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कहानी- मौसम की शरारत (Short Story- Mausam Ki Shararat)

मैं अभी लड़की की इस प्यारी हरकत का मज़ा लेने की ख़ातिर ज़ेहन में दोहराने ही वाला था कि बछड़ा ख़ुद-ब-ख़ुद उठ भागा। वो इस तेज़ी के साथ दौड़ रहा था कि उसकी कमज़ोर टांगें मेज़ के ढीले पाइयों की तरह लड़खड़ा रही थीं।
लड़की बछड़े की इस शरारत पर बहुत ग़ुस्सा हुई। न जाने मैं क्यों ख़ुश हुआ कि तभी में उसने मेरी तरफ़ देखा और मैंने उसकी तरफ़ हम दोनों यकायक हंस पड़े। फ़िज़ा पर तारों का छिड़काव-सा हो गया।

शाम को सैर के लिए निकला और टहलता-टहलता उस सड़क पर हो लिया, जो कश्मीर की तरफ़ जाती है। सड़क के चारों तरफ़ चीड़ और देवदार के दरख़्त, ऊंची-ऊंची पहाड़ियों के दामन पर काले फीते की तरह फैले हुए थे। कभी-कभी हवा के झोंके उस फीते में एक कपकपाहट-सी पैदा कर देते। मेरे दाएं हाथ एक ऊँचा टीला था, जिस के ढलवानों में गंदुम के हरे पौधे निहायत ही मद्धम सरसराहट पैदा कर रहे थे. ये सरसराहट कानों पर बहुत भली मालूम होती थी। आँखें बंद कर लो, तो यूं मालूम होता कि तसव्वुर के गुदगुदे क़ालीनों पर कई कुंवारियां रेशमी साड़ियां पहने चल फिर रही हैं। इन ढलवानों के बहुत ऊपर चीड़ के ऊंचे दरख़्तों का एक हुजूम था। बाएं तरफ़ सड़क के बहुत नीचे एक छोटा-सा मकान था, जिसको झाड़ियों ने घेर रखा था. उस से कुछ फ़ासले पर पस्त-क़द झोपड़े थे। जैसे किसी हसीन चेहरे पर तिल।
हवा गीली और पहाड़ी घास की भीनी-भीनी बांस से लदी हुई थी। मुझे इस सैर में एक नाक़ाबिल-ए-बयान लज़्ज़त महसूस हो रही थी।
सामने टीले पर दो बकरियां बड़े प्यार से एक-दूसरे को अपने नन्हे-नन्हे सींगों से रेल रही थीं। उनसे कुछ फ़ासले पर कुत्ते का एक पिल्ला, जो जसामत में मेरे बूट के बराबर था। एक भारी-भरकम भैंस की टांग से लिपट-लिपटकर उसे डराने की कोशिश कर रहा था। वो शायद भौंकता भी था, क्योंकि उस का मुँह बार बार खुलता था। मगर उस की आवाज़ मेरे कानों तक नहीं पहुंचती थी।
मैं ये तमाशा देखने के लिए ठहर गया। कुत्ते का पिल्ला देर तक भैंस की टांगों पर अपने पंजे मारता रहा। मगर उसकी इन धमकियों का असर न हुआ। जवाब में भैंस ने दो-तीन मर्तबा अपनी दुम हिला दी और बस!.. लेकिन एकाएक पिल्ला हमले के लिए आगे बढ़ रहा था। भैंस ने ज़ोर से अपनी दुम हिलाई। किसी स्याह-सी चीज़ को अपनी तरफ़ बढ़ते देखकर वो इस अंदाज़ से उछला कि मुझे बेख़्तियार हंसी आ गई।
मैं उनको छोड़कर आगे बढ़ा।
आसमान पर बादल के सफ़ेद टुकड़े फैले हुए थे। जिनको हवा इधर से उधर धकेल रही थी। सामने पहाड़ की चोटी पर एक क़दावर दरख़्त संतरी की तरह अकड़ा हुआ था। उसके पीछे बादल का एक टुकड़ा झूम रहा था। बादल, ये दराज़-क़द दरख़्त और पहाड़ी… तीनों मिलकर बहुत बड़े जहाज़ का मंज़र पेश कर रहे थे।
मैं नेचर की इस तस्वीर को टकटकी लगाए देख रहा था कि लारी के हॉर्न ने मुझे चौंका दिया। ख़्यालों की दुनिया से उतरकर मैं आवाज़ों की दुनिया में आ गया। मन की आँखें बंद हो गईं। कान खुल गए। मैं फ़ौरन सड़क के एक तरफ़ हट गया।
