Short Stories

कहानी- एक नया अंत (Short Story- Ek Naya Ant)

ऐसा होता है न कि अगर किसी ने हमें जीवन में बहुत कष्ट पहुंचाया हो, तो मौक़ा मिलने पर हम भी दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं, जबकि होना तो यह चाहिए कि जिन कष्टों से हम गुज़र चुके हैं, वे दूसरों को न दें.

अभी मैंने किचन में पैर रखा ही था कि डोरबेल बजी. मैं चौंकी, कमलाबाई तो आज छुट्टी पर है, नवीन को भी ऑफिस गए काफ़ी देर हो चुकी है, फिर सुबह-सुबह कौन होगा? दिल ही दिल में यह सब सोचते हुए दरवाज़ा खोला, तो संपदा थी, साथ में विजय भी था. विजय ने जल्दी से कहा, “मम्मी, मैं ऑफिस जा रहा हूं. शाम को संपदा को लेने आऊंगा, पापा से भी मिल लूंगा.” मैंने कहा, “ठीक है बेटा, डिनर यहीं करके जाना.” तो वह, “हां, ठीक है” कहता हुआ जल्दी से चला गया. उसके जाने के बाद संपदा और मैं ड्रॉइंगरूम में आए. संपदा काफ़ी कमज़ोर लग रही थी और काफ़ी दिनों बाद आई थी. मैंने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “तुम बैठो, मैं आती हूं. अच्छा ऐसा करो, तुम अंदर थोड़ा लेट जाओ, मैं तुम्हारे लिए कुछ खाने को लेकर आती हूं.”

“नहीं मम्मी, मैं नाश्ता कर चुकी हूं. बस, आप आ जाओ, मेरे साथ बैठकर बातें करो. खाना हम मिलकर बना लेंगे.” उसने कुछ उदासी से कहा.

“हां, मुझे पता है तुम्हारा नाश्ता, एक स्लाइस के साथ एक कप चाय पी ली होगी. कितनी बार कहा है इस हालत में अपने खाने-पीने का ख़ास ध्यान रखा करो. दूध पिया करो, फल खाओ, लेकिन आजकल की लड़कियों की समझ में हम पुराने लोगों की बातें आतीं ही नहीं. रुको, मैं कुछ लेकर आती हूं.”

मैं किचन में जाकर उसके लिए मिल्कशेक बनाने लगी, तो मुझे अपना वह समय याद आ गया, जब मैं संपदा जितनी थी और इसी तरह मैं भी जब मायके आती थी, तो मेरा दिल भी यही चाहता था कि मां मेरे पास ही बैठी रहे. मैं मिल्कशेक लेकर संपदा के पास आई. उसका मुरझाया चेहरा देखकर मैं चौंक गई, पूछा, “तबीयत तो ठीक है न?”

“मम्मी, क्या होना है तबीयत को, बिल्कुल ठीक है.” उसकी आवाज़ में कुछ ऐसा था, जो मुझे बुरी तरह चुभा.

“फिर ऐसी गुमसुम-सी क्यों हो?” मैंने कुरेदा, जो आमतौर पर मेरा स्वभाव नहीं था, लेकिन उसका चेहरा देखकर मैं ख़ुद को रोक नहीं पा रही थी, इसलिए  पूछ ही लिया.

“मम्मी, मैं परेशान हो गई हूं, एक तो मेरी तबीयत ख़राब है, मुझे समझ नहीं आता कि क्या करूं.”

मैंने उस पर चिंतित दृष्टि डालते हुए कहा, “तुम अपना ध्यान रखो, खाओ-पीओ, आराम का समय निश्‍चित करो, मैं तुम्हें कितने दिनों से समझा रही हूं.”

“मम्मी, यह बात नहीं है, मैं पहले इस बात पर हंसा करती थी कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है, लेकिन अब इसका मतलब मैं समझ गई हूं.”

“क्यों, ऐसा क्या हुआ?” मैंने हैरानी से पूछा.

