कहानी- दादाजी रॉक्स (Short Story- Dadaji Rocks)

“लत अच्छी हो या बुरी, एक बार लग जाए, तो फिर छूटती नहीं है. मैं तो चाहता हूं बच्चों-बड़ों सब को लिखने-पढ़ने की लत लग जाए. अपने पोते-पोती को छुट्टियों में दिनभर टीवी, फोन में घुसा देखकर मैंने घर पर यह छोटी-सी लाइब्रेरी शुरू की थी. आरंभ में मुझे टाइम देना पड़ा. अब तो बच्चे ही आपस में मिलकर उसे संभाल रहे हैं. सफ़र पर निकलता हूं, तो उसी ख़ज़ाने का थोड़ा-सा हिस्सा साथ रख लेता हूं.”

ट्रेन में बैठते ही दीपू ने मम्मी के पर्स से मोबाइल निकाला, ईयरफोन लगाए और खेलना शुरू कर दिया. मम्मी विनीता ने देखकर भी अनदेखा कर दिया. आख़िर कितनी बार समझाए कोई? वैसे भी उनका मूड ठीक नहीं था. अभी तो यूरोप टूर की थकान भी नहीं उतरी थी कि कहीं शोक में जाना पड़ रहा है. सारी पारिवारिक ज़िम्मेदारियां उन्हें ही निभानी पड़ती हैं. दीपू के स्कूल की छुट्टियां थीं, तो उसे भी साथ लेना पड़ गया. आठ वर्षीय इस तूफ़ान को संभालना वैसे भी और किसी के बस की बात नहीं थी.
“तुम्हें परेशान नहीं करेगा. तुम्हारा मोबाइल लेकर एक कोने में बैठा रहेगा.” पराग ने कहा तो विनीता भड़क गई थी.
“यह क्या कम परेशानी है? समझ नहीं आता कैसे यह गंदी आदत छुड़ाएं? इस मोबाइल फोन के कारण आजकल के बच्चे हाथ से लिखना और किताबें पढ़ना ही भूल गए हैं.”
“बेटे, इधर खिड़की से देखो. कितनी सुंदर वादियां हैं! अपनी ट्रेन का इंजन मुड़ते हुए कितना सुंदर लग रहा है?” कानों में एक वृद्ध सहयात्री के स्वर पड़े, तो विनीता वर्तमान में लौटी. बेटे का ध्यान बाहर की ओर आकर्षित करने का उन सहयात्री का प्रयास और मंतव्य समझ वह शर्मिंदा हो उठी. लेकिन दीपू के जवाब ने उनकी शर्मिंदगी और बढ़ा दी.
“स्विट्ज़रलैंड में ऐसे बहुतेरे दृश्य देखे थे. पूरा यूरोप ही एकदम साफ़ और सुंदर है. बस हमारे ही देश में गंदगी और गर्मी भरी पड़ी है.” दीपू ने मुंह बनाया था.
“एक बात बताओ बेटे. यदि तुम्हारे दोस्त का घर तुम्हारे घर से ज़्यादा साफ़ और सुंदर है, तो क्या तुम वहां जाकर रहने लग जाओगे?”
दीपू मोबाइल फोन भूलकर सोचने की मुद्रा में आ गया. फोन की स्क्रीन पर आंखें गड़ाए आसपास बैठे यात्री भी उत्सुकता से उन्हें देखने लगे. वे सज्जन हंसने लगे.
“नहीं न! तुम अपने ही घर को स्वच्छ और सुंदर बनाओगे… अच्छा यह बताओ तुम्हें पुस्तकें पढ़ना पसंद है? मेरे पास ढेर सारी कॉमिक्स हैं, कार्टून के साथ-साथ पंचतंत्र की कहानियां भी हैं.” उन सज्जन ने सीट के नीचे से अपना बैग खींचकर पिंकी, बिल्लू, चाचा चौधरी, मीरा बाई, महाराणा प्रताप… जैसे मशहूर क़िरदारों से जुड़ी किताबें एक के बाद एक निकालनी शुरू की, तो आसपास बैटमैन, स्पाइडरमैन बनकर कूदते-फांदते, अब तक लोगों की नाक में दम किए हुए बच्चे भी आ जुटे और लगे अपनी-अपनी पसंद की किताबें खींचने.
“दादाजी ये… दादाजी वो…” की पुकार से डिब्बा गूंज उठा. विनीता की आश्‍चर्य और उम्मीदभरी नज़रें पुस्तकें टटोलते दीपू पर टिक गईं.
एक महिला सहयात्री ने टिप्पणी की.
“दादाजी, आप तो चलती-फिरती लाइब्रेरी हैं, पर मानना पड़ेगा, बच्चों-बड़ों सब को व्यस्त कर दिया है आपने!”
दादाजी ने नज़रें उठाकर देखा. वाक़ई बच्चों के साथ-साथ डिब्बे के बड़ी उम्र के सहयात्री भी मोबाइल फोन रखकर, किताबें उठा-उठाकर पन्ने पलटने लगे थे. कई तो आसपास से बेख़बर पूरी तरह पढ़ने में तल्लीन हो गए थे. दादाजी मुस्कुरा उठे.