लारी बड़ी तेज़ी से मोड़ पर घूमी और मेरे पास से गुज़र गई।
एक और लारी गुज़रने पर मोड़ पर पाँच-छः गायें नुमूदार हुईं। जो सर लटकाए हौले-हौले चल रही थीं। मैं अपनी जगह पर खड़ा रहा। जब ये मेरे आगे से गुज़र गईं, तो मैंने क़दम उठाया और मोड़ की जानिब बढ़ा।
चंद गज़ों का फ़ासिला तय करने पर जब मैं सड़क के बाएं हाथवाले टीले के एक बहुत बड़े पत्थर के आगे से निकल गया। जो मोड़ पर संगीन पर्दे का काम देकर सड़क के दूसरे हिस्से को बिल्कुल ओझल किए हुए था। मेरी नज़रें उससे दो-चार हुईं।
वो जवान थी, उस गाय की तरह जवान, जिस के पट्ठे जवानी के जोश से फड़क रहे थे। और जो उसके पास से अपने अंदर हज़ारों कपकपाहटें लिए गुज़र रही थी… मैं ठहर गया।
वो एक नन्हे से बछड़े को हाँक रही थी। दो-तीन क़दम चलकर बछड़ा ठहर गया और अपनी जगह पर ऐसा जमा कि हिलने का नाम न लिया। लड़की ने बहुतेरे ज़ोर लगाया। लाख जतन किए वो एक क़दम आगे न बढ़ा और कान समेट कर ऐसा ख़ामोश हुआ। गोया वो किसी की आवाज़ ही नहीं सुनता। ये तीव्र देख लड़की ने अपनी छड़ी से काम लेना चाहा। मगर चीड़ की पतली-सी टहनी काम की साबित न हुई। थक-हारकर उसने बड़ी मायूसी और इंतिहाई ग़ुस्से की मिलीजुली हालत में अपने दोनों पांव ज़मीन पर ज़ोर से मारे और काँधों को जुंबिश देकर इस अंदाज़ से खड़ी हो गई। गोया इस हैवान से कहना चाहती है। “लो अब हम भी यहां से एक इंच न हिलेंगे।”
मैं अभी लड़की की इस प्यारी हरकत का मज़ा लेने की ख़ातिर ज़ेहन में दोहराने ही वाला था कि बछड़ा ख़ुद-ब-ख़ुद उठ भागा। वो इस तेज़ी के साथ दौड़ रहा था कि उसकी कमज़ोर टांगें मेज़ के ढीले पाइयों की तरह लड़खड़ा रही थीं।
लड़की बछड़े की इस शरारत पर बहुत ग़ुस्सा हुई। न जाने मैं क्यों ख़ुश हुआ कि तभी में उसने मेरी तरफ़ देखा और मैंने उसकी तरफ़ हम दोनों यकायक हंस पड़े। फ़िज़ा पर तारों का छिड़काव-सा हो गया।
ये सब कुछ एक लम्हे के अंदर हुआ। उसने फिर मेरी तरफ़ देखा। मगर इस दफ़ा सवाल करनेवाली लाजभरी आँखों से… शायद उसको अब इस बात का एहसास हुआ था कि उस की मुस्कुराहट किसी ग़ैर मर्द के तबस्सुम से जा टकराई है।
वो गहरे हरे रंग का दुपट्टा ओढ़े हुए थी। मालूम होता था कि आसपास की हरियावल ने अपनी सब्ज़ी उसी से मुस्तआर ली है। उसकी सलवार भी उसी रंग की थी। अगर वो कुरता भी उसी रंग का पहने होती। तो दूर से देखनेवाले यही समझते कि सड़क के दरमयान एक छोटा सा दरख़्त उग रहा है। हवा के मुलायम झोंके उस के सब्ज़ दोपट्टे में बड़ी प्यारी लहरें पैदा कर रहे थे। ख़ुद को बेकार खड़ी देखकर और मुझको अपनी तरफ़ घूरते पाकर वो बेचैन सी हो गई। और इधर-उधर यूं ही देखा कि जैसे किसी का इंतिज़ार कर रही है। फिर अपने दोपट्टे को संवारकर उसने उस तरफ़ का रुख़ किया। जिधर गाएँ आहिस्ता-आहिस्ता जा रही थीं।
मैं उससे कुछ फ़ासले पर बाएं हाथ पत्थरों के पास खड़ा था। जो सड़क के किनारे-किनारे दीवार की शक्ल में चुने हुए थे।
