लघुकथा- इंकलाब (Short Story- Inklab)

आप हर वक़्त मुझे मेरे फर्ज़ और कर्तव्य की याद दिलाते रहे, लेकिन कभी यह जानने की ज़रूरत नहीं समझी कि मुझे क्या चाहिए, किस बात से मुझे ख़ुशी मिलती है. छोटी-छोटी ग़लतियों पर “दिमाग़ तो है नहीं,” “कुछ करने का ढंग नहीं है,”… जैसे ताने सुनकर मेरा भी दिल तार-तार हो जाता है. क्या कभी आपने महसूस किया?

कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था. विश्वनाथजी को यक़ीन नहीं हो रहा था कि जिस गुड़िया जैसी बेटी को उन्होंने नाजों से पाला, आज वही उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ अंर्तजातीय विवाह करने की बात कह रही है. वह अपने प्यार-दुलार, पालन-पोषण, संस्कार, उसके फज़ूल के नखरे उठाने की दुहाई देते रहे, लेकिन नेहा का साफ़-साफ़ कहना था, “इसलिए तो पापा, मैं उसी लड़के से शादी करना चाहती हूं, जो मुझे जानता है. आपकी तरह प्यार करता है. मेरे नखरे उठाता है. पापा प्लीज़…”
विश्वनाथजी को अपने सीधे-सादे, आज्ञाकारी बेटे पर पूरा विश्वास था. नेहा तो बचपन से ही ज़िदी थी. वह किसी की न तो सुनती थी, न समझती थी. विश्वनाथजी आशाभरी नज़रों से बेटे की तरफ़ देखे, शायद उनका बुद्धिमान और आज्ञाकारी बेटा नेहा को समाज की ऊंच-नीच समझा सके. लेकिन बेटे ने जब मुंह खोला, तो विश्वनाथजी सकते में आ गए. बेटे का कहना था, “नेहा ठीक ही तो कह रही है पापा. नेहा और अमर एक-दूसरे को प्यार करते हैं. वे दोनों एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हैं. एक-दूसरे के लिए मान-सम्मान की भावना है तथा दोनों एक-दूसरे के लिए महत्वपूर्ण हैं. सबसे बड़ी बात दोनों एक-दूसरे की अच्छाइयों के साथ-साथ बुराइयों को भी स्वीकार करते हुए साथ रहने का फ़ैसला ले रहे है. और यही उनके ख़ुशहाल जीवन की मज़बूत नींव का आधार है. दो अजनबी जब विवाह बंधन में बंधते हैं, तो उनकी आधी ज़िंदगी एक-दूसरे को समझने में ही लग जाती है. अगर विचार न मिले, तो पूरी ज़िंदगी समझौता करते ही बीतती है. और अगर धैर्य का अभाव हो, फिर तो ज़िंदगी लड़ते-झगड़ते, एक-दूसरे को इग्नोर करते और अपमानित करते ही बीतती है और इस तरह वे ख़ुश नहीं रह पाते.”
विश्वनाथजी का सिर घूमने लगा. वह अपनी पत्नी की तरफ़ मुखातिब होकर बोले, “देख रही हो अपनी औलादों को. हमने इनकी परवरिश में क्या कमी रखी, जो आज ये ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं. हमारी भी तो अरेंज मैरेज हुई है. क्या मैंने तुम्हें और तुम्हारी भावनाओँ को नहीं समझा? तुम्हें इज्ज़त व मान-सम्मान नहीं दिया?क्या तुम मेरे साथ ख़ुश नही हो?”


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सरोजिनी ने बहुत उदास व भेदपूर्ण नज़रों से विश्वनाथजी की तरफ़ देखा और कंपकंपाते लबों से हिम्मत जुटाकर बोली, “ख़ुश… ख़ुश तो मैं हूं, लेकिन आपकी ख़ुशी के साथ, आपने जो चाहा उसमें मैं साथ दी, तब तो ख़ुशियां हैं, लेकिन मैं कभी किसी बात का विरोध की, तो न तो आप कभी मेरी बात सुने, न माने और न कभी महत्व दिया. आप हर वक़्त मुझे मेरे फर्ज़ और कर्तव्य की याद दिलाते रहे, लेकिन कभी यह जानने की ज़रूरत नहीं समझी कि मुझे क्या चाहिए, किस बात से मुझे ख़ुशी मिलती है. छोटी-छोटी ग़लतियों पर “दिमाग़ तो है नहीं,” “कुछ करने का ढंग नहीं है,”… जैसे ताने सुनकर मेरा भी दिल तार-तार हो जाता है. क्या कभी आपने महसूस किया? कभी आपको यह लगा कि मेरे पास भी एक दिल है, जिसे बुरा लगता है और जो नि:स्वार्थ प्यार ढूंढ़ता है, जो मेरी अच्छाइयों के साथ-साथ मेरी बुराइयों को भी हंसते-हंसते स्वीकार करे.
कम-से-कम नेहा के साथ तो ऐसा नहीं होगा. ज़िंदगी उसके लिए सिकुड़ी, सिमटी, सहमी-सहमी सी नहीं, बल्कि खुले आसमान की तरह होगी. ज़िंदगी उसके लिए ज़िंदगी होगी…
प्यार, अपनापन, मान-सम्मान और ज़िंदादिली से भरी हुई ज़िंदगी… उसको समझनेवाला, उसकी कदर करनेवाला उसका हमसफ़र उसका पति होगा.”
सरोजिनी की सांसें फूलने लगी. गला रूंध गया. रूंधे गले से वे बोलीं, “मैं नेहा के साथ हूं…” कहते-कहते वह फफक पड़ीं.
विश्वनाथजी आसमान से गिरे, तो खजूर पर भी नहीं अटके सीधे धरा पर धराशायी हो गए. उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि सीधी-सादी दिखनेवाली पत्नी के अंदर इतना व्यथित हृदय और इतना आक्रोश उनके प्रति होगा. उन्हें महसूस हुआ कि जैसा वो सोचते हैं, वही सही नहीं है. कहीं-न-कहीं कुछ ग़लत है, तभी तो इतना बड़ा इंकलाब उनके घर आया है.
विश्वनाथजी की दूरदर्शिता ने उन्हें यह सोचने पर मजबूर किया कि इस इंकलाब (परिवर्तन) की आंधी के सामने अगर वह तनकर खड़े होते हैं, तो सब कुछ बिखर जाएगा. हवा के रूख के साथ चलने से ही ज़िंदगी आगे बढ़ सकती है.
उन्होंने पत्नी को प्यार से अपने पास बिठाते हुए बोला, “अब तक तुम मेरे लिए गए फ़ैसलों को सिर झुकाकर मानती आई हो, आज मैं तुम्हारे फ़ैसले के आगे नत-मस्तक हूं.”
“पापा, आप कितने अच्छे हैं.” कहते हुए दोनों बच्चे अपने पापा से लिपट गए.

रत्ना श्रीवास्तव


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Photo Courtesy: Freepik

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