Uncategorized

कहानी- एक और छलांग (Short Story- Ek Aur Chhalaang)

मुझे जीवित देख सभी बेहद ख़ुश हुए और आश्चर्यचकित भी; आख़िर मैं अपनी बुआ का इकलौता भतीजा जो था. तो ऐसे सम्पन्न हुआ मेरी पलायन यात्रा का प्रथम चरण, अंतिम गंतव्य, जिससे मैं भी अब तक वाक़िफ नहीं का आना अभी बाकी है. मगर इतना तो आप समझ ही गए होंगे कि जन्म ले रहे राष्ट्र की प्रसवोत्तर पीड़ा को धरती, समाज और प्रभावित नागरिक कैसे झेलता है.

प्रत्येक मां प्रसव-पीड़ा झेलकर बच्चे को जन्म देती है. ठीक उसी तरह जब पृथ्वी पर एक नए राष्ट्र का जन्म होता है, तो धरती माँ को भी असह्य प्रसव-वेदना होती है, बस हम उसका अनुभव नहीं कर पाते. याद कीजिए वर्ष 1947 का अगस्त माह, 14-15 की आधी रात को दक्षिण-पूर्व एशिया में दो राष्ट्रों का जन्म हुआ – भारत और पाकिस्तान. क्या धरती माता ने इन्हें जन्म देने की प्रक्रिया में प्रसव वेदना नहीं झेली? इतिहास के पन्ने उलट कर देखिए, पृथ्वी की यह वेदना प्रसव के पूर्व और बाद, आपको दिखेगी, आबादी स्थानांतरण में, अकारण बड़े पैमाने पर होने वाली हिंसा में.

लगभग 24 वर्ष बाद एक बार फिर इतिहास ने स्वयं को दुहराया, पृथ्वी को एक बार फिर से असह्य प्रसव-वेदना से गुजरना पड़ा, इस बार जिस बच्चे का जन्म हुआ वह कहलाया बांग्लादेश. आज आपको मैं इसी प्रसवोत्तर पीड़ा से परिचित कराने का इरादा रखता हूं.
मैं, सौरभ चक्रवर्ती, जन्म से पाकिस्तानी और वर्तमान में एक अमेरिकी नागरिक हूँ; और इस प्रसवोत्तर पीड़ा का सीधा शिकार भी. मेरा जन्म मुल्क की आजादी के ठीक चार महीने बाद, यानी 14 दिसम्बर 1947 को, भारतीय सीमा से सटे राजशाही जिले के एक छोटे से गांव में हुआ था. बचपन में मेरी मां को इस बात से शिकायत थी, “तू जब मेरे गर्भ में आया तो एक हिन्दुस्तानी था, पर जन्म दिया मैंने एक पाकिस्तानी को.” मगर मुझे इस नागरिकता परिवर्तन से कोई शिकायत नहीं थी. हमारे इलाके को प्रकृति ने बहुत कुछ दिया था; और सबसे अच्छी बात यह हुई कि हम यदि किसी चीज से वंचित रहे तो वह था बंटवारे से उत्पन्न धार्मिक कट्टरपन. जी हां, पाकिस्तान में एक अल्पसंख्यक समुदाय का सदस्य होते हुए भी हम उन परेशानियों से कभी रू-ब-रू नहीं हुए, कम से कम 1971 तक तो नहीं ही, जिनके बारे में पश्चिमी पाकिस्तान में सुनते रहते थे; शायद यह मेरे मुल्क के दोनों हिस्सों की संस्कृति का अंतर था.
पता नहीं आप हमारे गृह जिला राजशाही के बारे में कितना जानते हैं, पर आपको बताऊं प्रकृति का विशेष आशीर्वाद प्राप्त था हमें.

