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हास्य कथा- दर्द-ए-दांत (Short Story- Dard-E-Dant)

“कुछ भारी लग रहा है?”
मैंने मासूमियत से ना में गर्दन हिला दी.
दुश्मन की भवें तन गई. शायद उसका वार खाली गया था. तुरंत तरकश से भाला निकाल निरीह दाढ़ पर हल्ला बोल दिया. इधर हमला हुआ, उधर मेरी चीख निकल गई. घबराकर शत्रु के हाथ से हथियार गिर गए.

जन्म के बाद मैं सबसे पहले डेंटिस्ट से ही मिली थी. मात्र दो दिन की उम्र में पिछले जन्म की सौग़ात दो दांत निकलवाने के लिए.
उसके बाद अगले चालीस साल मैंने डेंटिस्ट की चौखट पर कदम नहीं रखा. लेकिन पिछले कुछ समय से दांतों ने विद्रोह शुरू कर दिया, तो मजबूरन जाना ही पड़ा.
“मुंह खोलो… और… और..!”
इतना बड़ा मुंह तो मैंने कभी गोलगप्पे खाने को नहीं खोला था. मरती क्या ना करती, मुंह खोलने के साथ ही आंख खोल देख रही थी डेंटिस्ट को हथियार उठाते… और उसने सारे हथियार मेरे मुंह के अंदर घुमा दिए.
“हम्म… अक्ल दाढ़ ख़राब है, निकालनी पड़ेंगी.”
डेंटिस्ट ने अपना स्टेटमेंट ऐसे सुनाया मानो श्रीराम ने रावण के विरुद्ध युद्ध का उद्घोष किया हो.
‘हे भगवान अक्ल दाढ़ निकल गई, तो कहीं मैं अक्ल विहीन ना हो जाऊं!’ अभी इस चिंता से निकली नहीं थी कि डेंटिस्ट महोदय ने अगले दिन का अपॉइंटमेंट दे दिया.
पूरी रात ठीक से सो नहीं पाई. कितने सालों से अपने जबड़े में सबसे पीछे सहेज कर रखा था इसे और कल मेरे जबड़े से जबरन खींच कर निकाल फेंका जाएगा इसे. दिल भर आया. ज़रा आंख लगी, तो यमराज स्वरूप डेंटिस्ट को हथियार लिए देख हड़बड़ा कर उठ बैठी.
खैर किसी तरह ख़ुद को समझा-बुझाकर डेंटिस्ट के यहां पहुंच गई.

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“आपको शुगर, बीपी तो नहीं है?”
“कभी-कभी बीपी हाई हो जाता है.” (कभी-कभी से मतलब पति से लड़ने के बाद, ये नहीं बताया था)
बीपी चेक किया, तो अच्छा-ख़ासा हाई था.
“आप डर रही हैं दाढ़ निकलवाने से?”
“बिल्कुल डर रही हूं.” बड़ी निर्भीकता से मैंने दुश्मन (डेंटिस्ट) की आंखों में देख कर कहा.
“ही… ही… ही..! दाढ़ निकलवाने में क्या डरना. खैर आज रहने देते हैं आप कल आइए.”
ऐसा लगा फांसी के फंदे से एक और दिन की मोहलत मिल गई है. लेकिन बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी. अगले दिन सारे देवी-देवताओं को हाथ जोड़, सारी हिम्मत बटोर मैं डेंटिस्ट के यहां पहुंची.
दुश्मन ने पहला वार तलवार (इंजेक्शन) से किया. मेरे नाज़ुक से मसूड़े में निर्दयता से इंजेक्शन से ताबड़तोड़ दो प्रहार किए.
“कुछ भारी लग रहा है?”
मैंने मासूमियत से ना में गर्दन हिला दी.
दुश्मन की भवें तन गई. शायद उसका वार खाली गया था. तुरंत तरकश से भाला निकाल निरीह दाढ़ पर हल्ला बोल दिया. इधर हमला हुआ, उधर मेरी चीख निकल गई. घबराकर शत्रु के हाथ से हथियार गिर गए.
“मैंने तो सुन्न करने की पूरी डोज दी थी फिर भी सुन्न नहीं हुआ?”
“नहीं हुआ.”
“आज इससे ज़्यादा डोज नहीं दे सकता. आप कल आइए.”
अगले दिन कार्यवाही से पहले मुझे दो पेनकिलर सटकवाए गए. फिर चार इंजेक्शन पूरे भर दाढ़ के इर्द-गिर्द दाग दिए गए और अट्टहास करते दुश्मन ने भालों-हथियारों की मदद से मेरी अक्ल दाढ़ की अक्ल ठीक कर दी. अब अक्ल दाढ़ डेंटिस्ट के हाथ में थी और वो अपनी विजय का जश्न मना रहा था.
घर पहुंचे, तो मुंह की सुन्नता चरम पर थी. हाथ में आइसक्रीम की कटोरी ले खानी शुरू की… समझ नहीं आ रहा था कि आइसक्रीम मुंह के किस कोने में जा रही है और किसमें नहीं.
“मम्मी, आइसक्रीम गिर रही है.”
“कहां?” मैंने अपने कपड़े देखते हुए कहा.
“यहां…” बेटे ने मोबाइल से फोटो खींच कर दिखाई बाद में वायरल पहले कर दी. मेरा आधा सूजा और सुन्न मुंह किनारों से टपकती आइसक्रीम से नहा रहा था.


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हाय री अक्ल दाढ़ तेरा जाना तो ताउम्र याद रहेगा.
वो आइसक्रीम वाली फोटो संलग्न करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हूं, आप लोग कल्पना करके ही हंस सकते हैं…

– संयुक्ता त्यागी

Photo Courtesy: Freepik

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Usha Gupta

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