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“लत अच्छी हो या बुरी, एक बार लग जाए, तो फिर छूटती नहीं है. मैं तो चाहता हूं बच्चों-बड़ों सब को लिखने-पढ़ने की लत लग जाए. अपने पोते-पोती को छुट्टियों में दिनभर टीवी, फोन में घुसा देखकर मैंने घर पर यह छोटी-सी लाइब्रेरी शुरू की थी. आरंभ में मुझे टाइम देना पड़ा. अब तो बच्चे ही आपस में मिलकर उसे संभाल रहे हैं. सफ़र पर निकलता हूं, तो उसी ख़ज़ाने का थोड़ा-सा हिस्सा साथ रख लेता हूं.”
“वाह, आपके आसपास रहनेवाली मांओं का सिरदर्द ख़त्म हो गया होगा?” विनीता ने उत्सुकता दर्शाई.
“बिल्कुल! और बच्चों में लिखने-पढ़ने की आदत विकसित हो रही है सो अलग, वरना कंप्यूटर, मोबाइल फोन ने तो आजकल के बच्चों का हाथ से लिखना और किताबें पढ़ना ही छुड़ा दिया है.”
“हां, यह बात तो दादाजी सही कह रहे हैं.”
कानाफूसी होने लगी. बच्चों के दादाजी अब जगत दादाजी बन सबके आकर्षण का केंद्र बन गए थे. दादाजी इन सबसे बेपरवाह बच्चों का परिचय जानने में जुटे थे, दीपू उर्फ़ दीपंकर, मनु, मानस, चिंकी, नाम्या.
नन्हीं चिंकी जिसने अभी पढ़ना-लिखना नहीं सीखा था, अचानक पूछ बैठी, “आपका क्या नाम है?”
“दादाजी.”
“स्कूल में भी?” नन्हीं चिंकी ने हैरानी से पूछा, तो सारे बच्चे हंसने लगे.
“पगली, दादाजी स्कूल नहीं जाते. घर पर ही रहते हैं.”
“सच! पर मेरे घर में तो नहीं हैं. मुझे तो प्ले स्कूल से लौटकर घर में अकेले ही रहना पड़ता है.”
वहीं बैठे चिंकी के माता-पिता के चेहरों पर अपराधबोध उभर आया था. दादाजी ने तुरंत स्थिति संभाल ली.
“बेटी, वे तुम्हारे अच्छे भविष्य के लिए ही नौकरी कर रहे हैं. और देखो, इससे तुम भी कितनी जल्दी स्मार्ट और आत्मनिर्भर हो गई हो, तो यह तुम्हारा प्राइज़ पिंकी और नटखट गिलहरी.”
अपना पुरस्कार पाकर चिंकी ख़ुशी से झूम उठी और मम्मी से पिंकी की कहानी सुनने लगी. अन्य बच्चे उम्मीद से दादाजी को देखने लगे, तो दादाजी उनका मंतव्य समझ गए.
“अच्छा बच्चों, बताओ तुम किस ट्रेन में सफ़र कर रहे हो? वह कहां से कहां के बीच चलती हेै? बीच में कौन-से बड़े स्टेशन आते हैं?”
सही जवाब देकर अपनी पसंद की कॉमिक्स बुक लेकर डब्बू ख़ुशी-ख़ुशी मम्मी-पापा को दिखाने चला गया, तो बाक़ी बच्चे उम्मीद से अगले सवालों का इंतज़ार करने लगे. दादाजी ने उन्हें निराश नहीं होने दिया.
“पिछला स्टेशन कौन-सा था?”
“मकराना.”
“क्यों प्रसिद्ध है?”
“संगमरमर के लिए.”
“संगमरमर से बनी प्रस़िद्ध इमारत?”
“ताजमहल.”
अमर चित्र कथा रामायण पर नज़रें गड़ाए बैठी मिनी ने अंतिम सही उत्तर देकर झट से रामायण उठाकर ले ली.
“मुझे राम-सीता अच्छे लगते हैं. रावण तो घमंडी था.”
“तभी तो दशहरे पर उसे जलाते हैं.” चिराग़ ने अपना ज्ञान बघारा.
“इसलिए बच्चों, हमें बांसुरी की तरह होना चाहिए, फुटबाल की तरह नहीं. कैसे? कोई समझा सकता है?”
सभी बच्चे और बड़े भी सोचने की मुद्रा में आ गए, पर बाज़ी मारी मिनी ने.