यह भी पढ़े35 छोटी-छोटी बातें, जो रिश्तों में लाएंगी बड़ा बदलाव (35 Small Things For Successful Relationship)

मेरी बेटी संपदा का विवाह सालभर पहले ही हुआ था. विजय हमें सभ्य और समझदार लगा था, उसके पिता भी अच्छे पद पर थे, उससे बड़ी दो विवाहित बहनें थीं. घर में आर्थिक स्थिति अच्छी थी और विजय की मां सुभद्रा देवी मुझे ठीक-ठाक ही लगी थीं. देखने में तो कुछ ऐसा नहीं था, फिर ऐसी क्या बात हुई, जो संपदा इतनी दुखी लग रही थी. “मम्मी, आपको बताया था न कि आजकल मुझसे सुबह उठा नहीं जाता, उल्टियों की वजह से बुरा हाल है, लेकिन मांजी को लगता है कि मैं एक्टिंग कर रही हूं और घर के कामों से जान छुड़ा रही हूं. वहां सबका मूड ख़राब हो जाता है. मम्मी, मुझसे सहन नहीं होता.” कहते-कहते संपदा रोने लगी, तो मेरा दिल जैसे मुट्ठी में आ गया. मैंने पूछा, “और विजय? वह तो तुम्हारा ध्यान रखता है न?”

“हां मम्मी, शुरू-शुरू में तो वह बहुत ख़ुश थे, लेकिन आजकल मांजी का ख़राब मूड देखकर कुछ बोलते ही नहीं. इस पर मेरा दिल और कुढ़ जाता है. मम्मी, एक लड़की के लिए उसकी ससुराल में उसका सबसे मज़बूत सहारा उसका पति ही होता है. अगर वह भी उसका साथ नहीं देगा, तो वह कहां जाएगी?”

“देखो बेटा, इन दिनों तबीयत ऐसे ही ऊपर-नीचे होती रहती है, लेकिन तुम हिम्मत रखो, अगर तुम भी अपनी बड़ी बहन सुखदा की तरह अकेली रहती, तो भी तुम्हें सब कुछ करना पड़ता.”

“तब घरवालों के रोज़ नए मूड तो नहीं देखने पड़ते, रवि जीजाजी ने ऐसी हालत में दीदी का कितना ध्यान रखा था.”

“बेटा, ये तो छोटी-छोटी समस्याएं हैं. समय के साथ ये ख़ुद ही हल हो जाएंगी. अब तुम टेंशन छोड़ो, सुखदा को भी फोन कर दो कि शाम को वह भी यहीं आ जाए. सब मिलकर खाना खाएंगे. बताओ क्या बनाऊं?”

“मम्मी, मेरा दिल कर रहा है आज पापा के लिए छोले बनाऊं. आपको याद है न, पापा को आपके हाथ से ज़्यादा मेरे हाथ के बने छोले अच्छे लगते हैं.” संपदा के हाथ में बहुत स्वाद है, यह मैं जानती हूं, इसलिए मुझे उसकी गर्वीली आवाज़ पर हंसी आ गई.

“मम्मी, आज कमलाबाई नहीं आई?”

“नहीं, उसकी बेटी बीमार है, कल आएगी.” संपदा मेरे पीछे-पीछे किचन में आ गई. “लाओ मम्मी, मिलकर काम निपटाते हैं.” मैंने कहा, “तुम यह सब छोड़ो, तुम जाकर मेरे रूम में टेबल पर देखो, नई पत्रिका आई है. उसमें मेरी वह कहानी छपी है, जो तुम्हें बहुत पसंद आई थी.” मैं उसे किचन से हटाना चाहती थी.

“अरे! सच मम्मी, वह तो बड़ी अच्छी कहानी थी, मैं अभी देखती हूं. वैसे भी मसालों की ख़ुशबू से मुझे अजीब-सी फीलिंग होती है. मम्मी, हमारे आने से आपका काम बढ़ जाता है न?” संपदा की आवाज़ में शर्मिंदगी-सी थी.

“यह काम बढ़ने से मुझे और तुम्हारे पापा को जो ख़ुशी होती है, उसका अंदाज़ा तुम लोग नहीं लगा सकतीं.”

“मम्मी, मुझ पर भी कोई कहानी लिखो न.”

