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कहानी- सावन, सावन सा… (Short Story- Sawan, Sawan Sa…)

“पहली बार सावन, सावन सा लगा मम्मीजी, वरना अभी तक तो सावन की थीम पार्टी अरेंज करके उसमें ही बहल जाते थे.” सुगंधा ने चलते समय भावुक होकर नयन से कहा. काकी तो सुगंधा से लिपटकर यूं रो दीं मानो बिटिया को विदा कर रही हों.
“रोती क्यों है, फिर आएंगे ये लोग. क्यों विहान आएगा न सुगंधा बिटिया को लेकर?”


“पतोहू आई तो देखो हमारी काकी कैसे बिस्तर से खड़ी हो गईं.” पड़ोस की मालती भाभी ने स्नेह भरा उलाहना 80 साल की किसन्ना काकी को दिया, तो वह सुगंधा की बलैयां लेते हुए बोलीं, “अरे पतोहू तो बेटी सी ही लागे है. अब बताओ, बेटी आए, तो क्या मां बिस्तर पर पड़ी रहे.”
काकी सास की बातें सुनकर वहीं खड़ी नयन अपनी बहू सुगंधा को देखकर मुस्कुरा दी.
आज एक घंटे पहले तक दिल धड़क रहा था. काकी सास की तबियत ख़राब है, कितनी ख़राब है... इस  संशय को  लेकर वह सब अलवर  से चले थे, पर ’बहुरिया आई है...’ की सुगबुगाहट के बीच बिस्तर पर पड़ी काकी सास ने जो आंखें खोलीं, तो मानो संजीवनी पा गईं. 
गांव से अड़ोस-पड़ोस के लोग भी नयन और उसकी नई नवेली बहू सुगंधा को देखने अपने-अपने घर से निकल आए. सब आश्‍चर्य में  पड़ गए, जब पिछले चार दिन से खटिया पकड़े किसन्ना काकी सुगंधा को देख कांखती-खांसती उठ बैठीं और बिस्तर पर बैठे-बैठे ही नई बहू के घर आने पर निभाए जाने वाले लोकाचार संबंधित निर्देश कमज़ोर आवाज़ में देने लगीं.
काकी सास को चैतन्य देखकर काका ससुर भी नववधू के कदम शुभ मानते हुए फूले नहीं समाए. कह रहे थे, “वाह तुम लोग थोड़ा पहले आ जाते, तो इनकी सेवा न करनी पड़ती.”
नयन, काका के स्वर से छलकी पड़ रही ख़ुशी का मिलान उस रुआंसे स्वर से करने लगी जिसे पिछले हफ़्ते फोन पर सुना था.
“तुम्हारी काकी पिछले एक हफ़्ते से बिस्तर से नहीं उठी. बुखार टूट ही नहीं रहा है. घबराहट होती है जाने क्या होगा आगे. एक बार सपरिवार तुम लोग आकर मिल जाते, तो विहान की बहू को देखने की उनकी  साध पूरी हो जाती.”


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काका की दबी-दबी सी मिन्नत पर वह धर्मसंकट में पड़ गई थी. बहू को लेकर जल्दी ही गांव  आएगी यह करार तो हुआ था काका-काकी के साथ.
इकलौते बेटे विहान की शादी में काकी की वृद्धावस्था और अस्वस्थता के चलते शादी में शामिल न हो पाने का मलाल काका-काकी के साथ उसे भी रहा था, सो फोन पर ही काका-काकी को तसल्ली देते हुए वायदा कर बैठी कि वह बहू को गांव की डयोढ़ी पुजवाने जल्दी ही लेकर आएगी, पर छह महीने हो गए गांव जाना हो ही न पाया.
गांव वाले इस पैतृक घर में जहां अब केवल काका-काकी रहते हैं, वहां कभी पूरा कुनबा रहा करता था. वह ख़ुद भी बहू बनकर घर के संयुक्त परिवार का हिस्सा बनी थी, पर समय के साथ संयुक्त परिवार सिकुड़ते हुए महज़ काका-काकी तक सिमट गए.