परम पावन गंगा, अर्थात पद्मा की उपस्थिति मात्र ने हमें वह सब कुछ दे दिया था जिसके लिए लोग तरसते हैं; उपजाऊ जमीन, अच्छी जलवायु, यातायात के लिए एक अतिरिक्त मार्ग (जलमार्ग) सब कुछ तो था हमारे पास. इसी का प्रभाव था कि हमारा इलाका सर्वोत्तम क़िस्म का आम और लीची पैदा करता था, इतना ही नहीं हमारे यहां तैयार रेशमी कपड़ा और उससे बने वस्त्र सारी दुनिया में पसंद किए जाते थे, तभी तो पूरी दुनिया, विशेष रूप से दक्षिण-पूर्व एशिया, में राजशाही को ‘रेशम की नगरी’ के नाम से जाना जाता था. स्वाभाविक है, हमारे क्षेत्र में लोगों की आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर थी.

यह भी पढ़ें: पति, पत्नी और प्रॉपर्टी, जानिए क्या कहता है कानून? (Joint Properties between Spouses: Know what Laws say)


संपन्नता आई तो शिक्षा भी साथ लाई, अन्य इलाकों के विपरीत हमारे यहां बच्चों को स्कूली शिक्षा के लिए दूर नहीं जाना पड़ता था; मैंने भी बारहवीं तक की शिक्षा अपने गांव के स्कूल में ही पूरी की. तत्पश्चात मैं अपने मंडल मुख्यालय राजशाही स्थित सरकारी कॉलेज में पढ़ने चला आया; हमारे कॉलेज का नाम भी राजशाही कॉलेज ही था. यह बहुत पुराना कॉलेज था, पूर्वी पाकिस्तान का तीसरा सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण कॉलेज, ढाका और चटगांव के बाद इसी कॉलेज की स्थापना हुई थी, वह भी 19 वीं शताब्दी में. यह कॉलेज जिस विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था उसका नाम भी हमारे जिला मुख्यालय के नाम से जुड़ा था- राजशाही विश्वविद्यालय.
एक बार कॉलेज की पढ़ाई पूरी हुई, तो मैंने इसी विश्वविद्यालय में नामांकन करवा लिया और दो वर्ष पश्चात मैंने एम.एस.सी.की डिग्री भी हासिल कर ली. सब कुछ ठीक चल रहा था; पढ़ाई पूरी होते मुझे अप्रत्याशित ढंग से उसी डिग्री कॉलेज में व्याख्याता की नौकरी मिल गई, जहां मैं कभी विद्यार्थी था; हाई स्कूल से विश्वविद्यालय तक सदैव प्रथम श्रेणी में पास करने का यह पुरस्कार था. इस सफलता पर मैं तो ख़ुश था ही, मेरा पूरा परिवार और सम्पूर्ण गांव मेरी सफलता का जश्न मना रहा था. यह बात 1970 के सत्र-प्रारंभ की है, मगर इस सफलता के पीछे कुछ अनिष्ठ भी दस्तक दे रहा था जिसे हम सुन नहीं पा रहे थे.
आगे बढ़ने के पूर्व थोड़ी और बातें मेरे मूल मुल्क के बारे में जो 14 अगस्त 1947 को हिंदुस्तान के टुकड़े होने के बाद वजूद में आया था. आज़ादी की लड़ाई में शुरू में तो सब साथ थे, पर बाद में मुस्लिम लीग ने अपने लिए अलग देश की मांग की; यह बात हमारे पूर्व शासक अंग्रेज़ों की मंशा के भी अनुकूल थी. देश के मुस्लिम-बहुल इलाके में बना पाकिस्तान और शेष भाग, जो हिंदु-बहुल था, बना भारत या हिंदुस्तान. पाकिस्तान के दो हिस्से बने, भौगोलिक स्थिति के कारण वे पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के नाम से जाने गए. दोनों के बीच हज़ारों किलोमीटर की दूरी थी; मैं तो भारत को इस बात का श्रेय देता हूं कि उसने बड़ी शालीनता से ऐसे दो पाकिस्तान-खंडों के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया.

