कहानी- बुन गए थे रिश्ते… (Short Story- Boon Gaye The Rishte…)

जीजी ने लंबी पोस्ट लिखी थी जिसे न चाहते हुए भी वह पढ़ता चला गया. एक बार, दो बार और फिर बार-बार उस पोस्ट को पढ़ता. मानो कोई सवाल हो, जिसे हल करने के प्रयास में प्रश्न बार-बार पढ़ रहा हो… तस्वीर के नीचे लिखा था- ‘मेरे छोटे भाई को जन्मदिन की ढेर सारी बधाइयां…’

सुबह-सुबह अदिति को चुपचाप बैठे देख जतिन ने टोका, “किस सोच में डूबी हो… बर्थडे ब्वॉय के लिए कोई प्लॉन दिमाग़ मे चल रहा है क्या…”
अदिति ने उड़ती-सी नज़र उस पर डालते हुए कहा, “आज बर्थडे ब्वॉय से कुछ मांगने का मन है. नाराज़ न हो तो कुछ कहूं…”
“एक नहीं, हज़ार कहो… बस उन बातों में जीजी नहीं होनी चाहिए…” जतिन के लहजे में सहसा तल्खी और ठंडापन भांपकर अदिति हैरान हो गई. कैसे जान गया जतिन कि वह तूलिका जीजी के बारे में ही बात करनेवाली है.
“क्या तुम उन्हें कभी नहीं माफ़ करोगे..?”
“नहीं, कभी नहीं… और हां, तैयार हो जाओ, आज तुम्हें मम्मी के यहां छोड़ना है.”
“रक्षाबंधन में तुम्हें मुझे मेरे मायके छोड़ने का ध्यान रहता है, पर आज के दिन कोई तुम्हारा भी इंतज़ार करता होगा यह याद नहीं रहता?”
“ओफ़्फ़ो… फिर वही बात, मैंने तुमसे कितनी बार कहा है कि इस घर में जीजी का प्रवेश और ज़िक्र वर्जित है.
उनसे जुड़ी हमारी संवेदनाएं कब की मर चुकी हैं. तुम्हें यह समझ में क्यों नही आता. सालों हो गए… न कभी मां ने, न पिताजी ने उनकी कोई बात की फिर तुम क्यों इस नियम को तोड़ रही हो…”
“तो क्या विरासत में मिले इसी नियम का पालन हमेशा किया जाएगा. हमारे बच्चे अपनी बुआ के विषय में पूछेंगे, तो क्या उन्हें भी इस नियम का वास्ता दिया जाएगा.”
“बोल देना उनकी बुआ मर…”
“जतिन! प्लीज़ चुप हो जाओ.” अदिति के विचलित स्वर पर उसने ख़ुद पर नियंत्रण किया. उसकी गर्भावस्था का ध्यान करके वह मौन हो गया और अपने कमरे में चला आया.
खीज हो आई थी कि क्योंकर उसका बर्थडे रक्षाबंधन के दिन पड़ गया.
जीजी के प्रति नफ़रत सालों से खाद-पानी पाकर अपनी जड़ें मज़बूती से मन में जमा चुकी थी. उसे उखाड़ फेंकने के लिए आत्मबल वह कहां से लाए.
विवाह के बाद ही उसने बड़ी बहन से जुड़े अवांक्षित प्रसंग अदिति से साझा करते हुए उसे समझा दिया था कि तूलिका जीजी का इस घर में कोई अस्तित्व नहीं है. उनका जिक्र करके वह पिताजी के ज़ख़्मों को कुरेदने का प्रयास न करे… पर जब से पिताजी इस दुनिया से गए हैं अदिति गाहे-बगाहे जीजी को इस घर से जोड़ने का मौक़ा ढूंढ़ती ही रहती है.


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वह क्या जाने उस अतीत की भयानकता को जिसे उसने और उसके माता-पिता ने भोगा है.
आज न चाहते हुए भी अतीत के पन्ने एक-एक करके फिर खुलने लगे. कितना चाहा कि इन पन्नों को फाड़कर फेंक दे, पर जो पन्ने क्षोभ-ग़ुस्से और बदले की मज़बूत गोंद से ऐसे जुड़े हैं, वो भला फटें कैसे..?
अतीत के पन्ने आंखो के सामने फड़फड़ाने लगे थे.
