कहानी- गिन्नी आंटी और मैं (Short Story- Ginni Aunty Aur Main)

मेरी आवाज़ सुन कर डांस कर रही गिन्नी आंटी रूक गईं और मुस्कुराती हुई मुझसे बोलीं, “अरे निकिता बेटा आओ, तुम भी हमें ज्वाइन करो.” गिन्नी आंटी की मुस्कुराहट और बाकी लोगों के चेहरे पर झलकती ख़ुशी देखकर मैं कुछ कह नहीं पाई. मैंने देखा सभी इस पल को खुलकर जी रहे हैं. इसमें केवल बुज़ुर्ग महिला ही नहीं मेरे हमउम्र भी हैं और सभी अपनी परेशानियों को भुलाकर खिलखिला रहे हैं. सभी अपने घरों से कुछ ना कुछ पकवान बना कर लाए हैं और बड़े मजे से मिल-बांट कर खा रहे हैं.

बिलासपुर के साईधाम सोसाइटी में एक-दूसरे के घर आपस में कुछ इस तरह से जुड़े हुए हैं कि यदि किसी एक के घर पर सब्ज़ी की बघार होती है, तो उस घर के अगल-बगल दोनों ही घरों में छन… की आवाज़ सुनाई पड़ती है. किचन में अदरक कूटने पर ऐसा लगता है मानो अपने ही घर के खलबट्टे का इस्तेमाल हो रहा है. ऐसी स्थिति में बगलवाली गिन्नी आंटी रोज़ सुबह छह बजे आकाशवाणी के बिलासपुर केन्द्र 103.2 मेगाहर्ट्ज पर रेडियो में जो क्रार्यक्रम आता है उसे फुल साउंड में चला देती है, जिसमें रोज़ सुबह आराधना की शुरुआत देश वंदना से होते हुए भजन और फिर मानस गान पर आ कर समाप्त होता है.
किन्तु गिन्नी आंटी का रेडियो यहां पर बंद नहीं होता है. उसके बाद रेडियो पर फिल्म संगीत का जो क्रार्यक्रम चलता वह आठ बजे समाप्त होता है. तब कहीं जाकर आंटी का रेडियो बंद होता है और तब तक मेरी नींद पूरी तरह से उड़ चुकी होती है.
इस कॉलोनी में आए हमें एक महीना हो गया है, लेकिन इस एक महीने में मैं एक भी दिन चैन से सुबह देर तक सो नहीं पाई हूं. इस बारे में मैं जब भी अपने पति नाहर से कुछ कहती हूं, तो वह केवल मुस्कुरा देते हैं, पर कहते कुछ नहीं. और जब कभी रविवार या छुट्टी के दिन इस बात पर मैं गिन्नी आंटी का ग़ुस्सा नाहर पर उतारती हूं, तो वह बस इतना ही कहते हैं, “अरे यार निकिता, क्यों इतना ग़ुस्सा करती हो बेचारी आंटी बुज़ुर्ग हैं. बुढापे में ठीक से नींद आती होगी, इसलिए जल्दी उठ जाती हैं. वैसे भी अकेले रहती हैं. उनके पास काम तो कुछ होता नहीं होगा, इसलिए रेडियो सुनती रहती हैं.”
ऐसा कहकर नाहर हमेशा आंटी का ही पक्ष लेते हैं. मुझे तो यही समझ नहीं आता कि मेरे पतिदेव को ये आंटी बुज़ुर्ग कहां से लगती हैं. हां, आंटी ज़रूर हैं, लेकिन इनकी एक भी हरकत बुज़ुर्गोंवाली नहीं है. क्या बुज़ुर्ग ऐसे होते हैं! बुज़ुर्ग तो वो होते हैं, जो सुबह-शाम ईश्वर आराधना करते हैं, माला फेरते हैं, मंदिर जाते हैं, अपने नाती-पोते को पार्क में लेकर जाते हैं और सबसे बड़ी बात अपने बच्चों के साथ एडजस्ट होकर हर परिस्थिति में उनके साथ ही रहते हैं. लेकिन ये गिन्नी आंटी की तो बात ही निराली है.
सुबह आठ बजे रेडियो बंद होने के बाद दस बजे से टीवी शुरू हो जाता है, जो सारा दिन चलता ही रहता है. केवल बीच में तीन बजे से पांच बजे तक ही बंद रहता है, शायद इस वक़्त वो सोती होंगी. गिन्नी आंटी टीवी देखने के साथ ही साथ कॉलोनी में सब्ज़ी बेचनेवाले, फल बेचनेवाले इन सभी से रोज़ कुछ ना कुछ ख़रीदती ही रहती हैं. हर ठेलेवाले से अलग-अलग सब्ज़ियां और फल ख़रीदती हैं.
एक ही व्यक्ति से वह एक ही बार में सारा कुछ नहीं ख़रीदती. उनकी यह हरकत देखकर क‌ई बार तो मुझे लगता है आंटी थोड़ी पागल हैं, लेकिन जब हर शाम सुंदर-सी साड़ी पहनकर, होंठों पर हल्की-सी लिपिस्टिक लगाकर सोसाइटी कंपाउंड के पार्क में आती हैं, तो उनका एक अलग ही व्यक्तित्व नज़र आता है.