जब वो मेरे क़रीब आई। तो ग़ैर इरादी तौर पर उसने मेरी तरफ़ निगाहें उठाईं, लेकिन फ़ौरन सिर को झटक कर नीचे झुका लीं। कूल्हे मटकाती और छड़ी हिलाती मेरे पास से यूं गुज़री। जैसे कभी-कभी मेरा अपना ख़्याल मेरे ज़ेहन से अपना कांधा रगड़कर गुज़र जाया करता है।
उस के स्लीपर जो ग़ालिबन उस के पांव में खुले थे। सड़क पर घिसटने से शोर पैदा कर रहे थे। थोड़ी दूर जा कर उसने अपने क़दम तेज़ किए और फिर दौड़ना शुरू कर दिया। बीस-पच्चीस गज़ के फ़ासले पर वो पत्थरों से चुनी हुई दीवार पर फुरती से चढ़ी और मुझे एक नज़र देखकर दूसरी तरफ़ कूद गई। फिर दौड़कर एक झोपड़े पर चढ़कर मुंडेर पर बैठ गई।
उसकी ये हरकत यानी… यानी… मेरी तरफ़ उसका तीन बार देखना… क्या उसकी मुस्कुराहट के साथ मेरे तबस्सुम के कुछ ज़र्रे तो नहीं चिमट गए थे।
इस ख़्याल ने मेरी नब्ज़ की धड़कन तेज़ कर दी। थोड़ी देर के बाद मुझे थकावट-सी महसूस होने लगी। मेरे पीछे झाड़ियों में जंगल के पंछी गीत बरसा रहे थे। हवा में खुली हुई मोसीक़ी मुझे किस क़दर प्यारी मालूम हुई। न जाने मैं कितने घूँट इस राग मिली हुई हवा के गटागट पी गया।
झोपड़े से कुछ दूर झाड़ियों के पास लड़की की गाएँ घास चर रही थीं। उनसे परे पथरीली पगडंडी पर एक कश्मीरी मज़दूर घास का गट्ठा कमर पर लादे ऊपर चढ़ रहा था। दूर… बहुत दूर एक टीले से धूँआ बल खाता हुआ आसमान की नीलाहट में घुलमिल रहा था। पहाड़ियों की बुलंदियों पर हरे-हरे चीड़ों और साँवले पत्थरों के चौड़े चकले सीनों पर डूबते सूरज की ज़र्रीं किरणें स्याह और सुनहरे रंग के मख़लूत साय बिखेर रही थीं कितना सुन्दर और सुहाना समां था।
मैंने अपने आप को अज़ीमुश्शान मोहब्बत में घिरा हुआ पाया।
वो जवान थी। उसकी नाक उस पैंसिल की तरह सीधी और सतवां थी, जिससे मैं ये सतरें लिख रहा हूँ, उस की आँखें… मैंने उस जैसी आँखें बहुत कम देखी हैं इस पहाड़ी इलाक़े की सारी गहराईयां उनमें सिमट कर रह गई थीं। पलकें घनी और लंबी थीं। जब वो मेरे पास से गुज़री थी, तो धूप का एक टुकड़ा उस की पलकों में उलझ गई थी।
उस का सीना मज़बूत और कुशादा था। उस में जवानी सांस लेती थी। कांधे चौड़े, बाहें गोल और गदराहट से भरपूर, कानों में चांदी के लंबे-लंबे बुन्दे थे। बाल देहातियों की तरह सीधी मांग निकालकर गुँधे हुए थे जिससे इस के चेहरे पर वक़ार पैदा हो गया था।
वो झोपड़े की मटियाली छत पर बैठी अपनी छड़ी से मुंडेर कूट रही थी. मैं सड़क पर खड़ा था
किस क़दर बेवक़ूफ़ हूँ। मैंने होश सँभाला और अपने दिल से कहा। अगर कोई मुझे इस तरह उसको घूरता हुआ देख ले, तो क्या कहे… इसके साथ ये क्योंकर हो सकता है।
“ये क्योंकर हो सकता है?” जब मैंने इन अल्फ़ाज़ पर ग़ौर किया तो मालूम हुआ कि मैं किसी और ही ख़्याल में था। इस एहसास पर मुझे हंसी आ गई और यूं ही एक बार उसको और देखकर सैर लिए आगे बढ़ा। दो ही क़दम चलकर मुझे ख़्याल आया कि यहां बटोत में सिर्फ़ चंद रोज़ क़ियाम करना है क्यों न रुख़स्त होते वक़्त उस को सलाम कर लूं। इसमें हर्ज ही क्या है शायद मेरे सलाम का एक आध ज़र्रा उसके हाफ़िज़े पर हमेशा के लिए जम जाये.
