कहानी- ख़्वाहिशें (Short Story- Khwaishein)


                                    

रीता कुमारी

‘‘मैं जानती हूं तुम्हारे मन में ढेरों प्रश्न उठ रहे होगें, क्योंकि उन दिनों परीक्षा की व्यस्तता के बीच हमारी खुलकर बातें नहीं हो पाई थी और शायद तुम्हें एहसास भी नहीं हो पाया कि जब-तब तुम्हारी बातों ने मेरे दिल और ख़्वाहिशों के दरवाज़े बंद कर दिमाग़ का दरवाज़ा खोल दिया था. तब मेरी समझ में आया कि मेरी ख़्वाहिशों की उड़ान ने मुझे कितना नीचे गिरा दिया था…”

 
दिल्ली के एक महशूर मार्केट कम्पलेक्श मे कदम रखते ही एक बेहद परिचित आवाज़ ने मुझे बुरी तरह चौंका दिया था.
‘‘नेहा तुम यहां… व्हाट ए प्लेजेंट सरप्राइज़? तुम यहां कब आई?”
पलटते ही कभी मेरी क्लासमेट के साथ रूममेट रही राधिका सिन्हा नज़र आई, पर पूरी तरह बदले गेटअप में. हमेशा छोटे-छोटे नए फैशन के कपड़ों और ऊंची सैंडल में घूमनेवाली राधिका, ब्लू रंग के शिफॉन की साड़ी के साथ हल्के मोतियों के सेट में बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी. अचानक अपनी अतंरंग सहेली के इस तरह मिल जाने से मुझे अपनी ख़ुशी के अतिरेक को संभालना मुश्किल हो रहा था. वैसे भी इस शहर में अपनों के नाम पर कुछ इने-गिने लोग ही थे. मैं उत्साहित होते हुए बोली, ‘‘मैं तो अपनी शादी के बाद से ही यहां सेटल हो गई हूं. मयूर विहार में फ्लैट लेकर अपने पति और दो बेटियों के साथ रह रही हूं.”
“तुम्हारी तरह मेरे पति मयंक भी यहां के एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. उसी कंपनी के दूसरे ब्रांच में मैं भी काम करती हूं और पास के ही एक फ्लैट में रहती हूं. तुम्हें देखकर मुझे इस बात की ख़ुशी हो रही है कि क़िस्मत एक बार फिर हम दोनों को एक ही शहर में ले आई है. इतने बड़े श्हर में कोई तो अपना मिला, जिससे दिल की बातें शेयर कर पाऊंगी.”
‘‘वो तो ठीक है राधिका, पर आश्चर्य इस बात का है कि तू कैसे इतनी बदल गई. कौन कह सकता है कि कभी तू अपने कॉलेज की ‘टॉप रोल मॉडल’ हुआ करती थी.’’
“टाइम माई डियर टाइम. वह सब कुछ बदल देता है, पर घोर आश्चर्य की बात तो यह है कि वह तुम्हारे पीले रंग से प्रेम को आज तक बदल नहीं सका.’’ वह मेरे पीले रंग के सूट और उससे मैच करते पर्स और चूड़ियों को देख अपनी शरारतभरी आंखें नचाते हुए बोली, तो बरबस ही मुझे कॉलेज के दिन याद आ गए.
‘‘अभी तक तुम्हारी खुराफाती कमेंट करने की आदत गई नहीं ’’
उसके साथ ही हमारी हंसी गूंज उठी थी. हम दोनों जब बातें करते बाहर निकले, तब वह बड़े ही आग्रह से बोली, “इस सड़क के दूसरी तरफ़ मेरा फ्लैट है. चलो न वही बैठ कर कुछ पुरानी यादें ताज़ा करते हैं.” थोड़ी देर बाद ही हम दोनों एक अत्यन्त आधुनिक फ्लैट में थे. राधिका मुझे ड्रॉइंगरूम में बैठा चाय बनाने चली गई. मैं मंत्रमुग्ध सी उस ड्रॉइंगरूम को देख रही थी, जिसे बड़े करीने से सजाया गया था. कभी ऐसी ही ज़िन्दगी जीने के लिए ललायित राधिका, अपना पूरा भविषय ही दांव पर लगा दी थी.

