“ये क्या कर रही है?”
“देखा नहीं मेडम, दोनों पैकेट मिला रही है.”
“मतलब..!”
“मतलब क्या? दोनों मिलाकर खाने से स्वाद आता है.”
“दांत देख अपने! सारे सड़ा रखे हैं. टूट गए तो..?”
“एक दिन तो सबके टूटने हैं. आपके क्या बच जाएंगे? नहीं ना… टूट जाएंगे.. चिंता मत करो बचपन से ऐसे ही हैं…” कह ही…ही… दांत फाड़ कर हंसने लगी. हंसती केवल मुंह से नहीं थी. दुबली-पतली काया जब ज़ोर से हंसती तो पूरा शरीर हिला डालती.
“अपना शरीर भी देख! कैसा बना रखा है? जैसे हाड़-मांस का पिंजरा? लगती ही नहीं छह बच्चों की मां है.”
“पतला है. अब आप लोगों की तरह आराम कहां! ये काया ही तो है जिसकी वजह से इतने काम फुर्ती से कर लेती हूं. आप भी तो एक दिन अपनी सासू मां से कह रही थीं, “कामवाली ऐसी ही होनी चाहिए. फुर्तीली बहुत है.”
और फिर ताली बजाकर वही अट्टाहास… उसका रोज़ का काम था.
“शर्म नहीं आती मेरे सामने गुटका खाते. ये दूसरे पैकेट से क्या जर्दा मिलाती है. तुझे पता है इसकी महक कितनी तेज है!”
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मन तो किया कह दूंं, बदबू आती है… लेकिन ये सोचकर चुप रह गई कि इसे बुरा लगेगा. फिर दूसरे की क्षण बात को ज़ारी रखते हुए उसे समझाया.
“पता है तेरे आने का पता सीढ़ियों से ही चल जाता है. पूरे घर में एक ही महक या सच कहूंं तो… इतनी तीखी महक की उल्टी का जी होने लगता है.”
बात ख़त्म भी नहीं हुई थी कि ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी. बचपन याद आया, जब कभी मां कहा करती थी ज़ोर से रोओगी या हंसोगी, तो मुंह खोलने पर जो कौवा दिखाई देता है, वो उड़ जाएगा… मन किया इसे समझाऊं इतना मुंह मत फाड़, लेकिन दूसरे ही पल गुटके के कारण काली-अध टूटी दंतावली दिखाई दी. दंतावली कहना उन दांतों के साथ नाइंसाफ़ी होगी. वो तो बची ही कहां थी जर्दे की परत अधटूटे दांतों पर चढ़ चुकी थी. हंसने से उसका मुंह ही नहीं पूरी काया हिल रही थी. सच कहूंं, तो एक पल को पूरा शरीर ही मस्ती में झूम रहा था.
“क्या पागल की तरह हंस रही है? तुझे पता है कितनी ग़लत चीज़ है ये! देख सारे दांंतों का रंग काला पड़ गया है. टूट गए हैं. उम्र से पहले बुढ़िया हो जाएगी. कभी पैकेट देखा है… क्या लिखा रहता है उस पर! सावधानी लिखी रहती है. कैंसर हो जाएगा तो क्या करेगी.”
“पता है मेरे को… खाली-पीली टाइम खोटी कर रही हो. ज्ञान मत दो. छह बेटी है मेरे! ख़ूब ज्ञान देना जानती मैं और ये जो आदत है ना ये आप लोग ही डलवाए. पहले एक बात बताओ… चलो मैं तो छोटेपन से इसे खा रही आज तक तो कैंसर नहीं हुआ, लेकिन तुम लोग जो इतना शरीफ़ बनते हैं ऐसी चीज़ों के हाथ नहीं लगाते, फिर तुम लोग को कैंसर क्यों होता है?..”
मन ही मन हंंसी आ रही थी और कहीं ना कहीं उसकी बात सोचने को मजबूर भी कर रही थी. समझ रही थी कि वो ये कहना चाहती है कि क़िस्मत पर किसी का ज़ोर नहीं.
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“तुझे ज़्यादा मुंह लगा लिया है. कोई बात समझना ही नहीं चाहती… ऐसे कह रही है जैसे हम तो ज़िद करके कहते हैं खा…”
“ही… ही… हांं, तुम लोगों की वजह से ही खाता हैं हम लोग. शी-शी बाबा बर्तनों में इत्ता बदबू आता है शीsss”
“अच्छा इतने धो-धाकर बर्तन रखती हूं, शर्म नहीं आती कुछ भी बोलती है. मतलब तुझे गुटखा खाना सिखाने की ज़िम्मेदार मैं हूं.”
अब समझ गई थी भाभी ग़ुस्से में बोली.
“ना-ना भाभी, अब तो लोग बहुत साफ़ बर्तन रखते हैं. पहले झूठी प्लेट, उसमें खाना लगा रहता था. तब से आदत पड़ गई.. और बताऊंं मैडम मुझे कोई बीमारी-विमारी नहीं होनेवाली. इतनी अच्छी क़िस्मत होती, तो सब परेशानियों से निजात ना मिल जाती… आपकी पीछा नहीं छोड़नेवाली.” कह वही परिचित सी हंसी पूरे कमरे में गूंंज गई.
अबकी बार हंसने वाली वो अकेली नहीं थी उसे देख मेरी हंसी भी फूट पड़ी.
पगली… जैसी भी थी उसके डेढ़ घंटा घर आने से एक रौनक़ सी आ जाती थी. प्यार से भाभी-भाभी कह कर तमाम बातें बना जाती. जब कुछ कहना हो या नाराज़गी जतानी हो, तो संबोधन बदल जाता. तब मैं भाभी से मैडम बन जाती.
बंगाली थी, इसलिए हर शब्द अलग ही बोलती थी. मेरे हर प्रश्न का जवाब उसके पास होता, क्योंकि उसकी एक बिटिया पढ़ रही है, उसकी मां को कोई कुछ कहे और मां गर्दन झुका कर सुन ले, त़ो उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती है, इसलिए हंसी-मज़ाक कर दोनों को ख़ुश रखना कामवाली की एक कला है. रोज़मर्रा की तरह आज भी काम करके चली गई.
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तमाम गहरी बातों में मुझे उलझाकर. यही की दिल और दिमाग़ हर एक के पास होता है. जैसा सम्मान और व्यवहार हम अपने लिए चाहते हैं, हमें दूसरों को भी देना होगा, बिना किसी भेदभाव के.
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