कहानी- एनसाइक्लोपीडिया (Short Story- Encyclopedia)

लौटने से एक रात पहले, तो उसने इतनी शानदार कॉफी बनाई थी कि पहला घूंट भरते ही मैं बरबस पूछ बैठी थी, “क्या जानदार कॉफी बनाई है? क्या डालते हो तुम इसमें?”
“प्यार!”
मेरे हाथ में कप डगमगाने लगा था. उसने तुरंत बात संभाल ली थी.
“मैं हर काम दिल से करता हूं न इसलिए.”
“और मैं क्या बेमन से करती हूं?” मैं जान-बूझकर तुनक उठी थी.

हम स्टेशन पहुंचे, तो ट्रेन आई ही थी. पापा द्वारा पूर्व में भेजे गए व्यक्ति ने मेरे लिए खिड़की के पासवाली एक सीट रोक ली थी. बमुश्किल 3 घंटे का सफ़र था, पर मुझे पांचवा महीना लग चुका था और पापा कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते थे, इसलिए अच्छी सी सीट रूकवाकर सारा सामान मेरे आसपास ही सीट के नीचे जमवा दिया गया था. मेरे मना करते रहने के बावजूद मम्मी ने ढेर सारे फल, मिठाई, परांठे आदि एक बैग में भर दिए थे. प्लेटफार्म पर पहुंचते ही मुझे एक परिचित चेहरा नज़र आया- वासु का. उसने भी मुझे देख लिया था. उसे ताकते हुए मैं पापा के पीछे-पीछे डिब्बे में चढ़ गई थी. मुझे अच्छी तरह बिठा देने के बाद भी पापा हिदायतें देते रहे.
“मुकुल को समय पर फोन कर देना, ताकि वह सही वक़्त पर लेने पहुंच जाए और तुम कोई सामान मत उठाना.”
“जी पापा! अपना और मम्मी का ध्यान रखिएगा.” तब तक गाड़ी ने सीटी दे दी थी. पापा उतर गए. मैं देर तक उन्हें हाथ हिलाती रही थी. स्टेशन पीछे छूट गया, तो मुझे फिर वासु का ख़्याल आ गया. शायद उसके पापा का तबादला भी यहीं हो गया था. वह घर आया हुआ होगा. यादों का झोंका आया, तो अतीत का एक भूला-बिसरा पन्ना अनायास ही फड़फड़ाने लगा. मैं तब बीए प्रथम वर्ष में थी. पापा एक बड़े ऑफिसर थे. हर दूसरे-तीसरे वर्ष उनका तबादला होता ही रहता था. मामा का तबादला रायगढ़ होने का समाचार आया, तो मेरा मनमयूर नाच उठा, क्योंकि महज़ दो-ढाई घंटे का सफ़र तय करके उनके पास पहुंचा जा सकता था.
मैं मामा की लाड़ली थी. मेरी प्रतिभा से ख़ुश हो उन्होंने मुझे एनसाइक्लोपीडिया नाम दे रखा था. कॉलेज में दीवाली का अवकाश हुआ, तो मैंने मामा के यहां जाने की रट लगा दी. पापा मुझे और छोटे भाई रोहन को वहां छोड़ आए थे. तभी वासु से मुलाक़ात हुई थी. वह मामी की बहन का लड़का था. मामी की बहन ने एक साउथ इंडियन से शादी की थी, पर वासु अपनी मां पर गया था. गोरा, लंबा,आकर्षक… जब वह हंसता था, तो यह आकर्षण और भी बढ़ जाता था. वासु डिप्लोमा इंजीनियरिंग कर रहा था. हम सब बच्चों ने मिलकर उन छुट्टियों में ख़ूब धमाल मचाया था.
ट्रेन धीमी होने लगी, तो पता चला अगला स्टेशन आ गया था. मैं ऐसे ही प्लेटफॉर्म पर नज़रें दौड़ाने लगी, तो मुझे फिर से वासु नज़र आ गया. वह तेजी से मेरे ही डिब्बे की ओर आ रहा था. दोनों हाथों में उसने दो दोने थाम रखे थे. मैं चौंक पड़ी थी. वासु इसी ट्रेन में है! पूरे पांच साल बाद मैं उसे देख रही थी. अनायास ही मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा. यदि वह मेरे पास आया ओैर इंकार की वजह पूछी, तो मैं क्या जवाब दूंगी? दो मिनट पहले उसे देखकर दिल की पतंग उन्मुक्त उड़ान भरने लगी थी, पर अब पतंग की डोर फिर से चरखी में सिमटने लगी थी.