आज से बारह वर्ष पहले उसने बिहार के एक कस्बेनुमा शहर से दिल्ली के एक बड़े कॉलेज से एम.ए. करने के लिए एडमिशन ली थी. वह एक मेधावी छात्र थी. नंबरों के आधार पर एडमिशन तो उसे मिल गया था, पर उसका रहन-सहन बातें करने का ढंग कॉलेज कैंपस के आधुनिक रंग-ढंग से मैच नहीं करता था, जिससे अक्सर ही उसे उपहास का पात्र बनना पड़ता. जब वह मेरी रूममेट बन मेरा कमरा शेयर करने लगी, मुझे महसूस हुआ वह एक अच्छे विचारोंवाली लड़की थी. उसमें दोस्ती के लिए प्रेम, सहयोग और समर्पण था. उसके इन्हीं गुणों से प्रभावित हो जल्द ही मैं उसकी अंतरंग सहेली बन गई थी.
मैं भी उसे नए-नए फैशन के गुर समझाती रहती. नए फैशन के ड्रेस, चूड़ियां और सैंडल ख़रीदने में मदद करती. वह भी तेजी से मेट्रोपोलिटन सिटी के लाइफस्टाइल और फैशन अपना रही थी. बहुत जल्दी ही उसने अपने इंग्लिश के उच्चारण को भी एक कोचिंग में एडमिशन लेकर पूरी तरह सुधार लिया था. देखते-देखते उसने अपने पुराने परिधान और परिवेश को केंचुली की तरह उतार कर इतनी दूर फेंक दिया था कि कोई नहीं कह सकता था कि वह एक कस्बे में पली-बढ़ी है. यहां की ज़िन्दगी उसे पूरी तरह रास आ गई थी.

