी सदस्य बन गई. बच्चे तो जैसे पागल हो गए, हर समय साथ रखते. साथ सुलाते, जो ख़ुद खाते वह उसे भी खिलाते, घुमाने ले जाते. लेकिन हफ़्ते भर में सभी का उत्साह ठंडा पड़ गया.
भगवान का नाम स्मरण कर सुबह जो पैर नीचे रखती, तो सारे घर में कहीं-न-कहीं सू-सू, पॉटी किया हुआ होता. यानी की अब पूरा घर ही टॉयलेट बन गया. मेरा प्यारा कालीन जिस पर मैं बच्चों को जूते पहनकर पैर भी न रखने देती थी, वह जेनी का टॉयलेट हो गया. सुबह-सुबह से ही चिक-चिक शुरू हो जाती. कभी बच्चों को डांटना-डपटना, कभी क़िस्मत का रोना, तो कभी उस मासूम को कोसना, घर में सब ऐसे चुपचाप पड़े रहते जैसे किसी को कुछ सुनाई ही न देता हो.
गृहिणी और मां. अब क्या करूं? सुबह की बेड टी भूल गई. अब तो बस यह सोचकर उठती कि कहां-कहां से पॉटी व सू सू साफ़ करनी है. अजीब सी गंदगी दिलोदिमाग़ पर हावी रहती. दिन में कई बार फिनाइल डालकर पोंछा लगवाती. जब-तब रूम फ्रेशनर छिड़का जाता. बच्चे सिर्फ़ जेनी को खाना खिलाने का काम मन से करते. घर में ऐसी तब्दीली आ गई जैसे किसी बच्चे के आगमन पर होती है.
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समझदार जेनी एक महीने में ही सू सू व पॉटी होने पर इशारे से बताने लगी. वह अपनी विभिन्न मुद्राओं, कुं कूं… की आवाज़ से अपनी बात कहने की पूरी कोशिश करती. अब घर फिर से कुछ व्यवस्थित रहने लगा. कार्पेट-दरी सारा कुछ फिर से यथास्थान आ गए. वह मुझसे लिपटने की कोशिश करती. वह सबसे ज़्यादा मेरा कहना मानती. अब वह मुझे भी प्यारी लगने लगी. बच्चे ईर्ष्या करते कि “हम इसे लाए हैं और यह प्यार आपको ज़्यादा करती है.”
धीरे-धीरे वह सबकी दुलारी बन गई. बालकनी की सलाखों से मुंह जो निकालकर भौ-भौ करना, किसी अपने को आते देख कूं-कूं करना, पूंछ हिलाना, उसकी ऐसी तमाम हरकतें बरबस ही सबका ध्यान खींच लेती.
एक दिन भी उसने अपना ‘स्वीटहोम’ गंदा नहीं किया. अब वह हमारा होम भी गंदा नहीं करती थी.
सबका स्वागत करती. आने वाले को सबसे पहले उससे ही मुलाक़ात करनी पड़ती. बिना उससे मिले अंदर आना नामुमकिन था. सुबह-शाम मैं उसे घुमाने ले जाती. लेकिन कभी भी रास्ते में, साफ़ जगह पर वह शौच-पेशाब न करती. हमेशा झाड़ियों में और एकांत में जाती. जाने के बाद उस पर पंजों से मिट्टी डालना न भूलती. में उसकी इस क्रिया पर प्रसन्न हो जाती. काश! इंसान भी ऐसे होते तो इतनी गंदगी न फैलती.
चॉकलेट, चिक्की व टॉफी उसे बहुत पसंद है. कार में घूमने की शौकीन है. कार की चाबी वह अच्छी तरह पहचानती है, जिसके हाथ में चाबी होती है उसी के पीछे चल पड़ती है. अंग्रेज़ी और हिन्दी के शब्दों को वह बख़ूबी समझती है. ‘चलो’ शब्द से उसे बहुत प्यार है. कोई किसी से बात करते हुए भी यह शब्द बोल जाए, तो उसमें हरकत होने लगती है. आंखों में चमक आ जाती है.
बच्चे जब क्रिकेट या बेडमिंटन खेलते हो, तो जेनी को घर में बंद रखना उतना ही मुश्किल जितना किसी खूंखार डकैत को किसी साधारण थाने में रखना. बाउंड्री से बॉल लाने का काम वही करती है. यदि बच्चें उसे डांट दें व, तो बॉल मुंह में पकड़ कर बैठ जाएगी या लेकर दूर चली जाएगी. फिर बिना टॉफी की रिश्वत लिए नहीं मानती.
