नीले लिफ़ाफ़े पर लिखावट जानी-पहचानी तो थी, पर तुरंत ही पकड़ में न आई. “किसकी चिट्ठी है? देखूं तो जरा.” उत्सुकता के साथ बिमला ने झट से पत्र खोला और पढ़ने लगी.
“अरे, ये तो बिट्टी की है. अपनी बिट्टो की…” हर्षित-विस्मित भावों से वह जल्दी-जल्दी शब्दों से गुज़रने लगी, आरंभिक शिष्टाचार के बाद बिट्टी के आने का समाचार था.
“जिज्जी, मेरी टीचर्स ट्रेनिंग है. वहां १५-२० दिन तुम्हारे साथ ही रहूंगी. तुम स्टेशन आने का कष्ट न करना, मैं स्वयं ही पहुंच जाऊंगी…”
“कष्ट? कष्ट कैसा री?” बरसों बाद बिटिया सी बहन आ रही थी. आनंद अतिरेक से बिमला पगला सी गई, लगा जैसे युगों बाद मिलना होगा बिट्टी से.
बिट्टी ब्याह कर गई, तो मन हुलसता था उससे मिलने को, पर पिता की हठधर्मी के आगे उसकी एक न चली, बिट्टी से संबंध जोड़कर पूरे परिवार से संबंध तोड़ने का साहस बिमला में न था. सो दिल की बात दिल ही में ही रह गई.
चार भाई-बहनों में बिमला बड़ी और बिट्टी सबसे छोटी थी. यूं तो वो घर भर की दुलारी थी, पर मनमर्ज़ी का ब्याह करते ही वो सबसे दूर हो गई,
अपनों से अलग कितनी अकेली पड़ गई होगी उनकी बिट्टो. फिर बिरादरी से बाहर ब्याह निभाना कोई हंसी-खेल ती था नहीं. मायके का साथ और धन-सामर्थ्य भी बहुत मायने रखता है वैवाहिक संबंधों में.
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“मिला ही क्या होगा उस मास्टर से उसे? बरस बीत गए, कोई संतान भी नहीं हुई. तिस पर अब यह टीचरी की तैयारी,”
पर बरस भर पहले मौसी को मिली थी उनके दूर की रिश्तेदारी के किसी ब्याह में, वही बता गई थीं बिमला को, “न ढंग की साड़ी, न मन के गहने… क्या से क्या हो गई हमारी बच्ची.”
बेचारी बिट्टी! बिमला का मन कसैला हो आया.
पिता की मानती तो आज राजरानी होती. ऊंचा घराना, राजसी ऐश्वर्य सभी पर लात मारकर भाग खड़ी हुई अभागी.
ब्याह के मामले में बेटियों की इच्छा-अनिच्छा का मान रखना तो पिता ने कभी जाना ही न था. फिर शायद उन्हें बिट्टी और मास्टर के संबंधों की भनक भी पड़ गई थी. बिट्टी भी कम सयानी न थी. बात समझते ही
उसने अपने संबंधों की स्थिति स्पष्ट कर दी. पिता को मनाया, मान से मनुहार से, पर जब उन्होंने एक न सुनी, तो बिट्टी ने भी मन की करने की ठान ही ली.
घर में ब्याह की तैयारियां चलती रहीं और उसने कोर्ट-कचहरी में विवाह कर लिया. बात सुनते ही हड़कंप मच गया.
“लड़की की हिम्मत तो देखो..!”
“और पढ़ाओ लड़कियों को…”
” पढ़ाई के बहाने बस यही नैन-मटक्का चलता है आजकल…”
“कुलच्छिनी भागी भी तो अपने ही मास्टर के साथ…”
पर बिट्टी भागी ही कहां थी. बालिग और शिक्षित होने के साथ-साथ वह साहसी और आत्मविश्वासी भी तो थी.
विधिवत विवाह कर दुर्वासा से क्रोधी पिता से आशीर्वाद लेने वह पति सहित पीहर भी जा पहुंची थी, पर उसे तो देहरी भी न लांघने दिया गया, द्वार से ही वापस विदा कर दिया गया.
अवज्ञा को पिता ने अपना अपमान माना और अपनी लड़की के दुस्साहस को उन्होंने जीवनपर्यंत माफ़ न किया. मां बिट्टी से मिलने के लिए छटपटाती, तो वे उस पर भी बरस पड़ते, “मेरे जीते जी ये असंभव है बिमला की मां, मेरे मरने पर चाही तो बुला लेना…”
फिर हुआ भी वही. पिता की मृत्यु पर मां को सांत्वना देने ही बिट्टी ने मायके की देहरी लांधी.