उसमें और जीजी की उम्र में लगभग ग्यारह-बारह साल का अंतर था. मां-पिताजी के साथ तूलिका जीजी से भी ख़ूब दुलार मिला.
जीजी की बैंक में नौकरी लगे दो साल हो गए थे. पिताजी ने जीजी के लिए एक लड़का ढूंढ़ा, जब उनसे रज़ामंदी मांगी गई, तब उन्होंने अपने ऑफिस सहकर्मी से प्रेम हो जाने की बात बताई.
विजातीय लड़के से जीजी का प्रेम होना पिताजी के लिए डूब मरनेवाली बात थी.
भारी विरोध हुआ. मान-सम्मान के लिए पिताजी ने जीजी के सामने हाथ तक जोड़े. आख़िरकार जीजी ने हार मान ली और पिताजी की पसंद के लड़के से शादी करने को राज़ी हो गईं.
बारात आ गई. जयमाल भी पड़ गया. फेरों का समय आया, तो जीजी दो फेरों के बाद ही ज़मीन पर बेहोश होकर गिर पड़ी.
सब घबरा गए. पिताजी तो जीजी को गोद में उठाकर बचे हुए फेरे दिलाने के पक्ष में थे, पर दूल्हा नहीं माना. मुंह पर पानी के छींटे दिए गए. नीम बेहोशी में जब वह अकुल-अकुल की टेर लगा बैठी, तो मां-पिताजी की तो काटो तो खून नहीं वाली दशा हो गई.
“ये अकुल कौन है?” दूल्हे के प्रश्न पर पिताजी को जैसे लकवा मार गया.
“कौन है भई ये अकुल.” आसपास से सुगबुगाहट आई, तो पिताजी ने जीजी को थप्पड़ मारकर होश में लाने का प्रयास किया. अर्धमूर्छित अवस्था से चेतना की ओर आती जीजी यकायक बिलख पड़ी, “ये शादी नहीं करूंगी. अकुल मर जाएगा. मैं भी मर जाऊंगी…” थकान से झूलती जीजी लंबी-लंबी सांसे लेकर बड़बड़ाने लगी.
बारात में आए लोगों के कान खड़े हुए. थोड़े से प्रश्नों पर पिताजी टूट गए. आंखों देखी मक्खी निगलने के लिए वर पक्ष के लोग तैयार नहीं हुए. रिश्तेदारों के सामने सच्चाई के खुलने से वह अपनी मिट्टी पलीद नहीं होने देना चाहते थे. सो सच्चाई छिपाने और शादी में हुए ख़र्चे के मुआवज़े को लेकर बारात लौट गई.
रिश्तेदारों में अप्रत्याशित घटे घटनाक्रम को देखकर ख़ासी चर्चा थी. समझदार मित्रों और हितैषियों ने पिताजी को समझाया.
“राजेन्द्र, मौक़े की नजाकत समझो, लड़की जिसे चाहती है उससे ब्याहने के अलावा कोई चारा नहीं है…“


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मां का रो-रोकर बुरा हाल था. तूलिका जीजी भी जार-जार रो रही थीं और वह मां-पिताजी और जीजी की दशा से व्यथित रिश्तेदारों के उपहास से विचलित एक कोने में खड़ा थर-थर कांप रहा था.
सहसा पिताजी खड़े हुए और ज़ोर से बोले, “अकुल को तुरंत बुलाओ.” जीजी की सहेलियों की मदद से अकुल से संपर्क साधा गया. बड़े मामा तुरंत गाड़ी लेकर निकल पड़े और जब अकुल को लेकर लौटे, तो वह पिताजी के सामने सिर झुकाए खड़ा हो गया.
“तुम्हें अभी के अभी तूलिका से शादी करनी होगी.” यह सुनते ही वहां उत्साह का संचार हुआ. मंत्र पढ़े जाने लगे, तो जीजी के होंठों पर कांपती कुछ भयमिश्रित-सी मुस्कान आई. मां तो जहां की तहां ही बैठी रही. चाची, बुआ व मामी सब के सब बिना एक शब्द मुंह से निकाले शादी की रस्में निभाती रहीं.
अकुल और तूलिका के अप्रत्याशित गठबंधन की ख़बर अकुल के घर पहुंची, तो उसके परिवार के लोग भी आधे-अधूरे विवाह समारोह में शामिल हुए.