सभी ने शहरों का रुख कर लिया. परिवर्तन के दौर में गांव के घर में शहरों वाली ज़रूरी  सुविधाएं जुटाने के बावजूद गांव किसी को जाने से रोक नहीं पाया.
गांव से नाता बस नवविवाहिता बहू या बच्चों के जन्म पर डयोढ़ी पर पांव फिराने तक ही रहा.
बस काका-काकी से ही गांव नहीं छोड़ा गया. बेटे साथ ले जाने की ज़िद करते, तो वह कहते, “जब हम दोनों में से कोई एक रह जाएगा तो आकर ले जाना.”
इधर नयन ने जब भी काकी सास का हालचाल लेने के लिए फोन किया, उनका उलाहना सुनने को मिला, “लगता है विहान की बहुरिया देखे बगैर बुलावा आ जाएगा.”
कहीं सच में किसन्ना काकी चली गईं, तो अफ़सोस रह जाएगा, यह सोचकर उसने बीते कल ही हिम्मत करके पति और बेटे के सामने बात छेड़ी, “सुनो, सुगंधा गांव नहीं जा पाई, तुम लोग कहो तो सुबह गांव...”
बात पूरी होने से पहले ही पति और बेटे ने खारिज़ कर दी.
“कैसी बात करती हो, कल सुगंधा की मायके जाने की तैयारी है और तुम गांव जाने को बोल रही हो.”
“हां मम्मी, गांव फिर कभी...”
विहान ने भी अपने पापा की हां में हां मिलाने में देरी नहीं की, तो वह दबी जुबान में बोली, “जिस तरह से काकी आजकल आए दिन बीमार रहती हैं डर ही लगता है...” क्षणांश मौन के बाद वह विहान के पापा से बोली, “मैं तो कहती हूं, विहान और सुगंधा दिल्ली जा ही रहे हैं, इन्हीं के साथ गांव तक हम भी चल पड़ते हैं. दो-चार घंटा रुककर विहान-सुगंधा दिल्ली निकल जाएंगे, हम रुक जाएंगे. मैं काकी के साथ तीज मनाकर दो-एक दिन में तुम्हारे साथ लौट आऊंगी. एक पंथ दो काज हो जाएगा.”
उसकी बात पर सब विचार में पड़ गए. मुख्य अड़चन तो सुगंधा के मायके जाने वाले कार्यक्रम में फेरबदल को लेकर आनी थी, पर वो कार्यक्रम तो जस का तस था. फिर इस तरह से सुगंधा को गांव में एक-दो दिन रुक जाने की बाध्यता भी नहीं रहेगी. पांव फिराने की औपचारिकता के लिए इससे अच्छा मौक़ा मिलना मुश्किल था. 


