नए शहर में व्यवस्थित होना तभी पूर्ण माना जाता है जब अच्छी कामवाली मिल जाए. सोनल की तलाश भी आख़िरकार पूरी हो ही गई.
घर की साफ़-सफ़ाई और बर्तन के लिए उसने चंदा को रख लिया. कम बोलनेवाली साफ़-सुथरी चंदा का काम बढ़िया था. आज तक उसे कभी भी टोकने की ज़रूरत नहीं पड़ी. बस उसकी एक ही आदत सोनल को अखर जाती थी. वह जब भी उसे खाने-पीने को कुछ देती वह न खाने का कोई न कोई बहाना बनाकर उसे पर सरका देती.
कभी कहती, “दीदी, छाला है मुंह में… कुछ निगला नहीं जा रहा…” कभी यूं ही बिना कुछ कहे खाने की वस्तु छोड़ जाती. दूसरे दिन पूछने पर चौंककर कहती, “अरे भूल गई थी खाना…” सोनल कभी सामने ही खाने को इसरार करती, तो वह साफ़ मना कर देती, “बहुत जल्दी में हूं दीदी…” कभी-कभी तो सीधे ही, “न दीदी मन नहीं, मीठा मुझे पसंद नहीं…”
हां, मीठी चाय के लिए उसकी कभी ‘न’ नहीं होती, पर साथ में मठरी या नमकीन प्लेट में निकालकर दो, तो एक बार भर नज़र देखकर बोलेगी, “खाली चाय ही दो दीदी, अभी तो खा नहीं पाऊंगी.”
चंदा के व्यवहार का विश्लेषण आज सोनल इसलिए भी कर रही थी, क्योंकि आज उसने सुबह नाश्ते में जलेबी मंगवाई. चंदा को भी थोड़ी-सी प्लेट में डालकर दी और वहां से हट गई की शायद सामने खाने में कुछ संकोच हो. कुछ देर बाद वह आई, तो देखा उसकी जलेबी वहीं रखी थी और वह काम करके जा चुकी थी.
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चंदा के व्यवहार से मन में चिढ़ के भाव उत्पन्न हुए तो सामने ऐसे कई प्रसंग घूम गए जब चंदा ने ऐसा किया.
याद आया जब एक बार उसे प्लेट में हलवा दिया, तो वह उस पर नज़र डालकर बोली, “दीदी, अभी मन नहीं है. दरअसल घर से खाकर आई हूं.”
फिर एक दिन जब मेरठवाली जीजी आईं, तो प्लेट में मिठाई निकालते समय ध्यान दिया कि चंदा की नज़र मिठाई पर रह-रहकर लगी थी. उसने मिठाई का एक टुकड़ा, “ये तुम्हारे लिए है… खा लेना.” कहकर स्लैब पर रख दिया, पर मिठाई का टुकड़ा वैसे ही अछूता रखा रहा.
सोनल को वह दिन भी याद आया, जब एक दिन वह खीर बनाकर हटी ही थी कि चंदा आ गई.
खीर का बर्तन खाली करते हुए उसके लिए जरा-सी खीर कटोरी में डालकर जरा ज़ोर से उसने कहा, “खा लेना चंदा. हमेशा की तरह छोड़ न देना.”
तब वह सकपका कर अपनी नज़रें झुकाते हुए बोली, “दीदी, आज बहुत जल्दी है. टाइम नहीं है खाने का…” कहती हुई वह फुर्ती से काम करने लगी.
“दीदी जाऊं…” चलते समय उसने सोनल से पूछा, तो वह चिढ़कर बोली, “हां इसमें पूछना क्या है. काम हो गया तो जा…” यह सुनकर वह सिर झुकाए निकल गई.
उसके लिए कटोरी में निकाली खीर को उपेक्षित पड़ा देख मन खिन्न हो गया था. ख़ुद पर कोफ्त हुई कि क्यों उसे खाने को कुछ देती है. मन ने तुरंत चुगली की कि क्यों वह उसे खाने को देती है… मन में गहरे बैठा था कि जब भी कुछ अच्छा बने, तो थोड़ा/सा इन्हें भी दे दो, तो शरीर मे लगता है… इसी के चलते चाहे न चाहे वह देनेवाली आदत से बाज न आ पाती.
पर आज तो पानी सिर से ऊपर चला गया था. गर्म-गर्म जलेबी छोड़ गई. उसने सोच लिया कि अब वह कभी भी उसे खाने को न कुछ देगी न पूछेगी. महीना-डेढ़ महीना बीत गया. चाहे मेहमान आएं या कोई तीज-त्योहार पड़े वह भूलकर भी चंदा को खाने को कुछ नही देती.
तभी एक दिन सोनल लड्डू बनाने के लिए बेसन भून रही थी. उस समय चंदा अपनी चार साल की बेटी को लेकर आई.
“दीदी, आज इसकी छुट्टी थी सो साथ लाना पड़ा.” सोनल के कुछ पूछने के पहले ही उसने सफ़ाई दी और अपनी बेटी को बालकनी में बैठाकर काम पर लग गई.
बेसन की सोंधी खुशबू पूरे घर में फैलने लगी, तो चंदा की नन्ही बिटिया चंदा से बोली, “कित्ती अच्छी ख़ुशबू है न…”
झाड़ू लगाती चंदा ने अपनी बिटिया को झट से घुड़का. यह दृश्य ओपन किचन से सोनल को साफ़ दिखा.
चंदा का काम निबटते-निबटते बेसन में चीनी-घी सब पड़ गया था, बस लड्डू बांधने बाकी थे.
चंदा अपनी बिटिया के साथ जाने को हुई, तो सोनल से रहा नही गया और पूछ बैठी, “तुझे बुरा न लगे, तो इसके लिए दो लड्डू बांध दूं, खा लेगी.”
यह सुनकर चंदा के चेहरे पर चमक आ गई, “बुरा क्यों लगेगा दीदी. बांध दीजिए.” सकुचाते हुए उसने कहा और आराम से बैठ गई.
आशा के विपरीत मिले जवाब पर सोनल हैरान रह गई. हां में जवाब मिलते ही उसने जल्दी-जल्दी बड़े-बड़े दो लड्डू बांधकर उसे प्लेट में डालकर दिए, तो वह जल्दी-जल्दी अपनी बिटिया को खिलाने लगी.
“मुझे मीठा पसंद नहीं दीदी…” कहनेवाली चंदा बीच-बीच में ख़ुद भी लड्डुओं का स्वाद चखती रही.
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उस दिन के बाद से सोनल ने कभी नहीं कहा, “चंदा ये खा लो.”
वह हमेशा पैकेट में डालकर उसे पकड़ाते हुए कहती, “ये लो चंदा, जब फ़ुर्सत हो खा लेना.” और आश्चर्य था कि वह भी थैली लपक लेती और कृतज्ञता भरे भाव से उसका अंतस भिगो देती.
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