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कहानी- दिशा (Short Story- Disha)

 
    वेदस्मृति ‘कृति’
“सुशांत तो आज भी वैसा ही है, जैसा आज से सोलह-सत्रह साल पहले था. उतना ही ज़िद्दी, उतना ही सनकी, कोई परिवर्तन नहीं. पर अब मैंने कुढ़कर, रोकर और भूखे रहकर ख़ुद को सज़ा देना बंद कर दिया है. मैं इस अनमोल जीवन को इस तरह बरबाद नहीं कर सकती. और फिर दूसरों की मूर्खताओं का ख़ामियाज़ा हम क्यों भुगतें?”

“चल भई साक्षी, अब चाय बना ले. बस, ये बंडल कंप्लीट करके मैं भी घर चलूं. पांच बजने वाले हैं.” रितिका ने मुझसे कहा.
“हां, बस दस मिनट और. लास्ट कॉपी चेक कर रही हूं. मेरा भी ये बंडल कंप्लीट होनेवाला है.” मैंने करेक्शन जारी रखते हुए कहा.
रितिका मेरी पड़ोसन भी है, सहकर्मी भी और अंतरंग सहेली भी. मात्र इक्कीस दिनों की छुट्टियां होती हैं दीवाली की. स्कूल खुलते ही पहले गुरुवार को ङ्गओपन डेफ होता है. सारी छुट्टियां करेक्शन और रिज़ल्ट बनाने की तैयारी में ही निकल जाती हैं. हम दोनों साथ-साथ ही बैठ जाते हैं परीक्षा की कॉपियां चेक करने. कभी मैं उसके घर चली जाती हूं, कभी वो मेरे घर आ जाती है. साथ भी मिल जाता है और बोरियत भी नहीं होती. हम दोनों की समस्याएं, दिनचर्या और काम मिलता-जुलता है. दोनों में अच्छी अंडरस्टैंडिंग है. जैसे ही मेरा जांच-कार्य समाप्त हुआ, मैंने फटाफट टोटल चेक किया, अंक-सूची के साथ बंडल को बांधकर रख दिया.
“रितिका, तुम अपना करेक्शन ख़त्म करो, तब तक मैं बढ़िया-सी चाय बनाकर ले आती हूं.” कहकर मैं किचन में चली गई. जब तक मैंने चिप्स तले और चाय बनाई, रितिका का भी एक बंडल कंप्लीट हो चुका था. उसने भी राहत की सांस ली. चाय लेकर हम दोनों बालकनी में आ गए, हमेशा की तरह. हम दोनों चाय अक्सर बालकनी में ही पीते हैं.
सड़क के उस पार पार्क है. बालकनी से देखने पर यूं लगता है, जैसे हरा गलीचा बिछा है. बच्चों का खेलना, झूला झूलना, बुज़ुर्गों का अपने नाती-पोतों के साथ मन बहलाना पार्क की रौनक बढ़ा देता है. कुल मिलाकर थोड़ी देर की ये चहल-पहल दिन भर की नीरसता को तिरोहित कर देती है. होंठों को भी मुस्कुराने का बहाना मिल जाता है.
चाय पीकर रितिका ने कॉपियों का बंडल बैग में रखा और जाते-जाते बोली, “याद रखना, हमने संकल्प लिया है कि लाइलाज लोगों के बारे में सोच-सोचकर स्वयं को दुखी नहीं करेंगे. इसलिए सुशांत के बारे में सोचने मत बैठ जाना.” मैं मुस्कुरा दी.
आज रितिका का ये कहना कि “सुशांत के बारे में सोचने मत बैठ जाना” मुझे कहीं भीतर तक गुदगुदा गया. कभी-कभी जो सीख हम स्वयं दूसरों को देते हैं, वही सीख दूसरों से हमें भी वापस मिल जाती है. आज बातों-बातों में कई बार सुशांत का ज़िक्र हो गया था, शायद इसीलिए मुझे मेरी ही सीख याद दिला गई थी. आज रितिका की इस बात ने यकायक ही कुछ महीनों पहले की यादें ताज़ा कर दीं.
जब रितिका नई-नई पड़ोस में रहने आई थी, तब बिल्कुल गुमसुम, खोई-खोई-सी रहती थी. न किसी से मिलती-जुलती और न ही बातें करती.