वर्ष-प्रतिवर्ष समय निकलता गया और बच्चे बड़े होते गए. फिर वह समय भी आ गया जब उन्हें अपने भविष्य को संवारने के लिए घर की छत्रछाया छोड़ करियर के लिए दूर जाना पड़ा. उनकी अनुपस्थिति में भी उनका नाम लेते ही जेनी चौकन्नी हो जाती है. इधर-उघर देखती है. उस समय उसकी आंखों में चमक होती है, जो भाव होते हैं, उसे कोई वाचाल भी व्यक्त नहीं कर सकता. जब उनका फोन आता है, तो स्पीकर ऑन होने पर अपना नाम सुनकर जिस बेताबी से वह टेलीफोन चाटती है, उसे देखकर हमें अपना प्यार भी तुच्छ लगने लगता है. स्पीकर से आवाज़ न आने पर वह खिड़की पर दो पैर रखकर झांककर देखती है. दौड़कर दरवाज़े पर जाती है. फिर उसका निराश होकर बैठना, उसका तड़पना मुझे अंदर तक हिला जाता है.
एक बार हम सभी को सपरिवार विवाह समारोह में जाना था. जेनी घर में होती तैयारियों से उतनी ही ख़ुश होती, जितने हम. जब भी किसी के नए कपड़े आते, तो वह उछल-उछल कर ख़ुशी व्यक्त करती.
निश्चित तिथि पर जब हम सब जाने के लिए कार में सामान रख रहे थे, तो जेनी भी हर सामान के साथ दौड़-दौड़ कर कार तक जाती. जब घर का ताला लगा और मैं अपने नौकर को जेनी के बारे में कुछ समझा रही थी, तो जेनी समझ गई कि मुझे नहीं ले जा रहे. मेरी साड़ी का आंचल पकड़ सिर हिला-हिला कर यूं देखने लगी जैसे कह रही हो, “क्या मैं तुम्हारा बच्चा नहीं, मुझे क्यों नहीं ले जा रहे?”
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जेनी की भावों से पूर्ण आंखों को देखकर मेरे जाने का उत्साह ही ठंडा पड़ गया. एक बार दिल में आया कि कहूं, “मैं नहीं आती, तुम सब चले जाओ.” सभी का हाल मेरे जैसे था. सबको असमंजस में देख मेरे पति ने कार स्टार्ट की. कॉलोनी के गेट तक पहुंचे ही थे कि देखा जेनी ड्राइविंग सीट की खिड़की पर दो पैर रखे खड़ी थी. मेरा नौकर पीछे-पीछे दौड़ता आ रहा था.
बच्चों ने कार का दरवाज़ा खोला और वह कूद कर अंदर आ गई.
“पापा, चलो न इसको भी शादी दिखा कर लाते हैं.” “चलो.”
सभी इतने ख़ुश हो गए कि विवाह में जाने का उत्साह दुगुना हो गया. हंसते-गुनगुनाते हम सभी चले जा रहे थे. रास्ते में चाय पीने की इच्छा हुई तो सभी एक साफ़-सुथरा ढाबा देख रुक गए. हम लोगों ने चाय पी और पकोड़े खाए. बच्चों ने कोल्ड ड्रिंक लिया. जेनी को उसका प्रिय केक दिया. हम सभी खा ही रहे थे कि एक छोटा-सा पिल्ला कूं-कूं करता आ गया. बच्चों ने उसे कुछ खाने को दिया, तो जेनी ने गले से तरह-तरह की आवाज़ें कर क्रोध व्यक्त किया. जब कार में पुनः बैठे, तो देखा जेनी केक को मुंह में दबाकर ला रही है. कूं-कूं करता पिल्ला भी पास आ गया. हम डर रहे थे कि कहीं जेनी उस पर झपट न पड़े. लेकिन हमने देखा कि जेनी ने अपना प्रिय केक का टुकड़ा उस पिल्ले के सामने रख दिया और स्वयं कार के पास आकर खड़ी हो गई. भावों की अभिव्यक्ति की ऐसी सशक्त भाषा क्या कोई और भी हो सकती है.
– कल्पना दुबे
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