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यहां तक तो सब ठीक था, पर धीरे-धीरे वह आधुनिकता के दौड़ में खोते जा रही थी. हाॅस्टल के डायनिंग रूम में जब वह जाती लम्बे-चौड़े डायनिंग टेबल के इर्द-गिर्द बैठी हंसती-खिलखिलाती लड़कियों के तरह-तरह के आधुनिक ढंग से बने बाल और कपड़े देखती, तो उन लोगों जैसा बनने के लिए वह भी एक से एक ब्यूटी पार्लर में अपने पापा के खून-पसीने की कमाई अपने कायाकल्प पर उड़ाने लगी. उसने ऐसे-ऐसे ट्रिटमेंट करवाए थे कि उसके पूरे वेक्सड बाॅडी से लड़के क्या लड़कियों की नज़रे भी फिसलती रहती. उसकी पूरी तरह बदली बॉडी लैंग्वेज देख मुझे भी अपनी आंखों पर विश्वास नहीं होता था.
धीरे-धीरे ये हाल हो गया कि जब उसकी मां की हिदायतों से भरे फोन आते उसे उनकी बातें सुनने तक की फ़ुर्सत नहीं रहती. नॉवेल पर नज़रेंग ड़ाए हां… हूं करती रहती.
उसके बचपन का एक दोस्त मयंक कभी-कभी उससे मिलने आता था. वह भी दिल्ली में ही किसी कंपटीशन की तैयारी कर रहा था. पहले जब भी वह मिलने आता उसे देखते ही राधिका का चेहरा खिल उठता. उसके जाने के बाद भी घंटों वह उसके तारीफ़ों के पुल बांधते रहती, जिससे साफ़ उसके प्रति राधिका का प्यार झलकता. अब वही मयंक विजिटर रूम में बैठा रहता, पर उससे मिलने का राधिका के पास समय नहीं होता. मिलने जाती भी तो बहाने बना उसे जल्दी से टरका देती. अपने पिछले बेढंग जीवन, जिसमें उसके हिसाब से बेशउर लोग रहते थे, उनसे संबंध बनाए रखना उसे गवारा नहीं था.
जिस रंगीन दुनिया को राधिका महसूस कर रही थी उसी में डूबती जा रही थी. मुझसे अक्सर कहती, ‘‘ नेहा, देखो तो यहां की रंगीन दीवारें, चमकते फर्श और फूलों से सजे कमरे जिधर देखो रंग ही रंग. कितना अलग है उस रंगहीन कस्बाई जीवन से.” यहां की रोशनी, रंगीनी और जीवनशैली की जीवंतता ने उसके दिल-दिमाग़ पर पूरी तरह कब्जा कर लिया था. उसके बाद तो आए दिन हाॅस्टल के नियम तोड़ कर उसका घूमना-फिरना बढ़ने लगा था. अब उसे रोकना मेरे बस में नहीं था. उसके कई स्पेशल दोस्त बन गए थे, जो उसके हिसाब से वे सब उस पर मरते थे. उन्हें यूट्लाइज करना भी वह अच्छी तरह सीख गई थी. उसे अपना नया जीवन बेहद दिलचस्प लगता. उन्हीं दिनों उसकी दोस्ती प्रभाकर से हो गई थी. वह एक उच्च अधिकारी का बेटा था, इसलिए उसके पास साधनों की कमी नहीं थी.
प्रभाकर ने उसका एक और नई दुनिया से परिचय करवा दिया. प्रभाकर के साथ वह बड़े-बड़े होटलों में जाने लगी, जहां शाम से ही इंद्रधनुषी रंगों की लहरे चारो तरफ़ फैली नज़़र आत. स्लो म्यूज़िक और रंगीन मोमबतियों के बीच कैंडल लाइट डिनर, यह सब उसे बेहद रोमांचित करता. उसे रूमानी दुनिया में ले जाता. वैसे भी वह प्रभाकर से प्यार करने लगी थी. 
अपना अनुभव मुझे सुनाते समय वह पुलकित हो उठती थी. अब उसे मेरी सहायता की कोई ज़रूरत नहीं थी. फिर भी उसका मन उन अद्भुत अनुभवों को मेरे साथ बांटना चाहता. वह मुझे यह एहसास दिलाना चाहती थी कि आधुनिकता में वह मुझसे भी चार कदम आगे है. वो यह जताना चाहती थी कि वह फैशन और आधुनिक जीवन जीने के उस मोड़ पर थी जिसके टेस्ट का पता मुझे भी नहीं था. कभी मेरे फैशनबल रंग-ढंग को टुकुर-टुकुर देखती थी. अब वह चाहती थी मैं उसकी बातें सुन अचंभित हो उसे टुकुर-टुकुर देखूं. यह समझू की वह अब छोटे शहर की लड़की नहीं रही मुझसे ज़्यादा आधुनिक है. धीरे-धीरे वह मुझसे दूर होती जा रही थी.