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“फुटबाल घमंडी है. अपने अंदर भरी गई हवा को अपने पास ही रख लेती हेै, इसलिए लोग उसे पांवों से ठोकरें मारते हैं. बांसुरी विनम्र है. अपने अंदर फूंकी गई हवा को मधुर स्वर लहरी के रूप में लौटाती है, इसलिए सब उसे होंठों से लगाना चाहते हैं. श्रीकृष्ण भी.”
“वाह, वाह!” सबने उन्मुक्त कंठ से मिनी की तारीफ़ की.
“यह मुझे मेरे दादाजी ने बताया था. वे मुझे पुस्तकों से अच्छी-अच्छी कहानियां और बातें बताते हैं. यह ‘रामायण’ मैंने उन्हीं के लिए ली है. इसे भी हम मिलकर पढ़ेंगे.”
मिनी के पापा ने गर्व से बेटी की पीठ थपथपाई, तो कई जोड़ी आंखें उन पर टिककर बहुत कुछ सोचने को विवश हो गईं.
लेकिन दादाजी को तो और बच्चों का भी सोचना था.
“अब कौन बच्चा मुझे यह बताएगा कि कौन-सा स्टेशन किस खाने की चीज़ के लिए प्रसिद्ध है? अपने देश, प्रांत के बारे में इतनी जानकारी तो हमें होनी चाहिए न?”
दीपू के चेहरे पर फिर हताशा की रेखा खिंच गई. प्राइज़ पाने के सारे मौक़े उसके हाथ से निकलते जा रहे थे. किंतु प्रणव ने उत्साहित होकर जवाब देना शुरू कर दिया, “सेंदड़ा के दही वड़ेे, ब्यावर की तिलपट्टी, नसीराबाद की कचौड़ी…”
“बस करो भई, मेरे मुंह में पानी आने लगा है. वाकई हमारे देसी व्यंजनों का जवाब नहीं. चलो अब एक अंतिम सवाल- आपमें से किसने हाल ही में विदेश यात्रा की है और…” दादाजी का सवाल पूरा भी नहीं हो पाया था कि दीपू ख़ुशी से चिल्ला उठा. “मैंने… मैंने… मेरा प्राइज़.”
“बेटा, पूरा सवाल तो सुन लो और आपकी बकेट लिस्ट में क्या है?”
दीपू सोचने की मुद्रा में आ गया. सब की नज़रें उस पर टिकी थीं, विशेषकर विनीता की.
“अपना देश! अब मैं अपना देश और विशेषकर मेरा प्रांत राजस्थान पूरा का पूरा घूमना और देखना चाहूंगा.”
“बहुत ख़ूब!” दादाजी ने अपनी बैग से एक बेहद सुंदर डायरी और उतना ही आकर्षक पेन निकालकर दीपू को थमा दिया. “यह प्राइज़ तुम्हारे दूसरे जवाब के लिए है. बेटा, विदेश घूमना, वहां पढ़ने जाना बुरी बात नहीं है, पर उसकी तुलना में अपने देश को लेकर हीनता का भाव रखना, हमेशा के लिए विदेश में ही बस जाना मेरी नज़र में उचित नहीं है.
निःसंदेह हमें वहां की स्वच्छता व अनुशासन को अपनाना चाहिए, पर अपनी सभ्यता, अपने संस्कारों पर भी गर्व होना चाहिए. अपनी उच्च शिक्षा का प्रयोग अपने देश को उन्नत बनाने के लिए करना चाहिए. तुम लोगों की सोच पर ही इस देश का भविष्य टिका है और हम सबको तुम सबसे बहुत उम्मीदें हैं. ज़्यादा बड़ी-बड़ी बातें करके तुम बच्चों को बोर नहीं करूंगा.”
दीपू अभी भी अपनी डायरी और पेन में ही खोया हुआ था. उसकी मासूमियत पर रीझ दादाजी उसके कान में फुसफुसाए, “अब हमेशा ऐसी ही अच्छी सोच रखकर अच्छे बच्चे बने रहना. देखो मम्मी कितना गर्व अनुभव कर रही हैं?” विनीता की आंखें गर्व से छलक आई थीं.
“आपके छोटे से घर का गूगल आपकी मम्मी हैं. उन्हें सब पता होता है- आपके सामान से लेकर आपकी भावनाओं तक का.” फिर गला खंखारकर दादाजी ज़ोर से बोलने लगे, “दीपू, बेटा मैं चाहता हूं इस डायरी में तुम रोज़ एक निबंध लिखो. अपनी विदेश यात्रा, यह रेल यात्रा, तुम्हारी बकेट लिस्ट…”
“मैं लिखूंगा, मम्मी को पढ़ाऊंगा. पर आपको कैसे पढ़ाऊंगा? आप तो पता नहीं आज के बाद फिर कभी मिलोगे या नहीं?” दीपू उदास हो गया था. कुछ समय साथ बिताए सफ़र में ही वह दादाजी से आत्मीयता महसूस करने लगा था. शायद बाक़ी बच्चे भी जुदाई का ग़म अनुभव करने लगे थे, क्योंकि सभी के चेहरे उतर गए थे.
“अरे, इसमें क्या है? जो भी लिखो तस्वीर खींचकर अपनी मम्मी के मोबाइल से मुझे भेज देना.” सारे बच्चे और यात्री दादाजी को आश्‍चर्य से देखने लगे. विनीता ने साहस करके पूछ ही लिया, “पर आप तो स्मार्टफोन, टीवी, कंप्यूटर आदि के ख़िलाफ़ हैं न?”
“नहीं! अरे भई विज्ञान ने इतने आविष्कार किए हैं, तो हमें उनका फ़ायदा तो उठाना ही चाहिए. बस, इतना ख़्याल रखना चाहिए कि हम अति का शिकार न हो जाएं, क्योंकि तब विज्ञान वरदान न बनकर अभिशाप बन जाता है.”
अब विनीता व कुछ और भी मम्मियां खुलकर सामने आ गईं. “यही हम भी अपने पति और बच्चों को समझाना चाहती हैं. घर में रहते हुए घरवालों से संवाद न बनाए रखकर टीवी, मोबाइल आदि से चिपके रहना रिश्तों में दूरियां लाता है.”