भौगोलिक दूरी के अतिरिक्त ये दोनों हिस्से सांस्कृतिक और भाषाई तौर पर काफी भिन्न थे. पूर्वी पाकिस्तान, जहां हम रहते थे, संस्कृति और भाषा के दृष्टिकोण से भारत के बंगाल का ही विस्तार था; हमारे यहां धर्म रिश्तों पर कभी हावी नहीं हुआ. शायद यही कारण रहा होगा कि हमारे पूर्वजों ने कभी यहां से पलायन करने की नहीं सोची. दूसरी ओर था पश्चिमी पाकिस्तान जहां अलग-अलग भाषाएं बोली जाती थी, उनकी सांस्कृतिक पहचान भी एक दूसरे से अलहदा थी; उन्हें बांधने वाला केवल धर्म था.
जब किसी मुल्क में विभिन्न समुदाय के लोग रहते हों, उनकी भाषाएं और संस्कृतियां अलग-अलग हो, तो उसे बांध कर एक मुल्क बनाने के लिए बड़ी कोशिश करनी पड़ती है. इसके लिए सबों की भावनाओं का ख़्याल रखना पड़ता है; हिंदुस्तान ने यह काम बख़ूबी किया, मगर हमारे नुमाइंदे नहीं कर पाए या शायद करना चाहते ही नहीं थे. एक बड़ा ही माकूल उदाहरण है: आजादी के बाद कायदे आजम जिन्ना द्वारा इस बात की मुनादी कर दी गयी कि उर्दू, और सिर्फ़ उर्दू, पाकिस्तान की सरकारी ज़बान होगी; आपको जानकर ताज्जुब होगा कि उर्दू पाकिस्तान के किसी क्षेत्र की ज़बान थी ही नहीं, यह तो बिहार और उत्तर प्रदेश के उन मुसलमानों की भाषा थी, जिनकी कोशिश से पाकिस्तान बना. हमारे हुक्मरानों ने सोचा कि धर्म के अतिरिक्त एक भाषा की डोर से मुल्क को बांध दें, तो शायद पाकिस्तान में एकता स्थापित हो जाए; वे ग़लत थे.

यह भी पढ़ें: कहानी- कांवड़िया (Short Story- Kanvadiya)


इसी तरह की अव्यावहारिक नीतियों के कारण हमारे यहां जुम्हूरियत बस नाम का रह गया, जबकि आज़ादी के बाद भारत में लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत और गहरी होती गई. जनाब मुहम्मद अली जिन्ना, जिन्हें पाकिस्तान का निर्माता भी कहा जाता है, की ज़िंदगी तक तो जुम्हूरियत कारगर रहा, उनकी मौत के बाद यह भी अपनी आख़िरी सांस लेने लगा.
जनाब लियाकत अली खान की हत्या होते पाकिस्तान से जुम्हूरियत का जनाजा ही निकल गया. पाकिस्तान की हुकूमत पर पश्चिम के अभिजात वर्ग, मुख्य रूप से पंजाबियों का पूरी तरह से कब्ज़ा हो गया. हमारी फौज ने भी उनका तहेदिल से साथ दिया; दोनों साथ मिलकर सत्ता की मलाई खाने लगे. वक़्त के साथ यह रिश्ता पलटा, राजनीति पर सैन्य शक्ति हावी हो गई, और हमारे यहां सैनिक शासन की परंपरा चल पड़ी.
मगर एक ग़लती उनसे भी हो गई; शायद दुनिया को दिखाने के लिए ही उन्होंने वर्ष 1970 में आम चुनाव की घोषणा कर दी. हमारे इलाके की जनता में असंतोष तो पहले से चरम पर था, जैसे मौक़ा मिला लोगों ने सत्ता बदल दी.

वैसे भी पूरे पाकिस्तान की आबादी में हमारा हिस्सा 56% था; चुनाव में हमारे लोगों ने बंगाल के श्री मुजीबुर रहमान की पार्टी अवामी लीग को प्रचंड बहुमत दे डाला और उनकी सरकार बनने का रास्ता साफ़ हो गया. अब तक देश की संपदा पर पूरी तरह से सेना और पश्चिम का कब्ज़ा था. हमारी बजट का मुख्य हिस्सा इन्हीं पर ख़र्च होता था और पूर्वी पाकिस्तान उपेक्षित रह जाता था. लोगों में उम्मीद जगी कि अब उनकी स्थिति बेहतर होगी, पर जैसा मैंने शुरू में कहा, हमारे मुल्क में जुम्हूरियत की रूह ही नहीं पनप पाई थी. पश्चिम का अभिजात वर्ग सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं था और बंगाली इस बार लड़ने के मूड में थे, बहुत दिनों बाद एक मौक़ा जो मिला था.

