क्षितिज के घर में प्रवेश करते ही उसके चेहरे के भावों को देखकर मैं समझ गई कि वही हुआ है, जिसका मुझे अन्देशा था.
“रिज़ल्ट क्या रहा?” मैंने किचन से निकलते हुए पूछा.
“मैं फेल हो गया.” क्षितिज ने संक्षिप्त-सा उत्तर देकर सिर झुका लिया. वो अंदर से दु:खी था. परेशान तो था, पर ज़्यादा कुछ नहीं कहेगा, ये मैं ख़ूब जानती थी. बचपन से ही अंतर्मुखी रहा है, पर मैं उसके चेहरे के हर उतार-चढ़ाव को पढ़ लेती थी. मां हूं ना!
आज क्षितिज का बीए सेकेंड ईयर का रिज़ल्ट आया है. मैंने भी अनमने ढंग से सारा काम निबटाया. मन तो उद्विग्न था. क्षितिज के बारे में सोचते हुए अतीत के वर्षों पर नज़र चली ही जाती है. व़क़्त के साथ जो बीत गया है, वो आज भी मेरे दिल से गुज़रा नहीं है, बल्कि अक्सर बोझ मेरे दिलो-दिमाग़ पर हावी हो जाता है. कभी-कभी तो बहुत बेचैनी और बेबसी महसूस करती हूं, जब सोमेश भी मेरे अन्दर की मां की पीड़ा को नहीं समझ पाते हैं.
क्षितिज बचपन से ही होशियार, तेज़ दिमाग़ का और बहुत संवेदनशील बच्चा था. हमारे संयुक्त परिवार में क्षितिज को सभी का भरपूर प्यार मिला. तीन साल की उम्र में स्कूल में नाम लिखा दिया गया. ख़ुशी-ख़ुशी स्कूल जाता. कभी भी किसी चीज़ के लिए ज़िद नहीं करता. कुल मिलाकर उसका विकास एक स्वस्थ माहौल में हो रहा था. आठ वर्ष की उम्र में उसने अपनी प्रतिभा के बल पर एक जिला स्तरीय विज्ञान प्रतियोगिता भी जीती थी. सोमेश ख़ुशी से उछल पड़े थे.
धीरे-धीरे संयुक्त परिवार में तनाव होने लगे. इसी बीच अनुज का जन्म हुआ. मैं कोशिश करती थी कि इसका असर बच्चों पर न पड़े, क्योंकि पारिवारिक तनाव से संवेदनशील बच्चे प्रभावित होते ही हैं. बच्चे बड़ों से कुछ कह नहीं पाते, मगर ख़ुद तनाव में रहने लगते हैं. परिस्थितियां ऐसी हुईं कि हमें परिवार से अलग होना पड़ा. अब बच्चों की परवरिश एकल परिवार में होने लगी. उस व़क़्त क्षितिज 10 वर्ष व अनुज 7 वर्ष का था.
पिता का अनुशासन बच्चों के लिए ज़रूरी है, मगर साथ ही बच्चों के लिए यह एहसास भी ज़रूरी है कि पिता उसे बहुत प्यार करते हैं. इससे बच्चे ख़ुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. सोमेश का व्यवहार क्षितिज के प्रति हमेशा अनुशासन भरा रहने लगा, प्यार खोने लगा, क्षितिज का बचपन खोने लगा. यहीं से मेरी चिन्ता शुरू हुई, क्योंकि मैं समझती थी कि पिता के हिस्से के प्यार की भरपाई मैं नहीं कर सकती थी. अकेले में मैं सोमेश को समझाती, मगर मेरी बातों को उन्होंने कभी गम्भीरता से नहीं लिया.