मैं ठहर गया और कुछ देर मुंतज़िर रहने के बाद मैंने सचमुच उस को सलाम करने के लिए अपना हाथ माथे की तरफ़ बढ़ाया। मगर फ़ौरन इस अहमक़ाना हरकत से बाख़बर हो कर हाथ को यूंही हवा में हिला दिया और सीटी बजाते हुए क़दम तेज़ कर दिए।
मई का गर्म दिन शाम की ख़ुनकी में आहिस्ता आहिस्ता घुल रहा था।
सामने पहाड़ियों पर हल्का सा धूवां छा गया था, जैसे ख़ुशी के आँसू आँखों के आगे एक चादर सी तान देते हैं। इस धुँदलके में चीड़ के दरख़्त में छुपे हुए ख़यालात मालूम हुए ये एक ही क़तार में फैलते चले गए थे।
मेरे पास ही एक मोटा सा कौआ अपने स्याह और चमकीले पर फैलाए सुस्ता रहा था। हवा का हर झोंका मेरे जिस्म के उन हिस्सों के साथ छू कर जो कपड़ों से आज़ाद मोहब्बत का पैग़ाम दे रहा था।
मैंने आसमान की तरफ़ निगाहें उठाईं, और मुझे ऐसा महसूस हुआ कि वो मेरी तरफ़ हैरत से देख कर ये कहना चाहता है। “सोचते क्या हो. जाओ मोहब्बत करो!”
मैं सड़क के किनारे पत्थरों की दीवार पर बैठ गया और उसकी तरफ़ डरतेे-डरते देखा कि कोई रहगुज़ार सारा मुआमला ताड़ जाये। वो इसी तरह सिर झुकाए अपनी जगह पर बैठी थी। उसे खेल में क्या लुत्फ़ आता है?.. वो अभी थकी नहीं? क्या उसने वाक़ई दुबारा मेरी तरफ़ मुड़कर देखा? क्या वो जानती है कि मैं उस की मोहब्बत में गिरफ़्तार हूँ? ”… आख़िरी सवाल किस क़दर उलझे थे… मैं झेंप गया। लेकिन… लेकिन इसके बावजूद उसको देखने से ख़ुद को बाज़ न रख सका।
एक मर्तबा जब मैंने उसको देखने के लिए अपनी गर्दन मोड़ी, तो क्या देखता हूँ कि उसका मुँह मेरी तरफ़ है और वो मुझे देख रही है… मैं मख़्मूर हो गया।
मेरे और उस के दरमियान फ़ासिला काफ़ी था, मगर मेरी आँखें जिनमें मेरे दिल की बसारत भी चली आई थी, महसूस कर रही थीं कि वो सपनों का घूंंघट काढ़े मेरी तरफ़ देख रही है। मेरी तरफ़… मेरी तरफ़!