पर तब अस्वस्थता के कारण बिमला असमर्थ थी. वह तो पिता की तेरहवीं में भी न पहुंच पाई. बिट्टी से तो वह अब मिलेगी. युगों से बीते बरसों के बिछोह के बाद.
रूखे बाल, सूखा चेहरा, सलवटें पड़ी हुई साधारण सूत की साड़ी. पता नहीं, सफ़र की थकान थी या फिर जीवन का अभाव पहली ही दृष्टि में बिट्टी, बिमला को निर्बल-निरीह सी दिखी. द्रवित हृदय से बिमला ने बहन को बांहों में बांधा तो शब्द बेमानी बन गए. वाणी व्यर्थ हो गई. पर भावनाओं में बहता मन था कि कितना कुछ कहता-सुनता रहा.
सयत्न सहज हो दोनों ने ही चुपके से आंखें पोंछ लीं. बहन को सामान्य करने के;लिए वार्तालाप का सूत्र बिट्टी ने ही टटोला.
“देख रही हूं बड़े ठाठ है मेरी जिज्जी के. ये शानदार कोठी, ये ख़ूबसूरत बगीचा और इतने प्यारे-प्यारे ढेर सारे फूल. वह मासूमियत से मुस्कुराई.
“तू तो इससे कहीं अधिक सुख -सौभाग्य की स्वामिनी थी पगली…” बिमला क सोच अनकही गया.
आते ही क्या अंगारों को कुरेदना?
“चल पहले नहा-धो ले. फिर बैठकर बातें करते हैं.” उसने बिट्टी को पुचकारा.
गीले बालों के नीचे तौलिया डालें बिट्टी बिल्कुल बच्ची सी दिख रही थी, नन्हीं निर्मल सी. बीते बरस उसे जैसे अनछुआ ही छोड़ गए थे. बिमला अपलक निर्निमेष उसे निहारती ही रह गई.
फल, मेवे, मिठाइयां व नमकीन सब लाकर रख दिया बिट्टी के सामने. बिमला बरसों की साध जैसे पहले दिन ही पूरी कर देना चाहती थी.
“और सुना, कैसे हैं तेरे मास्टर जी?”
“हाय जिज्जी! तुम अभी भी उन्हें मास्टर ही समझती हो क्या? वे तो अब प्रोफेसर हो गए हैं, विश्व विद्यालय में वनस्पति विज्ञान पढ़ाते हैं.”
“चलो उन्होंने तो तरक़्क़ी कर ली, पर तू क्यों वहीं की वहीं है. मेरा मतलब है कोई बाल गोपाल… प्रेम-वेम तो करते हैं न तुझसे…” बिमला से तो जैसे पूछे बिन रहा ही न गया.
“तुम भी जिज्जी, कहां की कहां जोड़ देती हो…” बिट्टी के कपाल रक्तिम हो उठे.
“देख तो रही हो देश की आबादी…”
“हां हां, क्यों नहीं! जनसख्या कम रखने का ठेका तो तुम्ही दोनों ने ले लिया है शायद… अरे तू कुछ खा क्यों नहीं रही..? सुंदर ओ सुंदर… चाय और दे जा. ये कुछ ठंडी लग रही है…” मान-मनुहारों के बीच बतकही भी चलती रही.
“जीजू कब तक लौटेंगे जिज्जी?”
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“उनकी भली पूछी. अभी कल ही ती निकले हैं अपने बिज़नेस ट्रिप पर. एक पैर वॉशिंगटन में होगा, तो दूसरा शिकागो में. वापसी में फ्रेंकफर्ट भी जाना है. एकाध दिन मुंबई भी रुकना पड़े शायद. अब गए हैं, तो पंद्रह-बीस दिन की छुट्टी ही समझ.”
“जिज्जी, जीजूक की इतनी लंबी-लंबी यात्राएं. बच्चे होस्टल में… इतना बड़ा घर. अकेले अकेले तुम बोर नहीं होती क्या?”