असंतोष बगावत का रूप लेने लगा. नौजवानों ने सेना के विरुद्ध मुक्ति वाहिनी का निर्माण किया और सेना के ख़िलाफ़ जंग में उतर गए. शुरू में उन्हें अच्छी सफलता मिली, क्योंकि जनता का समर्थन था, कई मुख्य नगरों को उन्होंने सेना से मुक्त भी करा लिया. जानकार इस सफलता का कारण भारत द्वारा मुक्ति वाहिनी को सैन्य सामग्री मुहैया कराना और उन्हें युद्ध कौशल का प्रशिक्षण देना भी मानते हैं, शायद यह सही भी हो. इनकी सफलता से आक्रोशित पाकिस्तान के तात्कालिक सैन्य-शासक जनरल याहया खान ने सेना को नरसंहार का खुला आदेश दे दिया, निशाने पर मुख्य रूप से थे प्रबुद्ध नागरिक, बंगाल के भद्र-लोक और भविष्य की आशा, नौजवान विद्यार्थी.
ढाका सहित सभी नगरों में 25 मार्च 1971 से याहया खान के निर्देश पर सेना ने प्रारंभ किया ऑपरेशन सर्चलाइट, जिसमें शारीरिक रूप से स्वस्थ नौजवानों को गिरफ़्तार करने और मार डालने के आदेश का बेरहमी के साथ पालन किया जाने लगा. स्कूल, कॉलेज के शिक्षक सीधे निशाने पर आ गए. प्रतिदिन सेना की टुकड़ी स्कूल/कॉलेज में घुसती, जो मिलता उसे गिरफ़्तार करती, और उसका फिर कुछ पता नहीं चलता. सेना द्वारा किए जा रहे क़त्ल-ए-आम के अलावा समाज में कई तरह की दूसरी समस्याएं भी सिर उठाने लगी, जिसमें बंगला भाषी और उर्दू भाषी बिहारी मुसलमानों के बीच मार-काट का शुरू होना सबसे दुखद था. स्थिति बिगड़ती देख अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर रहमान ने पूर्वी पाकिस्तान को 26 मार्च 1971 को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया और उसे नाम दिया बांग्लादेश.

इस युद्ध का अंत 16 दिसम्बर 1971 को हुआ जब पाकिस्तानी सेना ने ढाका में भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया; द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद किसी भी सेना के द्वारा किया गया यह सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था, जिसमें 90 हज़ार सैनिकों ने बिना किसी विरोध के, बगैर एक गोली चलाए, भारतीय सैनिकों के सामने हथियार डाल दिए.