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सोच-विचार के बाद  इस  कार्यक्रम पर मुहर लग ही गई. कार से जाना है और अलवर से दिल्ली के रास्ते ही तो गांव आता है, इसलिए न कहने का कोई बड़ा कारण था भी नहीं. बस फिर क्या था, अगले दिन ही सुबह तड़के सब निकल पड़े. रास्ते भर मन बेचैन रहा. सबके मन में उहापोह थी कि जाने काकी किस हालत में होंगी.
सालों बाद सावन में घर पर रौनक़ आई है. महाराजिन की तेज़ आवाज़ पर नयन सोच-विचार के घेरे से बाहर आई. चहल-पहल के बीच काकी ने महाराजिन को त्योहार में बनने वाले पकवानों की सूची सुना दी.
नयन नोटिस कर रही थी कि काकी सुगंधा को ऐसे घेरे बैठी थीं मानो वह कोई गुड़िया हो और वह किसी भी हालत में उसे छोड़ना न चाहती हों.  कभी वह उसकी नरम-नरम उंगलियां सहलातीं, तो कभी मुस्कुराती नज़रें उसके चेहरे पर टिका देतीं. गोया कि वह किसी भी क़ीमत पर उसे आंखों से ओझल न होने देना चाहती थीं.
नई बहू के आने की ख़बर सुनकर आस-पड़ोस को इकट्ठा होते देख नयन को ‘इन्हें दिल्ली  जाना है’ की भूमिका बांधने का विचार आया ही था कि तभी  काकी बोल पडीं, “ज़माने बाद तीज में रौनक़ छाएगी. बड़ा भला किया नयन तूने जो अपनी बहू को शुभ अवसर पर ले आई.”
सुगंधा की आंखों में असमंजस देख नयन काकी का हाथ पकड़कर बोली, “काकी,  मैं और  विहान के पापा तो दो-चार दिन रुकेंगे, पर सुगंधा और विहान तो दिल्ली के लिए निकलेंगे. दरअसल, आज इसको मायके जाना था, पर आपको देखने की लालसा में हमारे साथ चली आई.”
“अरे!..” काकी का खिला चेहरा बुझता देख काका झट से बोले, “देख-सुन लिया ये क्या कम तसल्ली की बात है. ठीक भी है, बहू की पहली तीज तो मायके में ही होती है.”
सुगंधा और विहान कुछ देर में चले जाएंगे, यह सुनकर काकी कुछ हड़बड़ाती हुई तकिए के नीचे से चाभी निकालते हुए नयन  से बोलीं, “ज़रा मेरी आलमारी तो खोल.”
नयन ने आलमारी खोली, तो काकी धीरे से उठी  देर तक आलमारी में समान उलट-पुलट कर   एक डिबिया और पैकेट निकालकर लाईं.
“ये पायल है तेरी मुंह दिखाई. राम किशोर सुनार  के पास से लाई थी.” पायल हिलाती वह बोल रही थीं.
“इसके घुंघरू ख़ूब बजते हैं. ज़रा इसे पहनकर  पायल की रुनझुन सुना दे. लगे कि घर में लक्ष्मी आई है. बुढ़िया का मन तृप्त हो जाएगा.”
काकी अपनी भावुकता और छलकने को आतुर आंसू छिपाते हुए बोलीं, “ये साड़ी भी है तेरे लिए.  पिछले साल यहां साड़ी वाला आया था. गोटा पत्ती की रंग-बिरंगी लहरिया पर नज़र अटक गई थी. तब सोचा भी नहीं था कि तेरे लिए ख़रीद रही हूं. हरी लहरिया ख़ूब फबेगी तुझ पर... तीज में पहनना, खोल के देख तो पसंद आई?” काकी ने चाव से साड़ी का पैकेट पकड़ाते हुए कहा, तो सुगंधा ने झट से पैकेट खोल दिया. प्रशंसा भरी नज़र डालकर वह बोली, “बहुत प्यारी है.”
“और पायल?”
“बहुत सुंदर है.”
“पहन तो ज़रा.”
“जी.” कहकर सुगंधा  ने काकी की दी हुई पायल पहन ली और पैर हिलाकर घुंघरू छनकाई, तो नयन समेत सब मुस्कुरा पड़े.
“कित्ती दूर है मायका?” काकी ने नयन की तरफ़ देखा, तो वह झट से बोली, “दो घंटे तो लगेंगे ही. अभी निकल जाएं, तो शाम तक पहुंच जाएंगे.”
“अरे, कौन निकल रहा है और कहां?” घर के भीतर आती पड़ोस की कुसुम भाभी ने पूछा, तो  नयन की जगह मालती भाभी ने जवाब दिया, “काकी, पतोहू जा रही है मायके.”
“अरे, हम तो ताज़ी-ताज़ी मेहंदी पीस लाए हैं. मेहंदी नहीं लगवाएगा क्या?” कुसुम भाभी के साथ आई उनकी बेटी मंजू बोली.