अजब-सा मौन पसरा था. सुबह के लोकाचार को छोड़कर सीधे विदाई की तैयारी शुरू हो गई. अकुल का एक दोस्त टैक्सी ले आया.
जीजी सबसे गले मिलकर आंगन से दरवाज़े की ओर बढ़ी, तो सहसा पिताजी का ऊंचा स्वर पूरे आंगन में गूंजा, “ठहरो…” और जीजी वहीं बुत की तरह ठहर गईं.
सबकी नज़रें पिताजी पर जम गईं. पिताजी की आंखों से आक्रोश के गोले फूट रहे थे. भावभंगिमा सहसा विकृत-सी होती चली गई.
“मैंने अपनी पुत्री के लिए जो भी गहने-कपड़े बनवाए थे वे सब उसे सौंपने के बाद यह घोषणा करता हूं कि आज और इस वक़्त से मेरा इसके साथ कोई संपर्क नहीं रहेगा. हम सबके लिए ये मर गई है…”
मां और सभी रिश्तेदार स्तब्ध से पिताजी को देखने लगे. अकुल ने जीजी का हाथ पकड़कर टैक्सी की ओर खींचा, पर वह हाथ झटककर पिताजी की ओर दौड़ीं… पिताजी ने ख़ुद को कमरे के भीतर बंद कर लिया.
विदाई में सबकी सूखी आंखों से सैलाब बह उठा… मामा-मौसी, चाचा, ताऊ सब अकुल से मृदुला जीजी को ले जाने की गुहार लगाने लगे. मां भी किटकिटाती हुई, “तू जा… इसी वक़्त चली जा… मत आना इधर कभी…” कह-कहकर पछाड़ खाने लगी.
वो डरा-सहमा मेहमानों की चीरती नज़रों से मां को बचाता हुआ भीतर ले गया. जीजी कब गईं, मेहमान कब विदा हुए कुछ पता नहीं चला.
डेढ़ साल बाद जीजी अपने तीन महीने के बच्चे को लेकर आई घर की चौखट पर रखकर मां-पिताजी से उसे कलेजे से लगा लेने की मिन्नते की, फिर भी उनका मन नहीं पसीजा.
फिर जीजी कभी नहीं आई. इस दर्द को सीने में दबाए मां तीन-चार सालों के भीतर ही चली गई. मां से मिलने जीजी आई, तो पिताजी ने फिर दुत्कारा और मां के जाने की सारी भड़ास उस पर उतारी. पिताजी और मां की दशा देखकर उसे भी जीजी से नफ़रत होती चली गई…
वह युवा हो गया. पिताजी बीमार रहने लगे. ऐसे में गाहे-बगाहे जीजी मिलने आती, तो वह बाहर से ही उन्हें खदेड़ देता. धीरे-धीरे जीजी ने अपनी नियति स्वीकार कर ली थी.
वक़्त सबसे बड़ा मरहम होता है और वक़्त के साथ ही इस अवांछित प्रसंग की इबारतें धूमिल हुई.
तक़रीबन पन्द्रह साल बाद जीजी के ब्याह की कटु स्मृतियों को बिना खंगाले उसका अदिति के साथ धूमधाम से विवाह हुआ. पिताजी के मन की टीस हल्की पड़ी.
विवाह के डेढ़-पौने दो साल के भीतर पिताजी भी चले गए. जब इतनी टूटन किसी ने देखी हो, तो भला दोषी को क्षमा कर देनेवाला दिल वह कहां से लाए.
आज अदिति के लिए यह कहना आसान है कि जो बीत गया उसे बिसराकर आगे बढ़ो, पर क्या ये इतना सहज है? जब मां-पिताजी बेटी को क्षमा न कर पाए, तो वह उन्हें क्षमा करके उनकी नज़रों में क्यों गुनहगार बने.
उसे याद आया, जब पिताजी नहीं रहे थे, तब जब जीजी आई, तो अदिति उनके सामने ढाल-सी खड़ी हो गई और बोली, “पिताजी की क़सम उनके साथ चली गई. आप एक बेटी का अधिकार नहीं छीन सकते.” वह मौक़े की नजाकत देख चुप रहा.
जीजी पिताजी के पैरों से लिपटकर माफ़ी मांगती रही. जब पिताजी के अंतिम प्रयाण के समय वह अदिति से बोला था, “जब लौटूं तो ‘ये..’ इस घर में दिखनी नहीं चाहिए…” कहा तो उसने अदिति से था, पर सुनाया जीजी को था. जीजी उस ‘ये’ में अपने लिए घृणा देखकर कांप उठी थी.