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गिन्नी आंटी को इस तरह अकेले और बिंदास रहता देखकर मेरे मन में अक्सर क‌ई सवाल खड़े हो जाते हैं. एक दिन मैंने अपनी कॉलोनी की लोकल न्यूज़ चैनल मिसेज़ वर्मा से पूछ ही लिया, जो मेरे घर पर कॉलोनी के चटपटे ख़बरों का पिटारा ले कर आई थी कि ये गिन्नी आंटी अकेली क्यों रहती हैं. क्या इनके कोई बच्चे नहीं हैं. मेरा इतना पूछना था कि मिसेज़ वर्मा ने गिन्नी आंटी का पूरा बॉयोडाटा ही मेरे सामने रख दिया.
मिसेज़ वर्मा ने मुझे बताया कि आंटी के दो बच्चे हैंं. बेटी रायपुर में ब्याह कर ग‌ई है और बेटा बेंगलुरु में किसी आईटी कंपनी में है. दोनों बच्चों के बच्चे भी हैं. आंटी के पति को गुज़रे काफ़ी वक़्त हो गया है. जब उनके बच्चे छोटे थे, तभी उनके पति एक रोड एक्सिडेंट में चल बसे. आंटी सरकारी नौकरी में थीं. तीन साल पहले ही रिटायर हुई हैं. अपने बेटे-बहू के साथ इसलिए नहीं रहती, क्योंकि उनकी ये आज़ादी छिन जाएगी. इतने सालों से अपने मन मुताबिक जीने की आदत जो पड़ गई है इन्हें और फिर बहू-बेटा के साथ रहेंगी, तो हर रविवार पार्टी कैसे कर पाएंगी.
मिसेज वर्मा की बातें सुनकर ना जाने क्यों गिन्नी आंटी के प्रति मेरे मन का खटास और बढ़ गया. वैसे तो मैं यह जानती थी कि हर रविवार आंटी के यहां पर पार्टी होती है. मिसेज़ वर्मा के जाने के बाद मैं मन ही मन सोचने लगी गिन्नी आंटी कैसी औरत है, जो अपनी ख़ुशी और मौज-मस्ती की ख़ातिर अपने बच्चों से दूर रहती हैं.
मैंने तय कर लिया कि अब मैं आंटी के मनोरंजन के लिए अपना नींद ख़राब नहीं करूंगी और मौक़ा मिलते ही आंटी को उनकी ग़लती का एहसास भी कराऊंगी. मेरे इस सोच के साथ एक सप्ताह बीत गया और रविवार का दिन आ गया.
नाहर को किसी ज़रूरी काम से बाहर जाना पड़ा, सो मैं घर पर अकेली थी. शाम के करीब छह बज रहे थे और अचानक मेरे सिर में तेज दर्द होने लगा. मैं दवाई लेकर सोने का प्रयास कर ही रही थी कि म्यूज़िक और शोर-शराबा के साथ गिन्नी आंटी की पार्टी शुरू हो गई. मैं मौक़े के तलाश में तो थी ही और आज मुझे वो अवसर मिल ही गया. मैंने आव देखा ना ताव सीधे आंटी के घर पहुंच ग‌ई. दरवाज़े के बाहर क‌ई सारे चप्पल रखे थे, जिससे मैंने अंदाज़ा लगाया कि अंदर क़रीब पंद्रह-बीस लोग तो होंगे ही, लेकिन मेरा शिकार तो गिन्नी आंटी थी. मैं सीधे घर के भीतर घुस गई और ज़ोर से चिल्लाती हुई बोली, “गिन्नी आंटी…”
मेरी आवाज़ सुन कर डांस कर रही गिन्नी आंटी रूक गईं और मुस्कुराती हुई मुझसे बोलीं, “अरे निकिता बेटा आओ, तुम भी हमें ज्वाइन करो.” गिन्नी आंटी की मुस्कुराहट और बाकी लोगों के चेहरे पर झलकती ख़ुशी देखकर मैं कुछ कह नहीं पाई. मैंने देखा सभी इस पल को खुलकर जी रहे हैं. इसमें केवल बुज़ुर्ग महिला ही नहीं मेरे हमउम्र भी हैं और सभी अपनी परेशानियों को भुलाकर खिलखिला रहे हैं. सभी अपने घरों से कुछ ना कुछ पकवान बना कर लाए हैं और बड़े मजे से मिल-बांट कर खा रहे हैं.
यहां आकर मैं अपना सिरदर्द ही भूल ग‌ई और किसलिए आई थी यह भी. सभी से मिलकर बहुत अच्छा लग रहा था और मुझे आज पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि मैं गानों की शौकीन हूं और गा भी अच्छा लेती हूं. नाच-गाने, खाने-पीने और हंसी-मज़ाक के बाद पार्टी समाप्त हो गई. सभी ने मिलकर घर को व्यवस्थित किया. नीचे बिछी दरी और कुछ सामान रह गए जिनके लिए गिन्नी आंटी ने कहा, “अरे रहने दो इन्हें मैं समेट लूंगी.”
फिर सब चले गए. मैं रूक गई और उनकी मदद करने लगी. दरी समेटती हुई मैंने आंटी से कहा, “आंटी, मैं आपसे कुछ पूछूं.”
एक पल के लिए आंटी मेरी ओर देखने लगी फिर बोलीं, “हां… हां…पूछो क्या पूछना है.”
मैंने कहा, “आंटी ये रोज़ सुबह छह बजे आप रेडियो क्यों चला देती हैं, वो भी पूरे दो घंटे के लिए और सारा दिन टीवी क्यों चला कर रखती हैं. अलग-अलग सब्ज़ी और फलवालों से सब्ज़ियां और फल क्यों ख़रीदती हैं. एक से ही सारा कुछ क्यों नहीं ख़रीदती और तीन से पांच बजे तक आप क्या करती हैं. इस समय ना तो आपका रेडियो चलता है और ना ही टीवी.” मैंने एक ही बार में आंटी पर सारे प्रश्न दाग दिए.
गिन्नी आंटी कुछ क्षण के लिए शांत हो गईं फिर मुस्कुराती हुई बोलीं, “बेटा, ऐसा है कि सुबह छह से आठ के बीच मैं खाना बनाती हूं, पिछले चालीस साल से मेरा यही रूटीन है. खाना बनाने को मैं एंजॉय करना चाहती हूं और अपना मूड अच्छा रखना चाहती हूं, इसलिए रेडियो सुनती हूं. दस बजे टीवी इसलिए चला देती हूं कि मुझे अकेलापन महसूस ना हो, मुझे घर में लोगों के बोलने की आवाज़ें सुनाई पड़ती रहे. मैं सब्ज़ियां और फल अलग-अलग व्यक्ति से इसलिए ख़रीदती हूं, ताकि मैं इस बहाने उनसे बातें कर सकूं और मेरा ये लंबा वक़्त थोड़ा कट जाए और उन्हें भी चार पैसे का मुनाफ़ा हो जाए. रही बात तीन से पांच बजे की तो उस वक़्त मैं पत्रिकाएं पढ़ती हूं, ताकि मैं ख़ुद को अपडेट रख सकूं और आज के न‌ए ज़माने के संग कदम से कदम मिलाकर चल सकूं.”