“होती थी… ख़ूब होती थी. बच्चों ने घर छोड़ा, तो पगला सी गई थी. पर भर को बिमला जैसे कहीं और पहुंच गई, पर फिर तुरंत ही संभलकर सप्रयास सुरवात मुस्कान भी ओढ़ ली. “अब तो अकेलेपन की आदत सी हो गई है. यूं समझ, सच से समझौता कर ऐश कर रही हूं.”
“हां, हां. क्यों नहीं? वो तो दिख ही रहा है. ख़ुशियों में खासी गोल-मटोल हो गई हो.” बिट्टी के छेड़ने पर दोनों बहनें एक साथ खिलखिला उठी.
चाय-नाश्ता चल ही रहा था कि नीलेश का फोन भी आ गया. पति से बतियाती बिट्टी किसी नवोढ़ा सी लजा-सकुचा रही थी. बिमला ने कनखियों में निहारा.
“कैसा प्रेमालाप चल रहा है?” सहसा ही अंतस में उठी ईर्ष्या की एक हिलोर स्वयं बिमला को हतप्रभ कर गई. मैं तो बस… तुरंत ही उसने अपने आपको धिक्कारा-लताड़ा.
अगने दिन से ही बिट्टी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई. स्कूल आना-जाना, पाठ्यक्रम तैयार करना, कॉपियां जांचना.
शाम को चाय के प्याले के साथ बाहर बगीचे में जा बैठती, तो बस उठने का नाम ही न लेती,
बिमला घूमने चलने को कहती, शॉपिंग को उकसाती, तो वह बात बनाने लग जाती, “हाय जिज्जी, ये सुंदर सा बगीचा… ये सोंधी-सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू, ये प्यारे-प्यारे पुष्प. इन्हें छोड़कर घूमने को जाएं… वो भी हाट-बाज़ार करने, नहीं नहीं जिज्जी, ऐसी बेरहम तो न बनो.”
पर एक दिन बिमला ने उसकी एक न सुनी. घेर-घारकर उसे बाज़ार ले ही गई. दीदी द्वारा ज़बर्दस्ती साड़ी दिलवाने पर सिल्क की उस साड़ी के दाम सुनते ही बिट्टी सकते में आ गई, “बाप रे बाप इतनी महंगी साड़ी? और फिर डाईक्लीन करवाने का झंझट अलग… ना बाबा ना. फिर मैं पहनूंगी भी कहां? अपने को तो बस कलफ लगी सूती साड़ी ही जमती है.” फिर बिमला का मन रखने के लिए उसने जल्दी-जल्दी कोटा की दो सूती साडियां छांट लीं, मानो कोई बहुत बड़ा काम निबटाया हो.
“जिज्जी, मेरी अच्छी जिज्जी, प्लीज़! यही दिलवा दो ना.”
“अजब-अनोखी है लड़की. मैं खरीदवा रही हूं, फिर भी नहीं. सिल्क की तरफ़ निहारना भी नहीं…”
बिमला का बड़ा मन था बिट्टी को किटी पार्टी में ले जाने का. अपनी सखियों-सहेलियों से मिलवाने का, पर… पर… अनिता-प्रसंग याद आते ही वो सहमकर अपनी सोच स्थगित कर देती.
बात भले ही सारा शहर जानता हो, पर बहन के सामने भेव खुला, तो कैसी भद्द होगी. इस विचार से ही बिमला व्यथित हो जाती.
“नहीं-नहीं बिट्टी को किसी से भी मिलवाना ठीक न होगा…” बिमला अभी ऊहापोह से उबरी ही थी कि बिट्टी के लिए किसी पार्टी का आमंत्रण आन पहुंचा. स्वयं वंदना और शीला चलकर आई थीं निमंत्रण देने. वे क्यों न आतीं। बिट्टी आख़िर बड़े साहब की साली थी और चापलूसी करना किटी-कल्चर जो ठहरा. निमंत्रण इतना मान-मनुहार भरा था कि बिट्टी भी समय निकालने का आश्वासन दे बैठी. फिर बिमला किस मुंह से इंकार करती.
धड़कते दिल से डरते-डरते ही पहुंची थी बिमला उस पार्टी में.
आरंभिक ‘हाय-हेलो’ के बाद बातों का बाज़ार गरम हो गया, गहनों कपड़ों पर टिप्पणियां हुई, नए फैशन की चर्चाएं चली. ठहाके-कहकहे होने लगे.
कुछ चुटकियां, कुछ कटाक्ष, कुछ भूमिकाएं, कुछ बेबाकी और शाम आते-न-आते जिस बात को सारा शहर जानता था, उसे बिट्टी भी जान गई.
