रोज़ की तरह पवित्रा जब बुढ़िया दादी की मच्छरदानी लगाने बरामदे में गई, तो देखा कि उनका बेटा बैठकर उनसे बातें कर रहा है. पवित्रा के होंठों पर एक तिरछी मुस्कान फैल गई, साथ ही याद आया कि आज महीने की दस तारीख़ है.
पवित्रा वापस अपने कमरे में आकर पढ़ाई करने लगी, लेकिन उसका मन पढ़ाई में न लगकर बार-बार बुढ़िया दादी के बारे में सोचने लगा.
तीन बेटों के साथ उम्र की तपती दुपहरी में ही बुढ़िया दादी को छोड़कर उनके पति चल बसे थे. जैसे-तैसे करके उन्होंने अपने बच्चों का पालन-पोषण किया, लेकिन जैसे ही बच्चों के पंख निकले, एक-एक करके तीनों भाई मां को अकेला छोड़कर अपने बेहतर जीवन की तलाश में शहर की ओर भाग निकले.
जब पवित्रा का परिवार इस गांव में शिफ्ट हुआ था, तब बुढ़िया दादी अकेली ही थीं. फिर उनके कहने पर उनकी लाचारगी देखकर पवित्रा की मां ने उनको अपने यहां काम पर रख लिया था. साथ ही बरामदे में एक चारपाई डालकर पनाह भी दे दी थी, क्योंकि उनका खपरैल का मकान भी ढ़ह चुका था.
उसी समय से बुढ़िया दादी पवित्रा के परिवार के साथ रहने लगी थीं. धीरे-धीरे पवित्रा के परिवार में उनकी अच्छी-ख़ासी धाक भी जम गई थी. पवित्रा की मां को भी एक अदद सास-कम-मां मिल गई थी. बेशक वे पवित्रा के यहां काम करती थीं, लेकिन उनको तहज़ीब से खाना-पानी दिया जाए, उनका बिस्तर व मच्छरदानी लगा दी जाए, यह पवित्रा की मां की सख़्त हिदायत थी, ख़ासकर मच्छरदानी लगाने की ज़िम्मेदारी तो पवित्रा की ही थी.
देखते ही देखते कई साल निकल गए, पर उस दिन छठ पर्व का दिन था. घर में चारों तरफ़ पूजा-पाठ का सामान ही बिखरा था. सब सहेजना था, शाम को घाट पर भी जाना था. अचानक गांव में शोर मचा कि बुढ़िया दादी का बेटा आया है.
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ख़बर सुनकर बुढ़िया दादी भी दौड़ी-भागी गईं. इतने वर्षों बाद अपने बेटे को पाकर वह फूले नहीं समा रही थी. बेटे के आने की ख़ुशी में वह इतनी मगन हुई कि पवित्रा के घर जाना है, आज छठ का त्योहार है यह भी भूल गईं. वह भूल गईं कि गरीबी, अकेलेपन और लाचारी के दिनों में पवित्रा की मां ने ही सहारा दिया था. साथ ही मान-सम्मान और परिवार के सदस्य जैसा अपनापन भी दिया था. उन्हें इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं रहा कि वही पवित्रा की मां आज निर्जल व्रत रखते हुए कैसे अकेले सब संभालेगी.
पवित्रा की मां बुढ़िया दादी को बुलाने के लिए कई बार पवित्रा को भेजीं, लेकिन वे नहीं आईं. सुनने में आया कि उनके बेटे ने उन्हें काम करने से मना कर दिया है. उसका कहना था कि अब वो आ गया है, तो उनको किसी के यहां काम करने की ज़रूरत नहीं है. गांव में चारों तरफ़ बुढ़िया दादी के बेटे की तारीफ़ होने लगी. बुढ़िया दादी फूले नहीं समा रही थीं. सब यही कह रहे थे कि बुढ़िया के भाग्य बहुरे.
लेकिन ये चांदनी सिर्फ़ चार दिन की ही थी. जैसे ही बेटे के लाए हुए पैसे व बुढ़िया दादी के सहेजे हुए पैसे ख़त्म हुए घर में कलह मचने लगा. आए दिन बुढ़िया दादी और बेटे-बहू के बीच गाली-गलौज और मारपीट होने लगी. अंत में बुढ़िया दादी को अपने बेटे के यक्ष प्रश्न का भी सामना करना पड़ा, “मां होकर तुमने किया क्या है मेरे लिए?” और हर मां की तरह बुढ़िया दादी भी अनुत्तरित रह गई थीं.
फिर एक दिन वह शर्म और पश्चाताप भरी नज़रें झुकाएं पवित्रा की मां के सामने आकर खड़ी हो गई थीं. पवित्रा की मां ने भी उदारता दिखाते हुए वापस उनकी चारपाई बरामदे में डलवा दी. बुढ़िया दादी भी काम करने लगीं और पवित्रा की बिस्तर व मच्छरदानी लगाने की ड्यूटी भी शुरु हो गई.
महीना-दो महिना तो सब ठीक चलता रहा, लेकिन फिर उनका बेटा आकर उनसे बातें करने लगा. वह अपनी तमाम परेशानियां व दुखड़ा मां को सुनाता, फिर बुढ़िया दादी की आंखें गीली हो जातीं. और वह अपना बटुआ बेटे की जेब में खाली कर देतीं, जो मां के दिए हुए तनख्वाह से भरी रहती. बेटा तनख्वाह लेकर चुपचाप चला जाता. पहले तो वह दो-चार दिन में आकर मां की खोज-ख़बर ले लेता था, लेकिन कुछ दिनों से वह महीने की दस तारीख़ की रात ही मां के पास आता.
“पवित्रा, ओ पवित्रा.” बुढ़िया दादी की आवाज़ से उसकी तंद्रा भंग हुई.
“क्या हुआ दादी?” पवित्रा ने कमरे से बाहर निकलते हुए पूछा.
“ज़रा मच्छरदानी तो लगा दो.” बुढ़िया दादी ने कहा. पवित्रा हैरान रह गई. रात के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं, अगर वह सो गई होती तो?
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“आपका बेटा अभी-अभी गया है, आपने उससे मच्छरदानी क्यों नहीं लगवा लिया?” पवित्रा ने बुढ़िया दादी से पूछा.
धृतराष्ट्र पुत्र मोह में अंधे थे. आज बुढ़िया दादी भी पुत्र मोह में बहरी-सी बन गईं. वह चुपचाप मच्छरदानी पवित्रा के हाथों में थमा दी.
पवित्रा को आज एक नया अध्याय समझ में आया. वह समझ गई कि युग चाहें जितने बीते, समय चाहें जितना बदले, पर धृतराष्ट्र आज भी किसी-न-किसी रूप में जीवित हैं. अजर हैं.. अमर हैं!..
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