“अच्छा ठीक है, लिखूंगी. अब तुम आराम करो, और हां, सुखदा को फोन कर लो.”

संपदा मेरे रूम की ओर बढ़ी, तो मैंने बिजली की तेज़ी से अपना काम शुरू कर दिया. हाथ अपना काम कर रहे थे और मन अपना. दो ही बेटियां हैं हमारी, यह तो ईश्‍वर की कृपा है, जो दोनों इसी शहर में हैं. दोनों आती-जाती रहती हैं. हम दोनों का काम ही कितना था. इसलिए समय मिलने के कारण मेरा लिखने का शौक़ भी ज़ोरों पर था. कई पत्रिकाओं में मेरी कहानियां छपती थीं,  जिसकी सबसे बड़ी प्रशंसक और आलोचक मेरी बेटियां ही थीं. नवीन तो शाम को ही आते थे. सच तो यह है कि मेरे इस शौक़ ने मेरे अकेलेपन को बड़ा सहारा दिया था, क्योंकि बेटियोंवाली मांओं को तो आदत होती है न कि हर समय घर में गपशप और रौनक़ का माहौल हो, इसलिए संपदा के विवाह के फ़ौरन बाद मैं बहुत घबराई, लेकिन फिर धीरे-धीरे ख़ुद को संभालकर अपने आप को व्यस्त कर ही लिया था.

यह भी पढ़ेलघु उद्योग- वड़ा पाव मेकिंग: ज़ायकेदार बिज़नेस (Small Scale Industries- Start Your Own Business With Tasty And Hot Vada Pav)

रात में मेरी बेटियां-दामाद इकट्ठा हुए, सुखदा के बेटे शौर्य ने ख़ूब रौनक़ लगा रखी थी. नवीन दोनों दामादों के साथ बातों में व्यस्त थे. हम तीनों बेडरूम में आ गए. शौर्य ने नवीन की गोद में डेरा जमा रखा था. सुखदा अपने पापा की तरह हर बात साफ़-साफ़ करती थी. अब तो वह और भी बोल्ड हो गई थी, लेकिन संपदा मेरी तरह बहुत ही सोच-समझकर बोलनेवाली थी. इस बात का ध्यान रखती थी कि सामनेवाले को कोई बात बुरी न लगे. अपनी परेशानी जल्दी शेयर नहीं करती थी, इसलिए मुझे उसकी चिंता रहती थी.

सुखदा ने संपदा से उसकी ससुराल के हाल पूछे, तो वह बताने लगी कि कैसे पिछली बार जब उसकी ननदें आईं, तो सुभद्रा देवी उसे खाने का लंबा-चौड़ा मेनू बताकर अपनी बेटियों के साथ शॉपिंग पर निकल गईं. विजय उसकी तबीयत देखकर कहता ही रह गया कि वह खाना बाहर से ले आएगा, लेकिन सुभद्रा देवी ने उसे बुरी तरह डांटा कि बेकार के नखरे उठाने की ज़रूरत नहीं है. मैं और सुखदा उसकी बात सुनकर दुखी होते रहे और साथ ही उसे समझाते भी रहे. डिनर हो ही चुका था, दोनों बेटियां चली गईं.

एक दिन हमने डिनर शुरू ही किया था कि विजय का फोन आया. संपदा की तबीयत ठीक नहीं है, उसे हॉस्पिटल ले जा रहे हैं. हम तुरंत वहां पहुंचे, संपदा के सास-ससुर भी वहीं थे. मैंने बेचैनी से पूछा, “क्या हुआ? अभी तो काफ़ी टाइम है डिलीवरी में.”

सुभद्रा देवी जैसे भरी बैठी थीं, “होना क्या है. आजकल की लड़कियां हैं ही नाज़ुक, ज़रा-सी गर्मी और ज़रा-सा काम सहन नहीं होता इनसे. हम लोग कितना काम करते थे, न ए.सी. था, न कूलर. इस पीढ़ी में तो जैसे जान ही नहीं है.”