पहले तो सन्न-स्तब्ध, सकपकायी सिहरती बिमला बिट्टी से नज़रें चुराती रही, फिर कटुता और विद्रूप से मन-ही-मन मुस्कुराते सहज निस्पृह भी बन गई.
जो सच है, जिसे दुनिया जानती है. उसे बिट्टी भी जान गई, तो क्या बुरा हुआ?
अब बिट्टी को चैन कहां? घर पहुंचकर हिचकते-झिझकते उसने इस विषय में पूछा तो बिमला उदास सी हो गई.
“बिना आग के धुआं उठता है क्या?”
“पर… ये सब आप सहती कैसे हैं? आख़िर क्यों?” बिमला की उदासीनता ही बिट्टी को उत्तेजित कर गई.
“और उपाय ही क्या है? किसी के प्रति उनकी आसक्ति को लेकर बखेड़ा खड़ा करू, ऐसा मुझमें है ही क्या? कहां कार्तिकेय से सजीले तेरे जीजा और कहा मैं? तिस पर वे उच्च शिक्षित, मैं अल्प-शिक्षिता. उनके व्यक्तित्व के आगे में कहां कहीं ठहरती हूं.” “पर जिज्जी, उन्होंने आपके साथ विवाह किया है. अपनी मनमर्ज़ी से…”
“यही तो मुश्किल है बिट्टी, मर्ज़ी तो हम दोनों की ही नहीं जानी गई. अभिभावकों ने आपस में मिलकर ही सब कुछ तय कर लिया. फिर पिताजी ने कन्या के साथ-साथ इतना सारा धन-द्रव्य भी दान किया कि सभी की आंखें चुंधिया गई. उसी चौंध के उतरने पर ही तो पता चला कि कैसा बेमेल विवाह था हमारा.” बिमला ने एक ठंडी सांस भरी.
“अब यदि क्लेश कटुता करूं, तो दूरियां और बढ़ेंगी… फिर अब तो अनिता का ट्रांसफर भी हो चुका है और विवाह भी. तेरे जीजू किससे-कितना मिलते हैं, मैं नहीं जानती… मैं नहीं पूछती. अब तो बीती को भूलने में ही भलाई है बिट्टी.” बिमला ने साड़ी के घेर से आंखें पोंछी.
“फिर जिज्जी, आप ऐसी जगह क्यों जाती हैं, जहां जान-बूझकर लोग दिल दुखाने वाली अंट-संट अनर्गल बातें करते हैं?”
“अब बिट्टी, यदि पार्टी और क्लब भी न जाऊं, तो दिनभर करूं क्या?”
“करने को तो कितने ही काम है जिज्जी…”
“हां, हां… कर ले ठिठोली… तेरे जैसी पढ़ी-लिखी भी नहीं, जो कहीं दफ़्तर जाना ही शुरू कर दूं.”
“हाय जिज्जी, मैं क्या इतनी बुरी हूं कि आपके साथ यूं हंसी-ठठ्ठा करूंगी? सच जिज्जी! दफ़्तर जाना ही सब कुछ थोड़े ही होता है. घर बैठे-बैठे ही मन को रमाने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है.”
“रहने दे बिट्टी, रहने दे. जो तन लागे सो ही जाने.” बिमला रुआंसी हो गई.
“मैं समझती हूं जिज्जी.” बिट्टी ने पीछे से आकर बहन को कोमलता से बांहों में घेर लिया.
“तभी तो कहती हूं, ऐसी जगह जाने से क्या लाभ जहां दर्द बंटता नहीं, बल्कि बढ़ता हो. आप अपनी दिनचर्या बदलकर तो देखिए, सुबह-सवेरे लंबी सैर पर निकल जाएं, जीजू को साथ चलने के लिए उकसाइए. बागवानी करिए. पेड़-पौधों को दिन-दिन बढ़ते देखने का आनंद भी अनोखा होता है. निठल्ले नौकरों को निकालकर चाय-नाश्ता ख़ुद बनाइए. कभी महाराज को एक तरफ़ करके जीजू के लिए ख़ुद पकाइए… चार अनपढ़ों को इकट्ठा कर अक्षर ज्ञान दीजिए. आपके अपने नौकरों के ही कितने बच्चे स्कूल नहीं जाते उनके लिए…”
“रहने दें. ये सब तो कहने की बातें हैं.”