…मामा के यहां से छुट्टियां बिताकर लौटी, तो थोड़े दिनों तक तो मन बहुत व्याकुल रहा था. पर फिर परीक्षाएं समीप देख मैंने ख़ुद को पढ़ाई में झोंक दिया था. हमेशा की तरह सभी पेपर्स बहुत बढ़िया हो गए थे. तभी एक दिन मम्मी ने मेरे सम्मुख एक ख़ुलासा किया था, जो मेरे लिए किसी धमाके से कम नहीं था. उन्होंने बताया कि मामी का फोन आया था कि वासु के घर से मेरे लिए रिश्ता आया है. पर हमने टाल दिया है. इतने बड़े ऑफिसर की इकलौती बेटी की शादी क्या एक डिप्लोमा इंजीनियर से होगी.” मेरी चुप्पी से उनका हौसला बढ़ा था.


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“हम अच्छा, योग्य वर तलाश रहे हैं तुम्हारे लिए.”
इस बात को अभी कुछ ही महीने गुज़रे थे कि एक दिन मम्मी ने फिर मुझे अकेले में पकड़ लिया. इस बार वे काफ़ी ग़ुस्से में थीं.
“भाभी का फिर फोन आया था. लड़का अपग्रेड होकर इंजीनियरिंग में चला गया है. भाभी की बहन का कहना है कि बच्चे एक-दूसरे को पसंद करते हैं… लेकिन पारिवारिक प्रतिष्ठा भी तो कोई चीज़ होती है. एक क्लर्क के बेटे से भला हम अपनी बेटी कैसे ब्याह सकते हैं?”
उनका ग़ुस्से में बड़बड़ाना देर तक जारी रहा. मैं वहां से खिसक ली थी. कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है? कौन सही है, कौन गलत? मैं क्या चाहती हूं? मुझे क्या करना चाहिए? मैं इस बार भी कुछ नहीं बोल पाई थी. पर इस बार दिल वासु के प्रति गहरे अपनत्व और सहानुभूति से भर उठा था और पापा मम्मी के प्रति मन में हल्का-सा आक्रोश उपजा था. आख़िर ये लोग चाहते क्या हैं? और जब सब निर्णय इन्हें अपनी मनमर्ज़ी से ही लेने हैं, मुझे पूछने की ज़रूरत ही नहीं है, तो फिर बताने की भी कहां ज़रूरत है? क्या मैं वासु से प्यार करने लगी हूं? मुझे पापा-मम्मी से विद्रोह करना चाहिए? क्या वाक़ई वह मेरे लिए उपयुक्त वर नहीं है? क्या वह वाक़ई मुझसे इतना प्यार करने लगा हैं कि उसे मुझे खो देने का डर सता रहा है?.. मेरी उदासी और परेशानी छुपी नहीं रह सकी थी. एक दिन मम्मी ने मुझे प्यार से समझाया था. “तुम्हें तो यूनिवर्सिटी टॉप करना है न? तो फिर मन लगाकर पढ़ाई करो. फाइनल ईयर है. तुम उम्र के बहुत नाज़ुक मोड़़ से गुज़र रही हो. इस उम्र में ऐसा भटकाव स्वाभाविक है, पर तुम्हारा काम पढ़ना है. तुम्हारे लिए योग्य वर तलाशना हमारी ज़िम्मेदारी है. क्या तुम्हें हम पर भरोसा नहीं है?’
मैं उनके सीने से लगकर देर तक सिसकती रही थी. फिर मैंने ख़ुद को संभाल लिया था.
“लो, तुम्हारी पसंद के दाल के गरमागरम वड़े.” वासु ने पुकारा, तो मैं अतीत के गलियारे से निकलकर वर्तमान में लौट आई. तेजी से मुझ तक पहुंचने के प्रयास में वह हांफने लगा था. उसके गोरे मुखड़े पर स्वेदबिंदु झिलमिला रहे थे. वह आज भी उतना ही आकर्षक और मासूम लग रहा था, जितना पांच बरस पहले था. लेकिन मैं मुटिया गई थी. प्रसूतावस्था की चुगली करते अपने पेट के उभार को मैंने दुपट्टे से ढांपने का व्यर्थ प्रयास किया. व्यर्थ इसलिए क्योंकि वासु का ध्यान मेरे शरीर की ओर था ही नहीं (शायद कभी भी नहीं था) उसके लिए तो मैं आज भी वही छोटी पहलेवाली बिन्नी ही थी.