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मेहंदी का अप्रत्याशित कार्यक्रम देख नयन चौंकी, पर सुगंधा बड़े कौतूहल से महकती-महकती मेहंदी की कटोरी देख बोली, “ये पत्ती वाली मेहंदी है क्या?”
“और क्या, इसे लगाइए, महीना भर रंग न जाएगा.” मंजू की बात सुनकर सुगंधा की आंखों में मेहंदी लगवाने का लोभ दिखा. दरअसल, मेहंदी लगवाने के लिए उसने पार्लर में अपॉइन्मेंट लिया था, पर गांव आने के तुरत-फुरत बने प्रोग्राम से कुछ ऐसी हड़बड़ी मची कि मेहंदी लगवा नहीं पाई.
“थोड़ी देर रुक जाती, तो मेहंदी का शगुन हो जाता. हमारी मंजू सी मेहंदी आसपास के चार गांव में कोई नहीं लगा पाता है.” 
मालती के कहने पर मंजू बोली, “थोड़ी देर क्यों, हम तो कहते है रुकिए यहां. कल सिंजारा में हम सब तैयार होएंगी. हरियाली तीज में यहां ख़ूब रौनक़ होती है. आपको गांव दिखा लाएंगे. गांव देखा है आपने?”
सुगंधा ने न में सिर हिलाया, तो मंजू बोली, “फिर तो ज़रूर देखिए. झूला डला है, ख़ूब पेंगे लगाएंगे.”
सुगंधा को कोई प्रतिकार न करते देख नयन ने इशारे से सुगंधा को बुलाकर धीरे से कहा, “बेल बनवा लेना जल्दी हो जाएगा.”
“पर मम्मी, मैं तो हाथ भरकर लगवाना चाहती हूं.”
“तो बैठी रहना शाम तक. अरे देर नहीं हो जाएगी तुम्हें? और कहीं यहीं अटक गई तो...”
“तो क्या मैं तो सोच रही थी कि रुक ही जाऊं.  सब तीज की कितनी बातें कर रहे हैं. यहां की ट्रेडिशनल तीज देखने को मिल जाएगी.”
“और तुम्हारी मम्मी...?”
“उनके साथ दो दिन बाद स्टील के झूले पर बैठकर घेवर खाकर सावन मना लूंगी.”
“अरे! पर वो इंतज़ार...”
“मम्मी को मैं फोन करके बता दूंगी. आप पापा और विहान को बता दीजिए.”
सुगंधा की बात सुनकर नयन ने हंसकर अपने माथे पर हाथ लगाया. फिर उत्साहित हो काकी सास के पास आई, तो काकी उसे देखते ही चिंता से बोलीं, “सुगंधा कहां चली गई. बुलाओ उसे, जल्दी से मेहंदी लगवा ले, जाना भी तो है.”
“कोई जल्दी नहीं है. आराम से लगवाए अब वो मेहंदी. तीज की रौनक़ देखकर जाएगी आपकी पतोहू.” नयन हंसकर बोली, तो काकी का चेहरा खिल गया और वह मंजू से बोलीं, “इसके हाथों में बढ़िया वाला झूला और बन्ना-बन्नी बनाना. अरे, मनिहारिन को बुलवा दो कोई, तीज की चूड़ियां तो दे जाए और हां, महाराजिन को कह दो, जरा घेवर-मिठाई बना ले. क्या मायके खाली हाथ जाएगी यह.”
काकी ने एक साथ इतने आदेश दे दिए थे कि देर रात तक फुर्सत पाना मुश्किल था.


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दूसरे दिन सुगंधा को सजा-धजा देख काकी उसे देर तक अपलक यूं निहारती रहीं मानो अतीत को तलाश रही हों.
जहां-जहां वह जाती, काकी की नज़रें उसी ओर घूमतीं. लहरिया साड़ी और पायल की रुनझुन में काकी ने घर भर की बेटियों, बहुओं को याद किया. किस दुकान से कौन सी चूड़ियां, पायल या साड़ी वाले से कब किसके लिए, किस मौ़के पर ख़रीदी हुई सब के सब याद कर करके साझा किए जाने लगे.
काका भी त्योहारी गर्माहट पाकर पुलक से उठे और यह कहकर चुटकी लेने से नहीं चूके कि सुगंधा बिटिया के आते ही तुम्हारी काकी की याददाश्त की लौ अचानक बढ़ गई.
तीज की धूम में दम मारने की ़फुर्सत न मिली.  रह-रहकर पंचायत जमती, तो दुनिया जहान के क़िस्से निकलते.
दो दिन कहां निकले, किसी को पता ही नहीं चला. “पहली बार सावन, सावन सा लगा मम्मीजी, वरना अभी तक तो सावन की थीम पार्टी अरेंज करके उसमें ही बहल जाते थे.” सुगंधा ने चलते समय भावुक होकर नयन से कहा.
काकी तो सुगंधा से लिपटकर यूं रो दीं, मानो बिटिया को विदा कर रही हों.