मैंने नवीन का उड़ा हुआ चेहरा देखा, उनकी तो जैसे अपनी बेटियों में जान थी. सुखदा अक्सर कहती थी, कितने मजबूर होते हैं लड़कियों के माता-पिता भी. उनकी बेटी के बारे में ससुरालवाले न जाने क्या-क्या कह जाते हैं और वे पलटकर जवाब भी नहीं दे सकते.

इतने में संपदा की डॉक्टर बाहर आई, विजय से कहने लगी, “हालत देखी है आपने अपनी पत्नी की. इतना ब्लड प्रेशर, उसके खाने-पीने का बहुत ध्यान रखिएगा. अब उसे टोटल बेडरेस्ट की ज़रूरत है. शाम तक आप उसे घर ले जा सकते हैं.” सुभद्रा देवी से रहा नहीं गया, “लो, अब यह नया ड्रामा. एक तो डॉक्टरों ने इन लड़कियों का दिमाग़ ख़राब कर रखा है. बड़ी फीसें दो, लंबी-लंबी बातें सुनो. बस, नए ज़माने के नए-नए रंग.” अपनी मां की बातें सुनकर विजय शर्मिंदा-सा दिखा. मैंने दबी आवाज़ में कहा, “बहनजी, आप आज्ञा दें, तो मैं कुछ दिनों के लिए संपदा को अपने घर ले जाऊं?”

जैसे बिल्ली के भाग से छीका टूटा, फ़ौरन बोलीं, “हां, यह ठीक है. मां के घर जैसा आराम उसे कहां मिलेगा? कुछ ऊंच-नीच हो गई, तो सब कहेंगे, सास ने ध्यान नहीं रखा.”

“लेकिन मां, हम फुलटाइम मेड रख लेंगे, तो संपदा को आराम मिल जाएगा.” विजय ने कहा तो सुभद्रा देवी ने उसे घूरा.

हम संपदा को घर ले आए. मैं व्यस्त हो गई. विजय रोज़ शाम को चक्कर लगा लेता था. कभी-कभी सुभद्रा देवी भी आ जाती थीं. संपदा के चेहरे का पीलापन कुछ कम हो रहा था. अब वह आराम से थी. नवीन के तो जैसे पुराने दिन लौट आए थे. पिता-पुत्री ख़ूब बातें करते.

कठिन से कठिन समय में भी यह ख़ूबी होती है कि वह बीत ही जाता है और संपदा का कठिन समय भी बीत ही गया. आख़िर वह ख़ुशी का दिन आ ही गया, जब संपदा एक प्यारे से बेटे की मां बन गई. सारा परिवार ख़ुशी से खिला जा रहा था. सुभद्रा देवी का मूड भी अच्छा था. बेटे का नाम पार्थ रखा गया.

समय बीतता रहा, स्थितियां बहुत तेज़ी से बदल गई थीं. सुभद्रा देवी अपनी बीमारी के कारण घर के मामलों से दूर-सी हो गई थीं. मैंने कई बार संपदा में आनेवाले परिवर्तनों को नोट किया था. वह अब चुपचाप-सी रहने लगी थी. धीरे-धीरे वह सुभद्रा देवी की बहू बनती जा रही थी.

समय का पंछी अपनी गति से उड़ता जा रहा था. संपदा के सास-ससुर नहीं रहे थे. सुखदा-संपदा के बच्चे बड़े हो गए थे. नवीन रिटायर हो चुके थे. हम दोनों जीवन की सांध्य बेला अपनी बेटियों को फलते-फूलते देखकर संतोष से बिता रहे थे. शौर्य अपनी पत्नी के साथ अमेरिका में था. पार्थ अपनी पत्नी मानसी के साथ संपदा और विजय के साथ रहता था. संपदा कुकिंग में और माहिर हो गई थी. अब तो वह बड़े से बड़े शेफ को मात देती थी. घर में किसी न किसी बहाने पार्टी करती ही रहती थी. हम दोनों को भी आकर ज़बरदस्ती ले जाती थी.

एक दिन संपदा सुबह-सुबह आई, मैंने पूछा, “मानसी कैसी है?”