जब वह वापस लौटा, तब अदिति ने बताया जीजी देर तक पापा के कमरे में बैठी रही. पागलों सी इस कमरे से उस कमरे में घूमती रही थी. पुरानी चीज़ों को छू-छूकर देर तक देखती रही थी. कभी मां की बकसिया खोलती, तो कभी पापाजी की आलमारी…”
“ढूंढ़ लिया उन्होंने ख़ुद को… कुछ हाथ लगा? क्या मिला देखकर उन्हें… उनसे जुड़ी कोई भी तो चीज़ इस घर में नहीं है… उनकी करतूत के चलते पापा ने उनसे जुड़ी एक-एक चीज़ जला दी थी…”
“शायद वह ख़ुद को नहीं, मां-पिताजी के एहसास को महसूस करने के लिए छटपटा रही हों… मां-पिताजी ने उन्हें ज़रूरत से ज़्यादा सज़ा दे दी है. अब तुम्हें उन्हें इस घर में और अपने मन में जगह देनी चाहिए.” अदिति ने ठंडे स्वर में उसे जवाब दिया, तो वह चिल्ला उठा, “नहीं… कभी नहीं, ऐसा कभी नहीं होगा…”
बावजूद इसके अदिति ने सोशल साइट के माध्यम से जीजी से संपर्क जोड़ लिया. और कई मौक़ों पर वह उसे मनाने का प्रयास कर चुकी है. आज रक्षाबंधन है भला ये मौक़ा वह कैसे जाने देती.
“अच्छा उठो अब. देखो तुम्हारे लिए क्या लाई हूं.”
विचारों का प्रवाह अदिति को सामने देखकर रुका, जो उसके लिए रंगीन काग़ज़ में लिपटा एक गिफ्ट लेकर खड़ी थी. अपने रूठे पति के हाथों में जबरन गिफ्ट थमाकर वह अपने कान पकड़कर माफ़ी मांगने का स्वांग करने लगी, तो उस पर ढेर सारा प्यार उमड़ आया. उसे सीने से लगाकर कहने लगा, “राखी बांधने नहीं जाओगी क्या.”
“नहीं. आज उत्तम और अविजित यहां आ रहे है. रक्षाबंधन यही मनाएंगे और तुम्हारा बर्थडे भी.” वह बोली, तो जतिन मुस्कुरा दिया.
अदिति के दोनों भाई आए, तो घर में रौनक हो गई. राखी बंधवाकर उन्होंने जतिन से केक कटवाया और जोशोखरोश के साथ उसका बर्थडे सेलिब्रेट किया.
सब चले गए, तो अदिति ने कुछ फोटो सोशल साइट पर डाल दी. कमेंट्स की बाढ़-सी आ गई.
सहसा अदिति जतिन से चिरौरी-सी करती हुई बोली, “सुनो, तुम्हें क़सम है ग़ुस्सा मत होना. तूलिका जीजी ने भी आज सुबह इंस्टाग्राम में कुछ पोस्ट किया है, एक बार उसे देख लो न…”


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“अच्छा-ख़ासा दिन बीता है क्यों उसे बिगाड़ रही हो.”
“अपने बर्थडे में मेरी ख़ुशी के लिए तुम इतना भी नहीं कर सकते.” अदिति रूठकर मोबाइल वहीं छोड़कर चली गई, तो नाराज़ होने के बावजूद जतिन ने जाने किस भावना के वशीभूत होकर उसके मोबाइल को उठा लिया और जीजी के साथ ख़ुद की बचपन की संयुक्त फोटो देखकर चौंक गया.
जीजी की गोद में नन्हा-सा जतिन… यह फोटो शायद जीजी की गोद में ख़ुद की मौजूदगी की वजह से बच गई होगी.
जीजी ने लंबी पोस्ट लिखी थी जिसे न चाहते हुए भी वह पढ़ता चला गया. एक बार, दो बार और फिर बार-बार उस पोस्ट को पढ़ता. मानो कोई सवाल हो, जिसे हल करने के प्रयास में प्रश्न बार-बार पढ़ रहा हो… तस्वीर के नीचे लिखा था- ‘मेरे छोटे भाई को जन्मदिन की ढेर सारी बधाइयां…’
जीजी ने अपनी इंस्टाग्राम स्टोरी में आगे लिखा था…
“उस दिन मां के पेट में दर्द हुआ. पिताजी उन्हें अस्पताल ले गए. जब वह वापस आए, तो पड़ोसवाली आंटी ने हंसकर पूछा, “क्या हुआ?”