सोमेश की अपेक्षाएं उन्हें क्षितिज के लिए पूर्वाग्रही बनाती जा रही थीं. वे क्षितिज में सारी ख़ूबियां ही देखना चाहते थे. उसे दूसरे बच्चों की झूठी शिकायतों पर सबके सामने डांटना-मारना, प्यार से कभी पास बुलाकर प्यार करना तो जैसे भूल ही गए थे सोमेश. हर व़क़्त सहमा-सा रहता था क्षितिज. कभी कोई अच्छा काम करता तो सोमेश की तारीफ़ पाना चाहता था, लेकिन ऐसा नहीं होता था. सोमेश समझ नहीं पाते थे कि इससे उसके आत्मविश्वास को ठेस लगती थी. क्षितिज का आत्मविश्वास डगमगाने लगा था.
अब वह किशोरावस्था में प्रवेश कर चुका था. इस संधिकाल में उनमें होनेवाले शारीरिक व मानसिक परिवर्तनों को बच्चे समझ ही नहीं पाते हैं. अपने आप में उलझे रहते हैं. उन्हें प्यार व प्रोत्साहन के साथ सही मार्गदर्शन की भी ज़रूरत होती है. जिस उम्र में बच्चा पिता के क़रीब आता है, क्षितिज और सोमेश के बीच दूरियां आ रही थीं. हमेशा फर्स्ट आनेवाला लड़का पढ़ाई में मन न लगा पाने के कारण पिछड़ गया था.
बच्चों पर सबसे ज़्यादा असर अपने माता-पिता की बातों का होता है. मैं हमेशा उसे प्यार से समझाती थी, मगर कभी नहीं कहती कि सोमेश ग़लत हैं. वह मुझसे अपने मन की बात करता था, “मां, जब मैं पढ़ने बैठता हूं तो पापा के बारे में सोचने लगता हूं और मेरा पढ़ाई में मन ही नहीं लगता. सोचता हूं कि मुझसे कोई ग़लती ना हो जाए, फिर भी कुछ-न-कुछ हो ही जाता है और पापा नाराज़ हो जाते हैं.” मैं चाहकर भी उसके लिए कुछ कर नहीं पाती थी. मैं भी उन कमज़ोर मांओं में से थी, जो पति की ग़लतियों में भी उन्हीं का साथ देती हैं, बेटे को सहारा नहीं देतीं.
क्षितिज मेरे रवैये से कभी-कभी अकेला पड़ जाता था, ये मुझे बहुत बाद में महसूस हुआ. और… हमेशा पत्नी के आगे मेरे अन्दर की मां कमज़ोर पड़ गई. स्त्री अपने पुत्र से भी उतना ही प्यार करती है, जितना अपने पति से. स़िर्फ भाव में अन्तर होता है. मेरे विरोध न करने के पीछे मेरी यही सोच थी कि कहीं मेरा सहयोग पाकर क्षितिज पिता की अवहेलना न करने लगे.
शुरू में तो सोमेश के ऑफ़िस से लौटने का व़क़्त होता तो क्षितिज अनुज को साथ लेकर घर का कोई कोना ढूंढ़ लेता. सोमेश के सामने आने से डरता था. बहुत कोमल होता है बाल मन, डर गहरे बैठ जाता है. जिस उम्र में किशोर मां का आंचल छोड़कर बाहर की दुनिया में पिता का हाथ पकड़कर चलना चाहता है, अपने आपको पिता के साथ ज़्यादा सुरक्षित पाता है, उसी उम्र में पिता को लेकर असुरक्षित महसूस कर रहा था क्षितिज. किशोरावस्था ख़ुद शारीरिक व मानसिक अस्थिरता का दौर होता है. किशोर इतने मानसिक दबाव से गुज़रते हैं कि उन्हें बहुत प्यार से समझाने की ज़रूरत होती है. विश्वास को भी प्रोत्साहन की ज़रूरत होती है, वरना वो भी भटक जाता है.
सोमेश का दूसरे बच्चों के साथ अति प्रेमपूर्वक व्यवहार व किसी बच्चे की मामूली शिकायत पर भी क्षितिज को बच्चों के सामने या किसी के भी सामने बुरी तरह डांटना, अपशब्द बोलना, उनका अधिकार प्रदर्शन करना, इन सबसे वह अन्दर-ही-अन्दर घुटता रहता था. किशोरावस्था के संक्रमण काल में उसकी प्रतिभा व आत्मविश्वास दोनों ही खोते चले गए. उसके बोलने का अंदाज़ तीखा होता गया. वह सोमेश को जवाब भी देने लगा.