“सिर्फ़ कहने की नहीं, सब करने की भी बातें है जिज्जी. इसका चस्का न लग जाए तो कहिएगा. किटी-फिटी सब भूल जाएंगी.”
कहां तो बिमला ने सोचा था बेचारी बिट्टी की सहायता करूंगी, उसका सहारा बनूंगी, कहां स्वयं बेचारी बन संवेदना और सहानुभूति की पात्र बन बैठी थी. जब-तब बिट्टी उसे कुछ न कुछ सिखाती-समझाती रहती.
“क्यों… क्यों नहीं! उम्र का पढ़ाई-लिखाई से क्या लेना-देना? वैसे भी ऐसी कौन सी उम्र हो गई है आपकी? चालीस से कुछ कम की ही होंगी, आत्मविश्वासी बनिए, आत्मविश्वासी ! आजकल आत्मविश्वास ही असली सौंदर्य है, नया- पुराना भूलकर जीजू नए सिरे से लट्टू न हो जाएं, तो शर्त रही.”
१५-२० दिनों की अवधि में ही मास्टरजी के तीन गुलाबी लिफ़ाफ़े आ चुके थे. जिन्हें खोलने की उत्सुकता में ही बिट्टी लाल अबीर हो जाती. पढ़ते-पढ़ते अपने आप में खो जाती. फिर सामने बड़ी बहन की उपस्थिति का भान होते ही सकपकाकर सफ़ाई सी देती, “वो… वो क्या है… फोन नहीं है न उधर हमारे घर…”
बिमला को बिट्टी के शब्दों में सहानुभूति की गंध आती. हो भी क्यों ना? पत्र, वो भी प्रेम पत्र! शब्दों-अक्षरों से रचा रोमानी तिलस्मा! विवाहिता होते हुए भी यह सुख उसके लिए वर्जित क्यों था?
आख़िर बिट्टी के जाने का दिन भी आ पहुंचा, पर महेश वापस घर न पहुंचा. स्वदेश पहुंचकर भी मुंबई में अटका पड़ा था. माना काम ज़रूरी थे, पर कोशिश करता तो क्या बिट्टी से न मिल लेता. कितना मान होता बिट्टी के सामने, पर नहीं.
लाचारी और अपमान से बिमला का अंतर द्रवित हो उठा. हर ओर बस धूल के बवंडर धुएं के गुबार… इस अंतर्मुखी आक्रोश से बिमला का दम घुटकर रह जाता. यदि बिमला इसे बाहर खदेड़ने का उपाय न अपनाती. उपाय भी उसका जांचा-परखा और आत्म-अन्वेषित!
बिट्टी को खींच-खांच कर वह मगनलाल जौहरी के शोरूम पर ले आई.
“चल, अब पसंद कर भी और करवा भी.” उसने बिट्टी को आदेश दिया.
बिट्टी भी बहन का मन रखने के लिए यूं ही देख रही थी, बेमन से, पर बिमला ! वो तो इन गहने को निहारने-परखने में मज़े से घंटों निकाल सकती थी. जौहरी भी पुरानी पहचान का था, खोल खोलकर उसने लाल-मखमली डिब्बों के ढेर लगा दिए.
“अब बोल कौन सा लेगी.”
बिट्टी ने बेजारी सा मुंह बनाया तो बिमला चकराई.
“क… कोई पसंद नहीं.”
“नहीं… नहीं… जिज्जी सब अच्छे हैं, सब… पर… पर मैंने बताया था न, मैं ये सब पहनती ही नहीं. फिर इन सबको संभालने के लिए मेरे पास न तिजोरी है, न लॉकर…”
“तू भी बस एक ही नमूना है.” झुंझलाती बिमला ने दबे शब्दों में दांत पीसे. तभी एक नए खुले डिब्बे ने बिमला को बांध लिया.
“बिट्टी… बिट्टी… ये देख…” उसने बहन को पुचकारा.
“आप देखो जिज्जी, मैं बस अभी आई दो मिनट में.” कहते-कहते वह सड़क पार कर सामने वाले पुस्तक भंडार में घुस गई. दुकानदार ग्राहक का आकर्षण भांप चुका था. वही डिब्बा खोलकर उसने बिमला के सामने सजा दिया.
“शुद्ध हीरे हैं. बारीक काम, डिजाइनर सेट, एक ही पीस.” एक बार तो बिमला उठी भी, पर हीरों की चुंबकीय शक्ति उसे खींच रही थी.
