लघुकथा- धरोहर (Short Story- Dharohar)

रोहन ने आम तोड़ने के लिए शाखा पकड़ी, तो ऐसा लगा जैसे मानो उसने मेरे बचपन की हथेली पर हाथ रख दिया था. दलान में पड़ी बाबूजी की कुर्सी पर रूही बैठी, तो लगा जैसे वो मेरे बचपन के रूप में बाबूजी की गोद में बैठी हो. नैना सरला काकी का हाथ बंटाने रसोई में गई, तो ऐसा लगा जैसे वो मां का हाथ बंटाने गई हो. हवेली के हर हिस्से में, हर कोने में मेरा बचपन खेल रहा था, जिसे रोहन-रूही जीवंत कर रहे थे.

रोहन और रूही अपने पुश्तैनी गांव जाने के लिए कितने उत्साहित थे. हमेशा की तरह बच्चे सफ़र
के लिए अपने नन्हें-नन्हें बैगों में अपने लिए चिप्स, चॉकलेटस और न जाने क्या-क्या एकत्रित कर रहे थे. नैना सुबह से ही किचन में सफ़र का खाना तैयार करने में जुटी थी और मैं… मैं बेचैनी से इधर-उधर घूम रहा था.
उन सब में उत्साह था, पर मेरे हृदय में चोर. कैसे उन्हें बताता कि इस बार वे गांव और अपनी पुश्तैनी हवेली में अंतिम बार जा रहे हैं. हिमाचल की गोद में छोटा-सा ख़ूबसूरत गांव था हमारा. वर्षा ऋतु में ये पहाड़ी सफ़र और भी ख़ूबसूरत हो जाता है. चारों तरफ़ हरियाली अत्यंत मनमोहक थी. वर्षा के कारण हर थोड़ी-थोड़ी दूर पर निर्मल कलरव करते झरने गुनगुना रहे थे. नैना और बच्चे तो सफ़र के इस मनमोहक दृश्य में खो गए थे, पर मैं… मैं एकदम बेचैन.
चारों ओर पहाड़ों और देवदार के वृक्षों से घिरा हुआ, शहर के कोलाहल और प्रदूषण से एकदम अछूता… मेरा छोटा-सा गांव.
गांव पहुंचकर, जैसे ही हवेली की दहलीज़ खोली रजनीगंधा की भीनी-भीनी सुगंध ने हमारा स्वागत किया. जैसे-जैसे हवेली के भीतर जाते गए, थकान दूर होती गई. रामू काका ने हवेली को बड़े संजोकर रखा था. आंगन में लगा पुराना आम का पेड़ मानो मुस्कुरा कर बांहें फैलाकर मेरा स्वागत कर लाड़ में कह रहा हो, “आ गया मेरा बबुआ.“ पेड़ आम से लदालद भरा था. रोहन ने आम तोड़ने के लिए शाखा पकड़ी, तो ऐसा लगा जैसे मानो उसने मेरे बचपन की हथेली पर हाथ रख दिया था. दलान में पड़ी बाबूजी की कुर्सी पर रूही बैठी, तो लगा जैसे वो मेरे बचपन के रूप में बाबूजी की गोद में बैठी हो. नैना सरला काकी का हाथ बंटाने रसोई में गई, तो ऐसा लगा जैसे वो मां का हाथ बंटाने गई हो. हवेली के हर हिस्से में, हर कोने में मेरा बचपन खेल रहा था, जिसे रोहन-रूही जीवंत कर रहे थे.
उसकी हर दीवार में मां-बाबूजी की ख़ुशबू बसी थी. कितना सुकून था हवेली की गोद में. ये तो मां-बाबूजी की अमूल्य धरोहर थी. हवेली के कण-कण ने मां-बाबूजी का आशीर्वाद मुस्कुरा रहा था. नैना और बच्चे भी तो हर वर्ष आकर मां-बाबूजी का आशीर्वाद समेट ले जाते हैं. और मैं… मैं इस अमूल्य धरोहर को बेचने निकला था.

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कितना बेचैन था मैं अपने इस फ़ैसले से. मैंने निर्णय ले लिया, नहीं बेचनी मुझे अपनी ये अनमोल धरोहर. ऐसी धरोहर, तो अब मुझसे ज़्यादा नैना और बच्चों की प्रिय थी. अगर उन्हें मेरे हवेली बेचने के निर्णय के विषय में पता चलता, तो उनका मन बुझ जाता. उदास हो जाते वे लोग. आख़िर फिर मां-बाबूजी ने मुझे भटकने से बचा लिया.

कीर्ति जैन

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Usha Gupta

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