“देखो, साथ में खट्टी-तीखी चटनी भी है, तुम्हारी पसंद की.” ऐसा लग रहा था बरसों का अंतराल, बीच का घटनाक्रम उसके लिए कोई मायने ही नहीं रखता था. मैंने तुरंत एक गर्म वड़ा तीखी चटनी में लपेटकर मुंह में टपका लिया था, पर इसके साथ ही तेज खांसी का जो दौर उठा, तो वह क्या आसपास के यात्री भी घबरा गए. वासु ने तुरंत पास से गुज़रते पानीवाले से एक बिसलेरी उठाकर मुझे पकड़ा दी. पानी पीकर मैं कुछ संभली. वह पैसे दे रहा था.
“पानी तो मेरे पास था इधर नीचे बैग में… खैर! मैं अब इतना तीखा, गर्म नहीं खा सकती.” मेरा इशारा अपने उभरे पेट की ओर था.
“ओह, आई एम सॉरी.” वह एकाएक सकुचा गया था.
“कोई बात नहीं. प्लेटफॉर्म पर तुम्हें देखा था. मुझे नहीं पता था तुम इसी ट्रेन में हो… सामान कहां है तुम्हारा?”
“सामान?.. म.. मैं तो डेली अपडाउन करता हूं.” उसका उत्साह बुझ गया था. मुझे एकाएक कुछ ख़्याल आया. मैंने बैग में से परांठे निकाले.
“रवाना होते वक़्त कुछ खाया नहीं गया, तो मम्मी ने दे दिए थे कि ट्रेन में ज़रूर खा लेना.” हम खाने लगे थे. उसे फिर से उत्साहित करने के लिए मैंने उसे याद दिलाया, “याद है मामा का कुक कितने मोटे-मोटे परांठे बनाता था. और मामी के बनाए गोभी, शलगम के खट्टे-मीठे अचार के साथ मैं तो तीन-चार परांठे खा जाती थी.”
“मैं तो और भी ज़्यादा.” वह हॅंस दिया था. उसका हंसता हुआ चेहरा मुझे शुरू से ही बहुत अच्छा लगता था. गाड़ी एक ब्रिज के ऊपर से गुज़रने लगी थी.
“नीचे पानी कितना अच्छा लग रहा हेै न?” उसने कहा.
“हां, पर मुझे तो वह माही डेमवाला पानी देखना अच्छा लगता था. याद है तुम्हें? गए तो थे तुम वहां? फिर लौटकर तुम मुझ पर ग़ुस्सा भी हुए थे.”
“तुमने काम ही ऐसा किया था. तुम्हें गाड़ी से उतरने की क्या ज़रूरत थी? और लोग भी तो उतर सकते थे. उनका भी तो देखा हुआ था.” हम एक बार फिर झगड़ने लगे थे. उस दिन यही सब तो हुआ था. मामा सब बच्चों को माही डेम दिखाने ले जा रहे थे. फटाफट सब गाड़ी में लद गए थे. केवल वासु बाहर रह गया था. मुझसे रहा नहीं गया था. मैं यह कहते हुए उतर पड़ी थी कि मेरा तो देखा हुआ है, ताकि वासु बैठ सके. वासु को बेमन से जाना पड़ा था. मैं घर पर ही रह गई थी. लौटने पर वह मुझ पर काफ़ी चिढ़ा था.
“तुम्हें उतरने की क्या ज़रूरत थी? जाते तो साथ जाते और नहीं तो दोनों ही नहीं जाते.”
“मैं चाहती थी अच्छी जगह है तुम भी देख लो.” मैंने मासूमियत से कहा था.
“तुम्हारे साथ जाता तो अच्छी लगती.” उसका देर तक मुंह फूला रहा था, पर मुझे सुनकर अच्छा लगा था. आज भी वह उस बात को लेकर मुंह न फुला ले, इसलिए मैंने उसका ध्यान ट्रेन में ताश खेलते लोगों की ओर आकर्षित किया.