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“नौकरी मैं भी करती हूं, लेकिन घर में घुसते ही ऑफिस को दिमाग़ से बाहर रख देती हूं और यही अपेक्षा पति और बच्चों से भी करती हूं, पर उन्हें टीवी, लैपटॉप से चिपके देख कोफ़्त होती है.” डब्बू की मम्मी ने अपनी बात रखी, तो डब्बू और उसके पापा ने स्वयं को सुधारने का वचन दिया. विनीता का स्टेशन समीप आ रहा था. उसने सामान समेटना शुरू किया, तो दीपू को मानो होश आया. “दादाजी जल्दी से अपना नंबर दीजिए. मैं मम्मी के मोबाइल में सेव कर लेता हूं.”
“हमें भी… हमें भी…” सारे बच्चे चिल्ला उठे.
दादाजी ने नंबर बोला, तो सब बच्चों ने अपने-अपने मम्मी या पापा के मोबाइल में नोट कर लिया. फिर एक-दूसरे का मुंह देखने लगे. आपस में खुसर-पुसर भी करने लगे. “क्या हुआ?” दादाजी पूछे बिना न रह सके.
“मैंने कर लिया.” दीपू ख़ुशी से चिल्लाया.
“पर क्या?” सब अभिभावक और दादाजी हैरान थे.
“हम आपस में खुसुर-फुसुर कर रहे थे कि दादाजी का नंबर किस नाम से सेव करें, क्योंकि दादाजी नाम से कइयों के मोबाइल में नंबर सेव हैं.” दीपू ने बताया.
“फिर?” एक सम्मिलित स्वर गूंजा.
“मैंने सेव किया है- रॉकस्टार दादाजी.”
“हुर्रे! हम भी इसी नाम से सेव करेंगे.” बच्चे चिल्लाए. “दादाजी रॉक्स.” बच्चों के साथ-साथ सारे यात्री भी उल्लास से चिल्ला उठे.

संगीता माथुर

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