मैंने मन ही मन अंदाज़ा लगाया कि कहीं ये अपने पति कुणाल की वजह से तो परेशान नहीं रहती, क्योंकि कभी मेरी हालत भी बिल्कुल रितिका जैसी ही थी. हर समय सुशांत की बेहूदगियों के बारे में सोच-सोचकर मन ही मन कुढ़ती रहती थी. घूमना-फिरना, सजना-संवरना, बातें करना कुछ भी अच्छा नहीं लगता था. घर के सभी काम करती ज़रूर थी, लेकिन बेमन से, क्योंकि गृहलक्ष्मी बनने का और किसी की पत्नी कहलाने का जो गौरवशाली एहसास होता है, वो मुझे नहीं हुआ था. और फिर मेरा शक सही निकला. दो एक से लोग आपस में मिल ही जाते हैं. मेरी अतिव्यस्त दिनचर्या के बाद भी रितिका धीरे-धीरे कब क़रीब आ गई, पता ही नहीं चला.
एक दिन कुणाल कहीं टूर पर गया था और मेरे स्कूल की छुट्टी थी. वो पूरा दिन हमने साथ ही गुज़ारा. उस दिन हम दोनों ने दुनियाभर की बातें की थीं. उसी दिन रितिका ने मुझसे पूछा था, “साक्षी, तुम इतनी तनावरहित कैसे रह लेती हो? सुशांत का व्यवहार, उपेक्षा, कड़े बोल क्या तुम्हें भीतर तक आहत नहीं करते?”
“क्यों नहीं करते? आख़िर मैं भी तो इंसान ही हूं न और फिर तुमसे क्या छिपा है? तुम्हारे साथ तो मैंने अपनी ज़िंदगी की अच्छी-बुरी बातें शेयर की हैं.”
“वो तो मैंने भी अपना दर्द तुम्हारे साथ बांटा है साक्षी और मैं पहले से काफ़ी बेहतर महसूस करने लगी हूं. फिर भी मैं तुम्हारे जितनी सामान्य नहीं रह पाती.”
“उसके लिए तुम्हें मेरी तरह थोड़ी कोशिश करनी पड़ेगी.” मैंने मुस्कुराते हुए कहा था.
“कोशिश?” रितिका असमंजस में थी.
“लाइलाज लोगों के बारे में सोच-सोच कर अपनी ऊर्जा नष्ट करने की बजाय उसका उपयोग अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए करो. तुम्हारी नब्बे प्रतिशत समस्याओं का समाधान हो जाएगा. रितिका, कभी मेरी भी हालत बिल्कुल तुम्हारे जैसी ही थी. घर में पड़ी-पड़ी आंसू बहाती रहती थी. दिनभर एक मानसिक अंतर्द्वंद्व-सा चलता रहता था. कॉलेज के ज़माने की हंसमुख व मिलनसार ये साक्षी, सुशांत जैसे क्रोधी व ज़िद्दी व्यक्ति के कारण एक निराश, उदास और अर्धविक्षिप्त युवती में तब्दील हो गई थी.
हर वक़्त मन में दहशत-सी बैठी रहती थी कि ये व्यक्ति न जाने कब, कहां, क्या कह देगा? क्या तमाशा करेगा? अंदाज़ा लगाना मुश्किल था. मेरे मायके में भी हर किसी के सामने इन्होंने ऐसे-ऐसे वाहियात तमाशे किए कि मैं क्रोध, शर्मिंदगी और अपमान से सुलग उठती थी. लेकिन अब बस, यूं समझ लो कि मैंने स्वयं को उस दर्द के घेरे से बाहर निकाल लिया है और अब मैं वापस उस घेरे में कैद ही नहीं होना चाहती.” मैंने बात को ख़त्म करने की दृष्टि से कहा.
“साक्षी, जब तुम बोलती हो न, तो ऐसा लगता है जैसे तुम अपनी नहीं, मेरी बात कर रही हो. क्या सारे मर्द ऐसे ही होते हैं?” रितिका का दर्द भी उसकी आवाज़ में साफ़ झलक रहा था.
“क्या पता यार, अगर कुछ सुलझे हुए समझदार पुरुष हों भी, तो हमारे किस काम के? हमारी ज़िंदगी क्या आकार लेगी, ये तो उसी व्यक्ति की मानसिकता और व्यवहार पर निर्भर करता है, जो हमेशा के लिए हमसे जुड़ गया है और जिसके साथ हमें एक छत के नीचे रहना है.”