“अरे मम्मी, क्या हुआ है उसकी तबीयत को? वह तो नॉर्मल है. बस, कुछ लड़कियों की आदत होती है, हर बात को बढ़ा-चढ़ाकर बताने की.” संपदा का स्वर ही नहीं, ढंग भी बदला हुआ था.

“लेकिन संपदा, यह बीमारी तो नहीं है. हर लड़की इन दिनों शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों का सामना करती है. इसलिए पहली बार मां बननेवाली लड़की अक्सर घबरा जाती है. तुम उसका ख़्याल रखा करो.” मैंने उसे समझाया.

यह भी पढ़ेशरीर ही नहीं, मन की सफ़ाई भी ज़रूरी है (Create In Me A Clean Heart)

“मैं क्या ध्यान रखूं, वह है न उसका ध्यान रखनेवाला मुफ़्त का ग़ुलाम पार्थ. आज सुबह मानसी नाश्ते के लिए नहीं उठी, तो मैंने पार्थ से पूछा तो बोला कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है. कमज़ोरी के कारण उठा नहीं जा रहा है. मम्मी, मेरा मूड इतना ख़राब हुआ क्या बताऊं. वह पार्थ को बेवकूफ़ बना सकती है, मुझे नहीं. उसके रोज़-रोज़ के नाटक मैं ख़ूब समझती हूं. आज पूरा दिन लंच और डिनर बनाएगी, तो दिमाग़ ठीक हो जाएगा. इसलिए मैं तो सुबह-सुबह ही यहां आ गई.” ग़ुस्से में तेज़-तेज़ बोलती संपदा मुझे कठोर-सी लगी.

ऐसा होता है न कि अगर किसी ने हमें जीवन में बहुत कष्ट पहुंचाया हो, तो मौक़ा मिलने पर हम भी दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं, जबकि होना तो यह चाहिए कि जिन कष्टों से हम गुज़र चुके हैं, वे दूसरों को न दें. मैं सोचती रही और संपदा उठकर सुखदा को फोन करने लगी. थोड़ी देर में सुखदा आ गई. सुखदा तो अकेली रहती थी. उसे आना अच्छा ही लगा, शाम होते-होते दोनों चली गईं. मैं मन ही मन अपनी बेटी के कठोर होते हृदय पर दुखी होती रही. नवीन सब ठीक हो जाएगा, कहकर मुझे तसल्ली देते रहते. मैं जानती थी कि मन ही मन अपनी बेटी की बदलती सोच पर वे भी दुखी थे. फिर एक दिन संपदा अचानक आई. कहने लगी, “मम्मी, संडे को एक पार्टी रख रही हूं. आप और पापा डिनर वहीं करना, मैं पार्थ को आप दोनों को लेने भेज दूंगी.”

“मगर बेटा, किस ख़ुशी में?” मैंने हैरानी से पूछा.

“बहुत दिन हो गए, सब मिलकर बैठे नहीं, सुखदा और रवि जीजाजी भी आ जाएंगे. विजय के कुछ दोस्त भी होंगे.”

मैंने पूछा,“खाना बाहर से आएगा?”

“बाहर से क्यों? हर चीज़ घर पर बनेगी.”

“लेकिन मानसी की तबीयत कितनी ख़राब चल रही है. तुम कुछ महीनों के लिए ये पार्टियां छोड़ दो तो अच्छा ही होगा. घर पर पार्टी हो, तो काम पर काम निकलता ही रहता है. मानसी का ध्यान रखो, उसे आराम करने दो.” मैंने कहा तो वह कुछ बुरा मान गई. बोली, “आपको उसकी बड़ी चिंता रहती है. मैं भी तो इस हालत में कितना काम करती थी. याद है न आपको और यहां तो खाना मैं ख़ुद ही बना रही हूं. उसे कहां आता है इतना कुछ बनाना.” उसके स्वर में मज़ाक था. मुझे अच्छा नहीं लगा. मैंने चुपचाप उसकी तरफ़ देखा, उस समय वह मेरी बेटी नहीं, बल्कि स़िर्फ सुभद्रा देवी की बहू लग रही थी. बिल्कुल उन्हीं की जैसी, बस अपनी परवाह करनेवाली, अपने लिए सोचनेवाली.