“कुछ याद आया? आज भी हम पार्टनर बन जाएं न तो इन सबको धूल चटा सकते हैं.”
सुनकर उसके भी चेहरे पर मुस्कान खिल उठी थी.
“तुम्हें क्या लगता है हमारा लक अच्छा था या हम खेलते अच्छा थे?” वासु ने पूछा, तो मैंने सोचते हुए जवाब दिया, “मैं समझती हूं हमारा लक अच्छा था. तभी तो बार-बार हम ही गुलाम-गुलाम पार्टनर बनते थे. बीनू-बबली ने तो बाद में पार्टनर बनाने ही छोड़ दिए थे. कहते थे, “तुम तो एक-दूसरे के परमानेंट पार्टनर हो, क्या फ़ायदा चुनने से?” कहते हुए मैंने अपने ही शब्दों पर गौर किया, तो सकपका गई. यह मैं क्या बोल गई? जिस टॉपिक से बचना चाह रही थी, वही…” पर वासु निर्विकार बना रहा.
पास से एक कॉफी वाला गुज़रा, तो उसने तुरंत उसे रूकवाकर दो कॉफी ले ली. एक मुझे पकड़ाकर दूसरी ख़ुद पीने लगा.
“कैसी है? झरना कॉफी तो नहीं?” उसने चुहल की.
“अच्छी है, पर वैसी नहीं, जैसी तुम बनाते थे.”
उसकी धवल दंतपंक्ति एक बार फिर चमक उठी. मैं उस चमक में खो-सी गई. और फिर से विगत में जा पहुंची. उस दिन हम सभी बैठे थे कि बबली अपनी पुस्तक का एक सवाल लेकर मामा के पास पहुंच गई थी.
“अरे अभी तो हमारे यहां जीता जागता एनसाइक्लोपीडिया आया हुआ है, तो उसका दिमाग़ खाया कर!”
मैं बबली को बताने लगी थी. उस समय तो वासु ध्यान से बस देखता रहा, लेकिन बाद में उसने मुझे पकड़ लिया था.
“सुना है, बहुत तेज दिमाग़ हो. एक काम हमारा भी कर दो. मैं अपने कॉलेज की मैग्ज़ीन का एडीटर हूं. ढेर सारी रचनाएं मेरे पास आई हुई हैं. उनकी ज़रा स्क्रूटिनी करके अरेंज कर दो और हां, एक अच्छा-सा एडिटोरियल भी लिख मारो.”
“बहुत टाइम देना पड़ेगा.” मैंने मुंह बनाया था.
“हां, तो अभी तो पूरा वीक है. हम रोज़ रात को दो-तीन घंटे बैठकर काम निबटा सकते हैं. बदले में तुम भी मुझसे कुछ काम करा सकती हो. वैसे मैं हिन्दी आर्टिकल्स अच्छे लिख लेता हूं.”
“ठीक है, मुझे दो टाॅपिक्स तैयार करने थे. तुम मुझे उन पर लिखकर दे देना.”
मेरे और रोहन के सोने की व्यवस्था बबली के कमरे में और वासु के सोने की व्यवस्था बीनू के कमरे में थी. रात में वे लोग अपने-अपने कमरों में पढ़ते हुए सो जाते थे और हम अपने कंबल और काम का पिटारा लेकर बैठक में जम जाते थे. तब कड़ाके की ठंड थी. रात में काम करते थक गए, तो मुझे कॉफी की तलब सताने लगी थी. वैसे भी कॉफी मेरी कमज़ोरी रही है. वासु घोटकर झागदार कॉफी बनाकर लाया था. मैंने ख़ूब दिल खोलकर तारीफ़ की थी.
“इसलिए कर रही हो न, ताकि रोज़ मैं बनाकर लाऊं? मैं इतना लल्लू नहीं हूं.” उसने मुझे चिढ़ाया.
“जी नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. एक दिन तुम बनाना, एक दिन मैं बनाऊंगी.” कहने को तो मैंने कह दिया था, पर इतनी ठंड में रात में कंबल में से निकलकर रसोई में जाना ही एक भारी काम था. कॉफी घोटने में भी टाइम लगता था. मैं चीटिंग कर जाती थी. बिना घोटे ही ख़ूब ऊपर से झरने की तरह दूध उड़ेलकर झाग बनाकर ले आती थी. इसलिए वासु ने मेरी बनाई कॉफी का नाम झरना कॉफी रख दिया था.