मैं चाहती थी चारों तरफ़ फैले रंगों के छलावे से उसे सावधान कर दूं. मैं उसे कहना चाहती थी कि वह एक मेघावी छात्रा है पढ़ाई पर ध्यान दे तो ये रंगीन दुनिया जिसके पीछे वह भाग रही थी उसे वह खुद-ब-खुद सब हासिल हो जाएगा. मैं उसे मयंक की याद दिलाना चाहती थी, जो एक अच्छा इंसान था और बरसों से उससे प्यार करता था, लेकिन वह मेरी बातें सुनना-समझना चाहती ही नहीं थी.
एक दिन शाम को कहीं से लौटी, तो देर तक सोई रह गई. खाना खाने के लिए नीचे डायनिंग हॉल में जाने के लिए उसे उठाने गई, तो वह उठने के बदले बड़े ही बेरूखे आवाज़ में बोली, ‘‘प्लीज़ नेहा, रहम करो मुझ पर मुझे सोने दो.’’
“क्या तुम्हारी तबीयत ख़राब है?’’
वह कोई भी जवाब देने केे बदले और भी अच्छी तरह चादर लपेट कर सो गई. मैं उसके पास बैठते हुए बोली, ‘‘ छोड़ो, अब मैं भी खाने नहीं जाऊंगी.’’
पांच मिनट भी नहीं गुज़रे थे कि वह उठकर अपना सिर मेरे गोद में डाल कर फूट-फूट कर रो पड़ी, मैं उसे इस तरह रोते हुए देख कर बुरी तरह घबरा गई, “क्या हुआ कुछ बोलोगी भी.’’
जब वह थोड़ी संभली, तो सिसकते हुए बोली, ‘‘मेरे साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ. प्रभाकर ने मुझसे प्यार करने का नाटक करके मेरा भरपूर फ़ायदा उठाया और अब वह कही और शादी करने जा रहा है. मेरे विरोध करने पर बोला, मुझ जैसी लड़की सिर्फ़ दोस्ती के लिए होती है शादी करने के लिए नहीं. मेरी औकात नहीं है उस जैसे लड़के से शादी करने की. मैं तो पूरी तरह बर्बाद हो गई नेहा, अब क्या करूं.”
मैं अचंभित बैठी थी. उतरा चेहरा, रूखे बालों के बीच भी उसका सुन्दर चेहरा काफ़ी करूण लग रहा था, मैं हिम्म्त करके बोली, ‘‘वैसे तुम ख़ुद समझदार हो, फिर भी मैंने हमेशा तुम्हें समझााने की कोशिश की थी कि समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए आधुनिक परिवेश और सोच को अपनाना बहुत जरूरी है. फिर भी इसका अंधानुकरण हमेशा हमें संकट में ही डालता है. क्योंकि भौतिकता पर आधारित हमारा यह आधुनिक समाज नितांत स्वार्थमूलक है, लेकिन तुम समझने को तैयार कहां थी? जब भी मैं तुम्हारे तेज गति को लगाम लगाने की कोशिश करती तुम इसे मेरी ईर्ष्या समझती.
जब तुम यहां आई थी तुम्हारी एक ही ख़्वाहिश थी कुछ बन कर दिखाना है, पर यहां आकर तुम्हारी ख़्वाहिशों का दायरा बढ़ने लगा. यह सच है कि हमारी ख़्वाहिशें ही हमारे सपनों को उड़ान देती है. उसे मूर्त रूप प्रदान करने की शक्ति देती है, फिर भी जब भी ये ख़्वाहिशें बेलगाम हो जाती हैं, तब सीधे हमें गर्त में धकेल देती हैं. प्रभाकर की संगति में तुम्हारी ख़्वाहिशें बेलगाम होती जा रही थी. प्रभाकर जैसे लड़कों के अपने विलासी जीवन का एक ही लक्ष्य होता है खाओ-पिओ और खुले हाथों से पिता के कुबेर का ख़ज़ाना खाली करो. इनके सुख-सुविधा से परिपूर्ण, एश्वर्यपूर्ण जीवन में प्रेम, त्याग, समर्पण जैसे शब्दों का कोई मूल्य ही नहीं होता. इन बातों को ये बख़ूबी अपने शब्दों में ढाल कर दूसरों को इंप्रेस करने की कोशिश करते है. जबकि इन बातों का उनके दिल से कोई कनेक्शन नहीं होता. जब कभी इन बातों को सत्य रूप में धरातल पर उतारने का समय आता है ये सबसे पहले अपना देह झाड़ कर अलग खड़े हो जाते है, जिसे तुम समझ नहीं पाई न सही पर तुम्हें तो यह भी ख़्याल नहीं रहा कि तुम्हारे परिवारवालों ने तुम्हें इतनी स्वतंत्रता दी, तुम पर विश्वास किया, उसका मान रखना तुम्हारा फर्ज़ था.