मेरी ज़िंदगी का नया अध्याय भी 26 मार्च 1971 के बाद ही शुरू हुआ, जब मैं कई छलांगे लगाता हुआ अंततः अमेरिका आ पहुंचा. शेख मुजीब की घोषणा के बाद बांग्लादेश बन तो गया, पर पाकिस्तानी सेना और हमारी मुक्ति वाहिनी के बीच जंग प्रतिदिन उग्र होता गया और सेना द्वारा नौजवानों का क़त्ल-ए-आम बिना किसी रोक-टोक बेरहमी से चलता रहा. अब इस मुल्क में रुकना अपनी मौत को दावत देना था, क्योंकि मेरे जैसे शिक्षित लोगों को सेना सबसे ज़्यादा टारगेट कर रही थी. मगर प्रश्न यह भी था कि आख़िर देश छोड़ कर कोई जाएगा कहां. हमारे पास शरण पाने के लिए बस एकमात्र स्थान था हिंदुस्तान, वही मुल्क जिसके टुकड़े बनाकर हमारे नेताओं ने अपना राजनीतिक स्वार्थ साधा था. यदि किसी तरह हिंदुस्तान पहुंच भी जाएं, तो आगे क्या… यह प्रश्न मुंह बाए खड़ा था.
सौभाग्य कहिए मेरी अपनी बुआ की शादी अविभाजित बंगाल के कलकत्ता शहर में 1942 में हुई थी और उनका परिवार वहीं रह रहा था. उन लोगों की आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी थी; अतः मुझे सिर छिपाने की जगह नहीं तलाशनी पड़ती. परेशानी बस एक थी, जिसे देखो वही भारत की सरहदों की ओर भाग रहा था, एक अनुमान के अनुसार, लगभग एक करोड़ बांग्लादेशी हिंदुस्तान में शरण ले चुके थे. मैं अपने कुछ मित्रों के साथ उस संख्या को बढ़ाने जा रहा था.
मगर यह कार्य आसान नहीं था, एक तरफ़ पाकिस्तानी सेना पलायन करते बंगालियों को खोज-खोज कर मार रही थी, तो दूसरी तरफ़ हिंदुस्तान की सरहद पर तैनात बी.एस.एफ. उन्हें पीछे धकेल रही थी. सबसे ज़्यादा ख़तरा उन्हें था, जो प्रबुद्ध वर्ग से आते थे, और नौजवान थे; दुर्भाग्यवश मैं इसी श्रेणी में आता था. सच कहूं, तो मैं ख़तरों का सामना करने, परिस्थितियों से लड़ने और उनके प्रतिफल झेलने को तैयार था, मगर मां-बाबा ने मुझे देश परित्याग के लिए बाध्य कर दिया, “हमारा तो बस एक ही बेटा है, अगर वही नहीं रहा तो पुरखों का नाम कौन आगे ले जाएगा.” थक-हार कर मैंने अपने बचपन के तीन मित्रों के साथ पलायन की योजना को कार्यान्वित करने का निर्णय लिया, क्योंकि हमें विश्वस्त सूत्रों से पता चल चुका था कि पाकिस्तानी सेना द्वारा तैयार की गई इस इलाके की उन्मूलन सूची में हमारा नाम सबसे ऊपर था. सौभाग्य वश सेना का ध्यान अभी तक मुख्य रूप से ढाका और उसके इर्दगिर्द के क्षेत्र पर था, फिर भी कोई जोख़िम उठाना व्यावहारिक नहीं था. लगभग एक सप्ताह के विचार मंथन के बाद हमने अपना पलायन-मार्ग तय किया और आवश्यक तैयारियां शुरू कर दीं.
भूगोल हमारा विषय कभी नहीं रहा, मगर कुछ ही दिनों में हम भारत-बांग्लादेश की पश्चिमी सीमा के चप्पे-चप्पे से वाक़िफ हो चुके थे. एक बार पलायन-मार्ग निर्धारित कर लेने के बाद हम सही वक़्त का इंतज़ार करने लगे. पलायन के लिए हमने अमावस्या की रात चुनी, ताकि अंधेरे का लाभ उठाया जा सके; पहले से ही एक परिचित नाविक को अच्छी-ख़ासी रकम देकर एक चप्पू वाली छोटी नाव किराए पर ली गई और हम निकल पड़े अपने मुहिम पर. नाविक की सहायता से नदी के बहाव के मद्देनज़र हमने प्रस्थान बिंदु निर्धारित किया, और फिर रात दस बजे अश्रुपूरित आंखों से हमारे परिवार ने हमें विदा किया.
लगभग 40 मिनट में हमने पद्मा पार कर ली; नाव से उतरते न जाने कहां से बी.एस.एफ. के नौजवान हमारे सामने आ खड़े हुए. उन्हें हमने अपनी स्थिति से वाक़िफ कराया, रक्षा की गुहार लगाई; हमारे प्रमाण पत्र भी हमारी कहानी बयान कर रहे थे, उन्हें पता था कि पाकिस्तानी सेना ऐसे ही लोगों पर टारगेट प्रैक्टिस करती थी. उन्होंने हमें रोका तो नहीं, मगर कोई अन्य सहायता देने से साफ़ मना कर दिया; हां, इतना अवश्य बतलाया कि यदि तुम लोग सीधे दक्षिण की तरफ़ जाओगे तो मुर्शिदाबाद जिले के एक प्रमुख शहर डोमकल पहुंच जाओगे, फिर वहां से कहीं भी जाने की सवारी तुम्हें मिल जाएगी.