“रोती क्यों है, फिर आएंगे ये लोग. क्यों विहान आएगा न सुगंधा बिटिया को लेकर?”
विहान कुछ कहता उससे पहले सुगंधा बोल पड़ी, “हां काका सा, हम लोग जल्दी आएंगे.”
“तुझे अच्छा तो लगा न?” काकी सास ने पूछा  तो सुगंधा, “हां काकी सा बहुत.” कहकर वह भी भावुक हो उनके गले लग गई.
“अब हर साल तीज यहीं मनाना... इस साल तो कुछ कर ही न पाई. अगली तीज में देखना क्या धूम होती है.”
सुगंधा की कभी पीठ, तो कभी बाजू को कमज़ोर हाथों से सहलाती काकी का उत्साह देख नयन हैरानी से उन्हें देखती रह गई.
“अब देखो कितने दिन चल पाती हूं...” कहने वाली काकी के चेहरे पर अगले साल की तीज का उछाह बरस रहा था.
जिस सुगंधा को ‘बस दो-तीन घंटे की बात है...  फिर दिल्ली के लिए निकल जाना है...’ कहकर तसल्ली सी दी जा रही थी, वह तो बड़े मज़े से दो-तीन दिन रुक गई.
विहान और उसके पापा जो गांव आने के नाम से बिदक रहे थे, चिंता-फ़िक्र से दूर उन्हें यहां आना मेडीटेशन कैंप में आने सा लगा. अलवर में तो रोजी-रोटी कमाने की आपाधापी ही रहती है.
सब सुगंधा के यहां रुक जाने के निर्णय का आभार व्यक्त कर रहे थे और सुगंधा तीज के मौ़के पर यहां आने के तुरत-फुरत बने कार्यक्रम को लेकर नयन को ‘थैंक्यू मम्मीजी’ कहते नहीं थक रही थी. नयन को सुगंधा का उत्साह और ख़ुशी कहीं से भी बनावटी नहीं लगी थी.
दिल्ली जाते समय रास्ते भर सुगंधा इन दिनों गांव में खिंचवाई फोटो को खंगाल-खंगालकर देखती रही.
घेवर, श्रृंगार, मेहंदी, पूजा और पटरे वाला मोटी रस्सियों का डला झूला सारी यादें मोबाइल पर कैद थीं.
अचानक एक तस्वीर पर उसकी नज़र अटकी. उस तस्वीर में वह खो सी गई. तीज के दिन झूला झूलते समय अचानक पानी बरस गया था, तो गांव की किसी सखी ने उसे मोमजामा ओढ़ा दिया. मोमजामा ओढ़े ख़ुद को देख उसे हंसी आई, फिर उसने आंखें मूंद लीं.
ओढ़े हुए मोमजामे में बारिश की बूंदों की तड़तड़ाहट उसे अभी भी महसूस हो रही थी. घेवर की महक और सजी-संवरी महिलाओं का हुजूम और प्रकृति का हरियाला रूप उसके अंतस में समाता जा रहा था.
इस बार सावन का सोंधापन मन में भीतर तक उतर गया. यूं कहें इस बार सावन, सावन सा लगा... जिस सावन को क़रीब से, बहुत क़रीब से महसूस किया है, जिसकी खुमारी लंबे समय तक उस पर छाई रहेगी... उस सावनी अनुभूति के लिए मन बारंबार गांव की ड्योढ़ी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर रहा था.

मीनू त्रिपाठी

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