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आंटी का जवाब सुनकर मुझे इस बात एहसास हुआ कि आंटी ने अपने अकेलेपन को दूर करने का, ख़ुद को व्यस्त रखने का कितना आसान और जीवंत रास्ता ढूंढ़ निकाला है. मैं कुछ देर के लिए चुप हो गई फिर बोली, “आंटी, यदि अकेलापन आपको इतना खलता है, तो आप अपने बेटे-बहू के पास क्यों नहीं चली जातीं.”
मेरे इस सवाल पर आंटी दोबारा मुस्कुराईं फिर बोलीं, “बेटा, मैं अपने बच्चों के लिए बोझ या उनकी ज़िम्मेदारी बन कर नहीं जीना चाहती. ऑफिस से रिटायर हो जाने या बुढ़ापा आ जाने का मतलब ये नहीं होता कि ज़िंदगी रूक गई है और हमें अपने बच्चों के सहारे ही जीवन बिताना होगा. जब तक हाथ-पैर चल रहे हैं, तब तक अपने हिसाब से जीएंगे उसके बाद देखेंगे.”
आंटी की ज़िंदादिली और बातें सुनकर मेरे मन में जो उनके लिए कड़वाहट थी अब वह साफ़ हो गई और उनसे बातें करते हुए काफ़ी देर हो चुकी थी, सो मैं घर आ गई. सुबह छह बजे गिन्नी आंटी के रेडियो पर बज रहे गाने के मधुर धुन से मेरी नींद खुली और मैं भी गुनगुनाती हुई अपने लिए चाय बनाने लगी.

प्रेमलता यदु

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Photo Courtesy: Freepik

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