यह भी पढ़े: सीखें ब्रेन मैनेजमेंट के कारगर उपाय (Things You Can Do To Care For Your Brain)


हमारा लक्ष्य भी डोमकल ही था, लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर वहां पहुंच सभी एक-दूसरे से गले मिले और फिर अपने-अपने रास्ते चल पड़े. ज़िंदगी रही तो पुनः मिलेंगे. मेरा लक्ष्य था वर्धमान रेलवे स्टेशन, जो वहां से 145 किलोमीटर दूर था. एक छोटे सा कम्पास और हाथ से तैयार किया गया एक कामचलाऊ नक्शा, यही मेरे साथी थे और उन्हीं की सहायता से रास्ता तलाशते मैं मुख्य सड़क पहुंचा. यहां से वर्धमान के लिए सवारी मिल जाने की संभावना थी और ऐसा हुआ भी, बहुत से चालक रात के अंधेरे में दो से तीन गुना पैसे लेकर लोगों (बांग्लादेशी शरणार्थियों) को उस स्थान से वर्धमान तक पहुंचाने का कार्य कर रहे थे. मैंने भी एक जीप वाले को मुहमांगी रकम देकर अपनी यात्रा पूरी की. रात होने के कारण यात्रा में कोई व्यवधान नहीं आया. वर्धमान रेलवे स्टेशन से संयोग वश मुझे कलकत्ता (उस वक़्त इसे कोलकाता नहीं बुलाते थे) की ट्रेन तुरत मिल गई और सूर्योदय के साथ मैं अपनी बुआ के घर पर था.
मुझे जीवित देख सभी बेहद ख़ुश हुए और आश्चर्यचकित भी; आख़िर मैं अपनी बुआ का इकलौता भतीजा जो था. तो ऐसे सम्पन्न हुआ मेरी पलायन यात्रा का प्रथम चरण, अंतिम गंतव्य, जिससे मैं भी अब तक वाक़िफ नहीं का आना अभी बाकी है. मगर इतना तो आप समझ ही गए होंगे कि जन्म ले रहे राष्ट्र की प्रसवोत्तर पीड़ा को धरती, समाज और प्रभावित नागरिक कैसे झेलता है.

फ़िलहाल मैं अपनी बात यहीं समाप्त करने को मजबूर हूं, क्योंकि उन दिनों को याद कर मेरा दिल भर आया है और आगे कुछ कह पाना संभव नहीं लगता; कभी मौक़ा मिला, तो अगले चरण की यात्रा की चर्चा अवश्य करुंगा, तब तक के लिए अलविदा!

प्रो. अनिल कुमार

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

Photo Courtesy: Freepik

अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का कलरएसेंस कॉस्मेटिक्स का गिफ्ट वाउचर.

Usha Gupta

Share
Published by
Usha Gupta

Recent Posts

व्यंग्य- संबोधन सूचक नया शब्द…  (Satire- Sambodhan Suchak Naya Shabd…)

“अंकल, अपना बैग हटा लीजिए, मुझे बैठना है.”जनाब अंकल शब्द के महात्म से परिचित नहीं…

May 21, 2024

कतरिना कैफ गरोदर ?विकी कौशलसोबतच्या त्या व्हिडिओमुळे रंगल्या चर्चा  (Katrina Kaif Is Pregnant, Her Viral Video From London With Vicky Kaushal Sparks Pregnancy Rumours)

बॉलिवूडच्या प्रेमळ जोडप्यांपैकी एक असलेल्या विकी कौशल आणि कतरिना कैफ यांच्या लग्नाला तिसरे वर्ष पूर्ण…

May 21, 2024
© Merisaheli