मेरे जीवन में तो सास-बहू के रिश्ते की कटुता कहीं थी ही नहीं. नवीन के माता-पिता जब तक रहे, मैंने हमेशा उन्हें आदर दिया था और बदले में मुझे पुरस्कार के रूप में मिलता रहा उनका ढेर सारा स्नेह और आशीर्वाद.

“अच्छा मम्मी, मैं जा रही हूं. आप दोनों आ जाना.” संपदा ने कहा तो मैंने एकदम एक निर्णय ले लिया. मैंने दृढ़ स्वर में कहा, “रुको बेटा, तुम हमेशा से कहती थी न कि मेरे ऊपर कहानी लिखो मम्मी.”

“हां मम्मी, मगर वह तो बहुत पुरानी बात हो गई.”

“तुम्हारी कहानी मैंने लिखी तो थी, उस कहानी में तो मेरे अनुभवों, स्नेह और आंसुओं का रंग भी शामिल हो गया था, लेकिन मैंने उसका अंत नहीं किया था. कई दिन यही सोचने में बीत गए हैं कि कहानी का अंत कैसे करूं कि यह ख़ूबसूरत भी हो जाए और पूरी भी.” मैं संपदा का हाथ पकड़ककर उसे अपने कमरे में ले गई और अपनी फाइल निकालकर उसे दे दी. लो, इसे पढ़ो और बताओ कि मैं इस कहानी का अंत कैसे करूं.” मैं फाइल उसे देकर कमरे से बाहर आ गई. बहुत देर बाद जब रोई-रोई आंखोंवाली संपदा आकर मुझसे लिपटी, तो मुझे विश्‍वास हो गया कि इस कहानी को एक नया अंत मिल गया है और मानसी संपदा जैसा जीवन बिताकर एक और संपदा नहीं बनेगी, जो सुभद्रा देवी जैसी है. क्योंकि स्त्री हमेशा ही स्त्री की दुश्मन नहीं होती, बल्कि उसकी हमदर्द और दोस्त भी हो सकती है. मैंने भावुक होकर अपनी बेटी को गले से लगा लिया. बहुत दिनों बाद ऐसा लगा, जैसे मेरे सामने सुभद्रा देवी की बहू नहीं, मेरी बेटी है.

     पूनम अहमद

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORiES

Usha Gupta

Share
Published by
Usha Gupta

Recent Posts

बक्षीसाचे ३० लाख रुपये कुठेयेत ? मनीषा राणीने सांगितलं रिॲलिटी शो ‘झलक दिखला जा ११’जिंकल्यानंतरचा खर्च (Manisha Rani Not Received Winning Prize Of Jhalak Dikhhla Jaa 11 )

मनीषा राणीला 'क्वीन ऑफ हार्ट्स' म्हणूनही ओळखले जाते. तिने आपल्या चाहत्यांची मनंही जिंकून घेतली. तिचा…

April 13, 2024

भैरवी (Short Story: Bairavi)

अपर्णा देशपांडेआजही त्याने तबला जमवला. वादी ठोकून घेतल्या. मोबाईलवर गोहरजानची ठुमरी लावली आणि ताल धरला.…

April 13, 2024

 खास मित्राच्या जन्मदिनी अनुपम खैर भावूक, शेअर केल्या सतीश कौशिक यांच्या आठवणी(Anupam kher Wishes late Best Friend Satish Kaushik On His Birth Anniversary)

दिवंगत अभिनेते सतीश कौशिक यांचा आज वाढदिवस आहे. त्याच्या बेस्ट फ्रेंडच्या वाढदिवसानिमित्त अभिनेता अनुपम खेरने…

April 13, 2024

अनुपम खेर को आई दिवंगत सतीश कौशिक की याद, दिल को छू लेने वाला नोट शेयर कर किया दोस्त को बर्थडे विश (Anupam kher Wishes late Friend Satish Kaushik On His Birthday)

आज दिवंगत एक्टर सतीश कौशिक का बर्थडे है. अपने बेस्ट फ्रेंड के बर्थडे के अवसर…

April 13, 2024
© Merisaheli