मेरे सीने से बेख़्तियार आह निकल गई… अजीब बात है कि सुख और चैन का हाथ भी दर्दभरे तारों पर ही पड़ता है। इस आह में कितनी राहत थी… कितना सुकून था। इस लड़की ने जो मेरे सामने झोपड़े की छत पर बैठी थी। मेरे शबाब के हर रंग को शोख़ कर दिया था। मेरे रोएँ-रोएँ से मोहब्बत फूट रही थी।
अगर इस वक़्त वो मुझ से हम-कलाम होती, तो मैं एक लफ़्ज़ तक अपनी ज़बान से न निकालता। ख़ामोशी मेरी तर्जुमान होती… मेरी गूंगी ज़बान कितनी बातें उस तक पहुंचा देती। मैं उसको अपनी ख़ामोशी में लपेट लेता… वो ज़रूर मुतहय्यर होती और इस हालत में बड़ी प्यारी मालूम होती। इस ख़्याल से कि रास्ते में यूं बेकार खड़े रहना ठीक नहीं, मैं दीवार पर से उठा… मेरे सामने टीले पर जाने के लिए एक पगडंडी थी। ऊपर टीले के किसी पत्थर पर बैठकर मैं उसको बख़ूबी देख सकता था। चुनांचे दरख़्तों की जड़ों और झाड़ियों का सहारा लेकर मैंने ऊपर चढ़ना शुरू किया। रास्ते में दो-तीन बार मेरा पांव फिसला और नुकीले पत्थरों पर गिरते-गिरते बचा।
टीले पर जहां पत्थर नहीं था, कहीं-कहीं ज़मीन के छोटे-छोटे टुकड़ों में आलू बोए हुए थे। इसी क़िस्म के एक नन्हे से खेत को तय करके मैं एक पत्थर पर बैठ गया और टोपी उतारकर एक तरफ़ रख दी। मेरे दाएं हाथ को ज़मीन का एक छोटा-सा टुकड़ा था जिस में गंदुम उग रही थी।
चढ़ाई की वजह से मेरा दम फूल गया, मगर शाम की ठंडी हवा ने ये थकान फ़ौरन ही दूर कर दी। और मैं जिस काम के लिए आया था, उस में मशग़ूल हो गया।
अब वो झोपड़े की छत पर खड़ी थी और ख़ुदा मालूम वो कैसी-कैसी अनोखी आवाज़ें निकाल रही थी। मेरा ख़़्याल है कि वो उन दोनों बकरियों को सड़क पर चढ़ने से रोक रही थी, जो घास चरती हुई आहिस्ता-आहिस्ता ऊपर का रूख़ कर रही थीं।
हवा तेज़ थी, गंदुम के पके हुए ख़ोशे ख़ुर ख़ुर करती हुई बिल्ली की मोंछों की तरह थरथरा रहे थे। झाड़ियों में हवा की सीटियां शाम की ख़ामोश फ़िज़ा में शोर पैदा कर रही थीं।
मिट्टी के ढेलों के साथ खेलता हवा में उसकी तरफ़ बहुत देर तक देखता रहा। वो अब झोपड़े पर बड़े अजीब अंदाज़ से टहल रही थी। एक मर्तबा इसने अपने सिर को जुंबिश दी। तो मैं समझा कि वो मेरी मौजूदगी से बा-ख़बर… मुझे देख रही हैै… मेरी हस्ती के सारे दरवाज़े खुल गए।
जाने कितनी देर मैं वहां बैठा रहा?.. एकाएक बदलियां घिर आईं और बारिश शुरू हो गई। मेरे कपड़े भीग रहे थे, लेकिन मैं वहां से क्योंकर जा सकता था, जबकि वो… वहीं छत पर खड़ी थी। इस ख़़्याल से मुझे बड़ी मुसर्रत हासिल हुई कि वो सिर्फ़ मेरी ख़ातिर बारिश में भीग रही है।
यकायक बारिश तेज़ हो गई। वो उठी और मेरी तरफ़ देखे बग़ैर… हाँ, मेरी तरफ़ निगाह उठाए बग़ैर छत पर से नीचे उतरी और दूसरे झोपड़े में दाख़िल हो गई… मुझे ऐसा महसूस हुआ कि बारिश की बूंदें मेरी हड्डियों तक पहुंच गई हैं।
पानी से बचाव करने के लिए मैंने इधर-उधर निगाहें दौड़ाई । मगर पत्थर और झाड़ियां पनाह का काम नहीं दे सकती थीं।
डाक बंगले तक पहुंचते-पहुंचते मेरे कपड़े और ख़यालात सब भीग गए… जब वहां से सैर को निकला था, तो एक ख़ुश्क आदमी था, रास्ते में मौसम ने शायर बना दिया। वापस आया तो भीगा हुआ आदमी था… सिर्फ़ भीगा हुआ… बारिश सारी शायरी बहा ले गई थी।

सआदत हसन मंटो

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Usha Gupta

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