“तुम बिल्कुल ठीक कह रही हो, पर तुमने सुशांत को कैसे हैंडल किया?”
रितिका की इस बात पर मुझे बहुत हंसी आई. मैंने हंसते हुए कहा, “रितिका डार्लिंग, सुशांत और कुणाल जैसे लोग उस श्रेणी में नहीं आते जिन्हें कोई भी हैंडल कर सके. अपनी बेहूदगियों को भी सही साबित करनेवाले और अपनी ज़िद पर अड़े रहनेवालों के लिए अपनी ग़लती मान लेना संभव नहीं. पता है, इन लोगों को सबसे ़ज़्यादा एलर्जी किन लोगों से होती है?”
“किनसे?”
“शुभचिंतकों व हित चाहनेवालों से.”
“बिल्कुल ठीक कह रही हो. हित की बात कहनेवालों को तो ये लोग बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करते. पर ऐसा क्यूं?” रितिका ने प्रश्‍नवाचक नज़रों से मुझे देखा और पूछा.
“क्योंकि हितैषी लोग इनके झूठे अहं को संतुष्ट नहीं करते और इन्हें वहीं अच्छा लगता है, जहां इनके अहं को पोषण मिले. इसीलिए तो दुनियाभर का दिखावा करते हैं दूसरों को प्रभावित करने के लिए.”
“फिर तुमने क्या किया? कैसे हल ढूंढ़ा?” रितिका की उत्सुकता बढ़ रही थी.
“मैंने ख़ुद को हैंडल किया, रितिका.”
“ख़ुद को?”
“हां, ख़ुद को. सुशांत तो आज भी वैसा ही है, जैसा आज से सोलह-सत्रह साल पहले था. उतना ही ज़िद्दी, उतना ही सनकी, कोई परिवर्तन नहीं. पर अब मैंने कुढ़कर, रोकर और भूखे रहकर ख़ुद को सज़ा देना बंद कर दिया है. मैं इस अनमोल जीवन को इस तरह बरबाद नहीं कर सकती और फिर दूसरों की मूर्खताओं का ख़ामियाज़ा हम क्यों भुगतें? मैंने इस सच्चाई को दिल से स्वीकार कर लिया कि जो साधारण अपेक्षाएं एक पत्नी अपने पति से रखती है, उन पर सुशांत खरा नहीं उतरता. उसका साथ न तो मुझे भावनात्मक सुरक्षा दे सकता है और न ही एक पत्नी की गरिमा को बनाए रख सकता है. इसलिए मैंने अपना सारा ध्यान उसके दोषों से हटाकर अपने प्रिय शौक़ों पर लगाना शुरू कर दिया. पास ही एक नया इंग्लिश मीडियम स्कूल खुला और मुझे वहां नौकरी मिल गई. बस, फिर तो सारी दिनचर्या ही बदल गई. व्यस्त आदमी के पास आंसू बहाने का वक़्त ही नहीं होता.”
रितिका बड़ी गंभीरता से सुन रही थी. मैंने अपनी बात जारी रखी, “तुम ही सोचो रितिका, यदि हम जीवनभर दूसरों के दोष ही बताते रहें, तो भी न तो उनके दोष कम होते हैं और न ही वे सुधरते हैं. हां, इस चक्कर में अपना जीवन व्यर्थ बीतता चला जाता है. हमेशा रोते रहने से और शिकायतें करते रहने से हम स्वयं कब निष्क्रिय और निराशावादी बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता. मुझे ख़ुशी है कि मैंने समय रहते स्वयं को संभाल लिया और अपने समय का सार्थक उपयोग कर लिया.”
रितिका को भी दिशा मिल गई थी और मुझे उसका साथ. डोरबेल की आवाज़ ने मुझे यादों से बाहर ला दिया था. अपने संकल्प को एक बार पुनः दोहराकर मैं फिर व्यस्त हो गई.

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"चल भई साक्षी, अब चाय बना ले. बस, ये बंडल कंप्लीट करके मैं भी घर चलूं. पांच बजने वाले हैं." रितिका ने मुझसे कहा. "हां, बस दस मिनट और. लास्ट कॉपी चेक कर रही हूं. मेरा भी ये बंडल कंप्लीट होनेवाला है."
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