पिताजी बोले, “लड़का.” और घर के भीतर चले गए. कितने बुद्धू हुआ करते थे हम, जो अंत तक नहीं भांप पाते थे कि घर में नन्हा मेहमान आनेवाला है. ग्यारह साल की उम्र में मां की गर्भावस्था को न पहचानना मुश्किल था या वाक़ई हम आज की तुलना में डम्ब हुआ करते थे…”
जतिन की आंखों में जाने कहां से बदली सी छा गई. वह पढ़ रहा था, “पड़ोसवाली आंटी ने मुझसे जब पूछा कि अपने छोटे भाई से मिलोगी, तो भेंट में क्या दोगी.” तो मेरी चिंता बढ़ गई. मां के ऊनवाले झोले से थोड़ी ऊन ले आई. आंटीजी से फंदे डलवाए और भाई के लिए स्वेटर बुनना आरंभ किया. सिर्फ़ सीधा-उलटा बुनना आता था. न घटाना आता था, न बढ़ाना. फिर भी जूनून था कि स्वेटर बुनना है. पड़ोसवाली आंटी की मदद से हाफ स्वेटर तैयार करके ही हस्पताल गई. मेरा नन्हा-मुन्ना भाई मां के आंचल तले मज़े से सो रहा था. मां ने मेरे हाथ में हाफ स्वेटर देखा तो हैरान हो गई.
इत्तेफ़ाक से उस दिन बारिश हुई थी, इस वजह से मौसम में ठंडक थी. मां स्वेटर पहनाते समय भावुक हो गई थी. वो नन्हा स्वेटर मैंने बुना है इस बात का उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ. मुझे भी कहां विश्वास हुआ कि मैंने बुना है. उस स्वेटर को देखकर ख़ुद पर हंसी आती है. मां, बुआ और मौसी भी मेरा बुना स्वेटर देखकर ख़ूब हंसती थीं. सच तो ये था कि जो मैंने बुना वह स्वेटर तो कतई नहीं था. वो तो रिश्ता था, जिसे रातोंरात बुन गई थी मैं…
आज मैं भी ये क़िस्सा साझा करते हुए मां की तरह भावुक हो रही हूं और ईश्वर से दुआ मांगती हूं कि तू जहां भी रहे ख़ुश रहे सेहतमंद रहे…’
उधर यादें बरस रही थीं और इधर जतिन की आंखें… जब रुलाई सिसकियों में बदल गई, तो अदिति जो शायद दरवाज़े के पीछे से उसके हावभाव का जायजा ले रही थी वह दौड़ी चली आई… उसकी हालत देखकर वह भी रो पड़ी और बोली, “बड़ा शुभ दिन है आज. भाई-बहन के रिश्तें को दोबारा जन्म लेने दो. ये फोटो और ये स्वेटर जीजी मुझसे पूछकर ले गई थीं…”
“कब…”
“जिस दिन पापा नहीं रहे थे…”
जतिन अपनी भावुकता पर काबू पा चुका था. अदिति ने मोबाइल उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, “ये लो, फोन करो जीजी को… कह दो हम आ रहे हैं…” वह अभी भी हिचक से भरा शून्य में ताक रहा था.
“लो न, एक बार बात करके तो देखो…”
“मुझसे नहीं होगा…” जतिन ने कहा तो अदिति के चेहरे पर जली आशा की किरण बुझ गई.
“सीधे जाएंगे. रास्ते में रसमलाई ले लेना जीजी को बहुत पसंद है. बाकी तो किसी की पसंद-नापसंद का पता नहीं…”
अदिति से आंखें चुराते हुए जतिन सहसा बोला, तो वह “ओ जतिन आई लव यू…” कहते हुए उससे लिपट गई. और यह सोचकर ख़ुद को तैयार करने लगी कि जब टूटी कड़ियां जुड़ेंगी… मन मे जमा बहुत कुछ पिघलेगा. ठंडे पड़े रिश्तों में ज्वार-भाटे आएंगे, तब उसे ही सबको संभालना होगा.

मीनू त्रिपाठी


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