मैंने कभी हिम्मत तो नहीं हारी, लेकिन आज जैसे परिस्थितियों ने मुझे हरा दिया. मेरा कर्त्तव्य हमेशा मेरी भावनाओं पर हावी रहा. मगर नतीज़ा क्या रहा?
“बीबी जी… ओऽ बीबी जी…!ऽऽ” “हां… अरे! तुम कब आई?” नौकरानी के बर्तन खाली करने की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूटी.
अतीत के गलियारे में भटकते हुए व़क़्त का पता ही नहीं चला. घड़ी की ओर देखा, शाम हो चली थी. क्षितिज सुबह से चुपचाप अपने कमरे में लेटा था. आज पहली बार सोमेश ने उसे कुछ नहीं कहा था. हालांकि ये मैं जानती थी कि क्षितिज का फेल होना उनके लिए बहुत असहज बात थी. मुझसे भी अपने दिल का हाल नहीं कहेंगे. मगर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा था. कुछ न कहकर इन्सान वो सब कुछ कह जाता है, जो वो बोलकर शब्दों में नहीं कह सकता.
क्षितिज चुपचाप खिड़की के पास बैठकर सड़क के पार देखते हुए अपनी ज़िन्दगी के लम्हे खोज रहा था या साल बर्बाद होने पर पछता रहा था, नहीं मालूम. अचानक कंधे पर स्पर्श महसूस कर वह खड़ा हो गया. सामने सोमेश खड़े थे. एक पिता बनकर अपने बेटे की सारी कमियां, ग़लतियां माफ़ करने को तैयार. अपने अक्स को ख़ुद में समेट लेने को तैयार, उसे गले लगा लिया. क्षितिज की भी आंखें नम थीं… बरसों से अन्दर छुपे बादलों ने बरसना शुरू कर दिया. पापा को इस रूप में तो उसने देखा ही नहीं था कभी.
मैंने कमरे में प्रवेश किया तो देखा उसके चेहरे पर वह सुखद आश्चर्य था. आंखों में पानी था, पर मेरे दिल की ज़मीन मुझे कुछ गीली-गीली लगी. इस दृश्य का सपना तो मेरी जागती आंखों ने न जाने कितनी बार देखा होगा. नहीं जानती थी कि कभी छोटी-सी असफलता भी इतनी बड़ी सफलता का रास्ता होती है.
“क्षितिज, पास-फेल तो ज़िन्दगी में लगा ही रहता है बेटा, सोचो तुमसे चूक कहां हुई. वहीं से फिर शुरुआत करो. मैं हूं ना!” सोमेश ने क्षितिज के गालों को सहलाते हुए कहा.
“पाऽऽपा…” क्षितिज तो बस अपने पापा का चेहरा ही देख रहा था. जिस शब्द को पापा के मुंह से सुनने को तरसता उसका बचपन पीछे रह गया था, उसे आज पापा के मुंह से सुनने की कल्पना भी नहीं की थी. “हां बेटा, तुम्हारे पापा तुम्हारे साथ हैं ना? ये कोई ज़िन्दगी की आख़िरी परीक्षा तो नहीं थी.” सोमेश ने क्षितिज़ को सीने से लगा लिया. मुझे देखकर सोमेश ने कहा, “तुम सच कहती थीं साक्षी, मैंने ही अपने बच्चे को समझने में बहुत देर कर दी.”
मैं ख़ामोश थी. क्या कहती? गर्मी की उमस भरी शाम में भी जैसे मुझे ठण्डी हवा के झोंकों का आभास हो रहा था. सोच रही थी कि एक पिता अपने बच्चे से अपना अहं छोड़कर ये बात कहने में इतने साल क्यूं लगा देता है कि बेटा, मुझे तुमसे बहुत प्यार है…
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