ले लूं क्या? ले ही लूं क्या? सुंदर तो हैं, पर महंगे भी कम नहीं.
एकदम ही वह कुछ निश्चय न कर पाई.
पर दुकानदार ने तुरंत ही अपना निर्णय सुना दिया.
“घर की बात है, ले जाइए, पैसे आते रहेंगे, ओम भैया, जरा ये पैक करवा दीजिए.” हीरों की चौंध ने आक्रोश के उफान को हर लिया. बिमला शांत चित्त घर लौटी.
फल, मेवे, मिठाई, नमकीन और रास्ते का खाना-पीना, बिट्टी ना-ना करती रही, पर बिमला ने सब-कुछ बंधवा दिया.
“तुम भी जिज्जी, बस बाकायदा बिदा कर रही हो.”
“देख बिट्टी, अभी तक तो तू अपनी करती आई है. आज ज़रा मुझे भी मन की कर लेने दे.” कहते हुए बिमला ने रुपयों से भरा एक भारी लिफ़ाफ़ा ज़बरदस्ती बिट्टी को थमा दिया.
“ये क्या जिज्जी…” बिट्टी रुआंसी हो गई. “इसकी क्या ज़रूरत थी.”
“ज़रूरत से थोड़े ही दे रही हूं पगली. तुझे कमी ही क्या है? तेरा सुख-सौभाग्य बना रहे. ये तो शगुन है बिटिया, अपने प्रोफेसर साहब को उनका मनपसंद उपहार दिलवा देना. और हां, अबकी बार उनके साथ ही आना.”
“चलो, तुमने उन्हें प्रोफेसर तो माना.” छलकती आंखों से बिट्टी खिलखिला उठी. लिफ़ाफ़ा रखने के लिए उसने पर्स खोला, तो बिमला को गुलाबी लिफ़ाफ़ों की झलक लगी.
कैसे हीरे-मोती से सहेजे-संभाले हैं पिया के प्रेम-पत्र… उसका अंतस भीग गया.
बिट्टी के जाते ही सूना घर सांय-सांय करने लगा. बिमला एकाकी तो कब की थी, पर आज लगा जैसे बिट्टी सदा से उसके साथ रहती आई थी और आज अचानक ही उसे अकेला छोड़कर चल पड़ी थी.
उदासी से उबरने के लिए, मन को बहलाने के लिए बिमला ने हीरों का नया सेट निकाल लिया. तभी खिड़की की राह चलकर आई माटी की सोंधी गंध ने उसे छुआ…
माली क्यारियां सींच रहा है शायद… बिट्टी होती तो भागकर बाहर जा बैठती. मखमली डिब्बा हाथ में लिए-लिए बिमला खिड़की पर जा खड़ी हुई.
सूरज अस्ताचल पर था. शाम होनेवाली थी. बाग में बसंत बिखरा पड़ा था. बयार बहार से भरी थी. ये गंध, ये सुगंध. अनुपम, नूतन-निर्मल, बगीचा तो वहीं था. बस, बिमला की नज़र नई थी. तभी तो वह मुग्ध बनी ठगी ही रह गई. बिट्टी भी तो इस बेला बाहर ही बैठती थी. अंदर आती तो शिकायत करती, “जिज्जी, ये सांझ इतनी जल्दी क्यों ढल जाती है?”
यादों में अटकते-भटकते अचानक ही उसे हाथ में पकड़े मखमली डिब्बे का ध्यान आया. डिब्बा खोलते ही उसे अचरज सा हुआ. हीरे बड़े ही धूमिल-धुंधले दिख रहे थे. बिल्कुल बेजान जैसे जड़ पत्थर.
कल तक तो कैसे चमक रहे थे! पर… पर… मैं इनका करूंगी भी क्या? कितने तो भरे पड़े हैं. बेकार ही उठा लाई. कल ही वापस लौटा दूंगी. हां, यही ठीक रहेगा. हीरे तो नकली न थे, नज़रें भी वही थीं, पर शायद नज़रिया बदल रहा था.
दिन और रात संधि-स्थल पर आ लगे. सांझ बड़ी सलोनी थी. अब आहिस्ता-आहिस्ता अंधेरा उतरने लगा. पर कालिमा सब कुछ अपने में लील लेती, इससे पहले ही बिमला भागकर बाहर बगीचे में निकल आई.
– वीना टहिल्यानी
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