उस दिन शाम से ही पीरियड्स शुरू हो जाने के कारण मेरी तबियत ठीक नहीं थी. वासु को शायद मेरी नासाज़ तबियत का आभास हो गया था. रात को काम करते हुए मैं कॉफी बनाने के लिए उठने लगी, तो उसने मुझे बैठा दिया था.
“पर आज तो मेरी बारी है.” मैंने हल्का-सा प्रतिरोध किया था.
“पता है, पर मुझे झरना कॉफी नहीं पीनी.”
“तो रोज़ ख़ुद ही बना लिया करो न?” मैंने झूठ-मूठ मुंह फुला लिया था.
“बना लूंगा. वैसे भी तीन ही दिन तो बचे हैं.” वह चाहकर भी नहीं मुस्कुरा सका था. विरह की वेदना अनायास ही न केवल उसके, वरन मेरे चेहरे पर भी उभर आई थी. लौटनेवाले दिन की उल्टी गिनती आरंभ हो चुकी थी. हमने समय रहते एक-दूसरे का काम पूरा करके दे दिया था. वादानुसार शेष तीनों दिन कॉफी भी उसी ने बनाई थी. लौटने से एक रात पहले, तो उसने इतनी शानदार कॉफी बनाई थी कि पहला घूंट भरते ही मैं बरबस पूछ बैठी थी, “क्या जानदार कॉफी बनाई है? क्या डालते हो तुम इसमें?”


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“प्यार!”
मेरे हाथ में कप डगमगाने लगा था. उसने तुरंत बात संभाल ली थी.
“मैं हर काम दिल से करता हूं न इसलिए.”
“और मैं क्या बेमन से करती हूं?” मैं जान-बूझकर तुनक उठी थी.
“देखना, यह एडिटोरियल पढ़कर लोग पागल हो जाएंगे.”
“… अरे हां, मैं तो भूल ही गया था, तुम्हारा वह एडिटोरियल सबको बहुत पसंद आया था.” वासु अचानक बोल उठा था.
मेरे हाथ में कॉफी का ग्लास आज फिर डगमगा उठा था. इसका मतलब वासु भी तब से वही सब सोच रहा था, जो मैं सोच रही थी. काश! वासु एक बार कह दे कि वह तो सारी ज़िंदगी मेरे लिए कॉफी बनाने को तैयार था. मैंने इंकार क्यों कर दिया? और मैं उसे समझा सकूं कि पापा-मम्मी के निर्णय के आगे मैं कितनी बेबस थी… बेकसूर थी. पर उसने मुझे ऐसा कोई मौक़ा नहीं दिया. उसका स्टेशन आ गया था. वह हाथ हिलाते उतर गया था. न अतीत से कोई गिला-शिकवा, न मुझसे कोई उपालंभ, न भविष्य में फिर मिलने या बात करने का वादा… मैं तो यह भी नहीं पूछ पाई कि उसने घर बसा लिया या नहीं?
“अरे वासु! तू यहां? तू तो मुझे स्टेशन छोड़ने आया था. तू ट्रेन में कब चढ़ गया?”
“वो… वो कुछ काम याद आ गया था, तो चढ़ गया था.”
प्लेटफॉर्म पर खड़े दोनों दोस्तों का वार्तालाप सुन मैं अवाक रह गई थी. ट्रेन सरकने लगी थी. वासु का हाथ आज फिर तब तक हिलता रहा, जब तक मैं उसकी नज़रों से ओझल नहीं हो गई.
माना बरसों पहले की वे भावनाएं लड़कपन की निशानी थीं. विपरीत लिंग के प्रति परस्पर आकर्षण मात्र था पर आज… आज मैं इन भावनाओं को क्या नाम दूं? लाख खंगालने पर भी अपने एनसाइक्लोपीडिया में मुझे उपयुक्त शब्द नहीं मिल पा रहा था.
हर प्रेम शादी के मुक़ाम पर नहीं पहुंचता, लेकिन अपनी सच्चाई और मासूमियत से वह न केवल अपने प्रेमी, वरन हर किसी के दिल में एक महत्वपूर्ण जगह बना ही लेता है.

संगीता माथुर

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