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मेरी मानो तो अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, ऐसा व्यक्ति जो खुद पिता की बैशाखी पर धूम रहा हो, जिसे अपनी औकात का पता नहीं तुम्हारी औकात क्या तय करेगा? जो हुआ उसे भूलाकर आगे बढ़ जाओ और जिस एकमात्र ख़्वाहिश को पूरा करने यहां आई थी उस पर ध्यान दो. मेहनत करके अपनी उड़ान इतनी ऊंची कर लो कि तुम्हें देखने के लिए उसे खुद की गर्दन ऊंची करनी पड़ें.”
मेरी बातों का राधिका पर पूरा-पूरा असर हुआ, कुछ ही दिनों में संभल गई और अपनी पढ़ाई में जुट गई. हम दोनों के ही परीक्षा अच्छे हुए. परीक्षा के बाद हम दोनों अपने-अपने शहर लौट गई. उसके बाद फिर एक बार भी हमारी मुलाक़ात नहीं हो पाई. तभी राधिका चाय और नमकीन लेकर आ गई. चाय की चुस्कियों के साथ हमारी बातें कुछ ज्यादा ही आसान हो गई. राधिका ने ही शुरूआत की.

‘‘मैं जानती हूं तुम्हारे मन में ढेरों प्रश्न उठ रहे होंगे, क्योंकि उन दिनों परीक्षा की व्यस्तता के बीच हमारी खुलकर बातें नहीं हो पाई थी और शायद तुम्हें एहसास भी नहीं हो पाया कि जब-तब तुम्हारी बातों ने मेरे दिल और ख़्वाहिशों के दरवाज़े बंद कर दिमाग़ का दरवाज़ा खोल दिया था. तब मेरी समझ में आया कि मेरी ख़्वाहिशों की उड़ान ने मुझे कितना नीचे गिरा दिया था. प्रभाकर ने तो मेरी अस्मिता पर वार कर उसे तोड़ कर पूरी तरह बिखेर दिया था. आधुनिक समाज का हिस्सा बनने के आसान रास्ते ने मुझे कही का नहीं छोड़ा था. तब मैंने यह भी तय कर लिया था कि जीवनभर अकेले ही चलना हैं.’’
‘‘परीक्षा के बाद जब घर लौट, मयंक ने भी मेरे व्यवहार के कारण मुझसे दूरी बना ली थी. मैंने बहुत सोचा तो एक बात मेरी समझ में आई, पुरूष होने से ही आदमी कुटील, स्वार्थी और घमंडी नहीं हो जाता. बहुत सारे पुरूष तो स्त्रियों के मान-सम्मान के लिए खुद की ज़िन्दगी दांव पर लगा देते है. हमारी सृष्टि की रचना ही प्रकृति और पुरूष के मिलन पर आधारित है. स्त्री-पुरूष तो समाज के पूरक अंग है. विकृति तो किसी भी अंग में हो सकती हैं फिर हम विकृति सिर्फ़ पुरूष में ही क्यों ढूंढे. अपने जीवन में जीवनसाथी का चुनाव हमारी अपनी मुल्यांकन करने की क्षमता पर निर्भर करता है, जो मुझमें नहीं था, इसलिए मैंने अकेले चलने का विचार त्याग एक दिन मौक़ा पाकर मयंक के सामने अपना दिल खोल कर रख दिया. सच-सच सारी घटना सुना दी. सब कुछ सुन आहत् मयंक निर्वाक् हतप्रभ खड़ा रह गया. वह कई दिनों तक मुझसे बात तक नहीं किया. मैंने भी यह सोचकर उसे छोड़ दिया कि वह खुद फ़ैसला करे कि मेरे साथ वह रिश्तों में बंधना चाहता है या नहीं. उसके प्यार और उससे अपने संबंधों के प्रति जो मैंने ईमानदारी निभाई थी यह बात उसके दिल को कही गहरे छू गई. वह मुझे प्यार भी बहुत करता था, मेरा अपने प्रति विश्वास देख उसका भरोसा मुझ पर कायम रहा और उसने खुद पहल कर मेरे साथ अपने संबंध को कायम रखा.
इसके बाद का किस्सा तो बस इतना सा है कि हमने साथ-साथ मैनेजमेंट में एडमिशन के लिए तैयारी की. एडमिशन हो जाने पर पढ़ाई पूरी की. फिर साथ ही नौकरी भी मिल गई. अंततः घरवालों की सहमती से शादी कर घर बसा लिया. अब मेरे छोटे सुखी परिवार में मेरा चार वर्ष का बेटा गौरव भी शामिल है, जो पास के पार्क में मेरी मेड के साथ खेलने गया है. तुम्हारे कारण ही मेरी ज़िन्दगी बदल गई, तुम्हारे इस ऋण से क्या मैं कभी उऋण हो सकती हूं?
‘‘सच पूछो तो राधिका समझदारी इसी में है कि ज़िन्दगी में मिले घाव को नासूर ना बनने दें. समय पर उपचार ही ज़िन्दगी को नई दिशा देता हैं.’’
जब मैं वहां से जाने के लिए उठ खड़ी हुई तो राधिका भी मुझे बाहर तक छोड़ने के लिए मेरे साथ चल पड़ी. जाते-जाते दहलीज़ पर अचानक मेरे कदम ठिठक गए. मैं पलट कर राधिका के गले से जा लगी. बहुत देर से पलकों पर थमें आंसू गालों पर लुढक आए, जो बहुत दिनों बाद किसी बहुत ख़ास अपने के मिल जाने की ख़ुशी में बह आए थे.

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Usha Gupta

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