मेरा पारा आज सातवें आसमान पर था. मैंने तय कर लिया था कि अगर आज पूजा मेरी दवाइयां लाना भूली, तो उसे अच्छी खरी-खोटी सुनाऊंगी. बोल दूंगी कि तुम्हारे पास समय नहीं है, तो मेरे बेटे कुंतल से कह दो, मगर नहीं सारी ज़िम्मेदारियां तो तुम्हें अपने कंधे पर रख कर घुमाने की आदत है. बड़ी आदर्श बहू बनी फिरती हो हम्म… आने दो आज अच्छे से उसकी ख़बर लूंगी…
मैं मन ही मन उसे कोसे जा रही थी. मेरे अंदर का लावा बाहर आने को बेताब था. मुझे यकीन था कि पिछले तीन दिनों की तरह वह आज भी मेरी दवाइयां लाना भूल जाएगी. मैं अपने ग़ुस्से की आग को तेज़ कर ही रही थी कि डोर बेल बजा. मैंने दरवाज़ा खोला, तो दुप्पटे से माथा पोंछती हुई पूजा अंदर आई. आते ही उसने अपना बैग टेबल पर रखा और सीधे जग से पानी पीते हुए दुप्पटे से अपना मुंह साफ़ करती अपने स्कूल के काग़ज़ों को चेक करने लगी.
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यह देखकर मेरा गुस्सा और भी बढ़ गया एक तो मेरी दवा नहीं लाई, ऊपर से कोई अफ़सोस भी नही जता रही. कुछ पूछने पर तीन दिनों से रोज़ बस यही कह देती है, “मांजी सॉरी, आपकी दवा लाना भूल गई.”
मैं अपने मुंह से उसके लिए बड़े -बड़े ताने रूपी वाक्य निकालने ही वाली थी कि पूजा का फोन बज उठा. पूजा ने स्कूल के काग़ज़ चेक करते हुए फोन को लाउडस्पीकर पर लिया.
“हेलो पूजा, यह सब क्या है? अभी मेरे पास तुम्हारी क्लास के एक बच्चे के पैरेंट्स बैठे हैं. उनका कहना है कि उनका बच्चा अपना लंच कभी पूरा नहीं खाता, और दो अन्य बच्चों की भी शिकायतें हैं कि उनकी नोटबुक अच्छे से चैक नहीं होतीं. आगे से तुम इन सारी बातों का अच्छे से ध्यान रखना, ऐसा आगे नहीं होना चाहिए.”
पूजा ने बड़ी विनम्रता से अपनी प्रिंसिपल की बात सुनी और अपनी ग़लती स्वीकार कर ली.
मेरी बहू को कोई इस तरह डांटे यह मुझे बर्दाश्त न था. मैं भले आसमान सिर पर उठाकर घूमू, पर कोई और उसे फटकारे यह मुझे नहीं पसंद था.
“अरे, ऐसे भी कोई बोलता है. टीचर हो तुम कोई कामवाली बाई नहीं. बड़ी आई डांटने वाली, ज़रा मुझ से तो बात कराती अपनी प्रिंसिपल की. मैं अच्छे से ख़बर लेती उसकी.” मैंने पूरे रौब से पूजा से यह बात कही.
पूजा मेरी बात पर हंस पड़ी. उसने टेबल पर बिखरे काग़ज़ों को समेटा और स्कूटी की चाबी लेकर मेरे नाती राहुल को स्कूल से लाने को निकलने लगी, तभी दो मिनट को वह पीछे मुड़ी और बोली, “मांजी, आपकी दवाइयां बैग की आगे वाली जेब में हैं निकाल लीजिएगा. मैं अभी राहुल को लेकर आई.”
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मैं उसकी भागमभाग वाली ज़िंदगी को रोज़ देखती थी. फिर भी उसे समझ नहीं पाई! कितनी ग़लत थी मैं! घर से बाहर जाती कामकाजी महिलाएं अपने पल्लू से रोज़ घर की सौ चिंताओं को बांधकर निकलती हैं. काम से आते वक़्त भी बाहर के कई काम उनके दिमाग़ में होते हैं.
पूजा के बैग की आगे वाली जेब से दवाइयां बाहर झांक रही थीं और मैं अपने भीतर के गुस्से को डांट रही थी.
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