श्रावण माह का वह पहला सोमवार था. सुबह स्नान करके सभी शिव मंदिर की ओर जा रहे थे. भगवान शिव पर सब की गहरी आस्था थी. हर-हर भोले, ओम नमः शिवाय की सुंदर ध्वनियों से वातावरण अलौकिक हो रहा था.
हमारे घर के पास का यह शिव मंदिर काफ़ी प्राचीन था, इसीलिए यहां अच्छी-ख़ासी भीड़ होती थी. बालकनी पर खड़ा मैं वह भक्तिमय माहौल देख ही रहा था कि मां बोलीं, ”आशु, बेटा जाओ मंदिर जाकर शिव जी का आशीष ले आओ. तुझे अच्छा लगेगा. माना कि तुम आजकल के बच्चों को पूजा-पाठ में कोई ख़ासी रुचि नहीं, पर यह सच है बेटा. शिव की शरण में जाकर सबके मन को असीम शांति मिलती है.”
मां की कही बातें मेरे गले नहीं उतरीं, पर घर बैठे भी कहां मेरा मन लग रहा था. पढ़ाई से ऊब सी हो रही थी, इसलिए नहा-धोकर मैं मंदिर की तरफ़ चल दिया.
कुछ ही देर में हैरान-परेशान सा मैं शिव मंदिर की भीड़ का हिस्सा था. मन में बहुत सारी दुविधाएं चल रही थीं. मैं अब तक दी हुई तीन परीक्षाओं में असफल हो चुका था और बाकी की परीक्षाएं होने से पहले ही रद्द कर दी गई थीं. मेरा मन इतना विचलित था कि मैं चाहता था कि मैं मंदिर में नहीं, बल्कि किसी ऊंचे पहाड़ पर जाकर वहां से कूदकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लूं, पर मेरी मां ने मन को शांत करने के लिए मुझे शिव मंदिर जाने की सलाह दी थी.
“आशु बेटा, शिव-शंभु ही तुझे राह दिखाएंगें. उनके पास जा तेरी सारी दुविधाओं का सामाधान वे ही देंगें.”
कुछ ही समय बाद मैं ख़ुद से यह कहते हुए मंदिर से वापस घर लौटने लगा कि कहां मिला कोई समाधान मुझे. मां तो बस यूं ही कुछ भी कहती रहती है.
तभी रास्ते में एक संत जी ने मेरे माथे पर अपनी चार उंगलियों से चंदन का टीका लगते हुए कहा, ”जहां शिव हैं, वहां शक्ति है. जहां शक्ति है, वहां शिव… तेरे भीतर ही हैं दोनों, तू ख़ुद से क्यों अनभिज्ञ?”
संत यह कहते हुए मंदिर की ओर चले गए और मैं घर आ गया. घर आया तो मां पूजा घर के पास बैठीं, नमामी शमीशान निर्वाण रूपं… का जाप क़रती हुई रुद्रकाष्टम करने में मग्न थीं.
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मैं चुपचाप सोफे पर बैठकर उस संत की कही हुई बात को सोचने लगा. अगले ही रविवार को मेरा बैंक का एग्जाम था. संत जी की कही बात मुझे बड़ी प्रभावी लगी. मैंने तुरंत उस बात को लिखकर अपने स्टडी रूम में लगा लिया.
उस एक हफ़्ते मैंने अपने भीतर के शिव और शक्ति को तलाशने की कोशिश की. मैं पढ़ाई में रत रहा. हालांकि मेरी पढ़ाई पहले से अच्छी थी, बस कमी थी तो भीतर के आत्मविश्वास की.
देखते-देखते रविवार आ गया. मैंने अपनी पूरी ऊर्जा से परीक्षा दी. परीक्षा उम्मीद से भी अच्छी रही. ऐसा लगा जैसे परीक्षा हॉल में मेरे भीतर मैं न था, बल्कि कोई अन्य ही था. मैं बड़े उत्साह के साथ घर आया, तो मैंने मां को इस पूरे हफ़्ते का घटनाक्रम सुनाया. उस संत की कही बात भी बताई.
तभी मां जो शिव की अनन्य भक्त थीं, बोलीं, ”बेटा! जहां ईश्वर हों, वहां आस्था भी हो यह ज़रूरी नहीं. लेकिन जहां आस्था होगी, वहां ईश्वर ज़रूर होगा. शिव पर आस्था रखना ख़ुद पर आस्था रखने जैसा है. तुम सब कर सकते हो यदि अपने अंदर के शिव और शक्ति को पहचान लो.”
मैं शांत बैठा मां की बात सुन रहा था और मां आगे कह रही थीं, ”हम सब में शिव और शक्ति हैं, जिसने उसे पहचान लिया, वह जीवन में कभी कर्महीन नहीं होगा और जो कर्महीन नहीं होगा ईश्वर उसका साथ कभी नहीं छोड़ेंगे.”
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उस दिन से मैं स्वयं के कर्म को लेकर हमेशा ख़ुश रहने लगा. मैंने मेहनत में कोई कमी नहीं छोड़ी और निराशा को कभी ख़ुद पर हावी नहीं होने दिया, क्योंकि मेरे भीतर का शिवतत्व अब जाग चुका था.
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