“सुनो बड़ी बहू मालती मामी का फोन आया है. अगले हफ़्ते उनकी बहू की गोदभराई की रस्म है, तो हम सभी को बुलाया है. कह रही थी कि भतीजे की शादी के बाद से आप आयी नहीं, इस बार सबको आना है.” सुनीताजी बोलीं.
“अगले हफ़्ते! पर मम्मीजी अगले हफ़्ते तो बच्चों की वार्षिक परीक्षाएं हैं, तो मैं कैसे जा पाऊंगी. आप सब चले जाइएगा और निधि (देवरानी) को भी ले जाइए. इस बार दो साल हो गए शादी को पर अभी तक गयी नहीं मामी के यहां.”
“हां, ठीक है छोटी बहू को ही ले जाती हूं.
छोटी बहू…” सुनीताजी आवाज़ लगाती हैं.
“जी मम्मी!”
“सुनो छोटी बहू, अगले हफ़्ते मालती मामी के यहां चलना है, तो तुम अपनी तैयारी कर लेना और सुनो उनके यहां चलना तो लंबा घूंघट लेना!
मेरे मायके में सारी बहुएं घूंघट करती हैं. तुमसे तो ढंग से सिर पर पल्लू भी नही लिया जाता. हरदम माथा उघाड़े पूरे घर में घूमती रहती हो. ना ससुर का लिहाज है, ना ही जेठ का. सास की तो कोई गिनती ही न है. समझा-समझा कर थक गयी हूं कि ससुराल मे बड़ों के सामने घूंघट लिया करो. उनका सम्मान होता है, मगर नहीं तुम्हें तो अपनी मनमर्जी करनी है.
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बड़ी बहू को देखो, आज भी सिर से पल्लू ना सरकता उसका और एक ये महारानी है कि सिर पर पल्लू टिकता ही नहीं है. हुंह!..” सुनीताजी का पल्लू पुराण एक बार फिर चालू हो गया और निधि अपना पल्लू संभालती हुई, “जी मम्मी…” कहती हुई फिर अपने काम में लग गयी.
गोदभराई के दिन सभी जाने के लिए तैयार हो गए थे. निधि भी तैयार हो आ गयी थी. सुनीताजी ने उसे देखा और उसका पल्लू थोड़ा और लंबा कर दिया.
“हां, अब ठीक है. कम से कम होंठ तक तो घूंघट करना ही, मुंह नही दिखना चाहिए समझी, सबके सामने नाक न कट जाए.”
“जी मम्मी.”
“चलो अब.”
खैर सुनीताजी सपरिवार मायके पहुंची.
पर वहां पहुंचकर तो वे हैरान रह गयीं. उनकी भतीजा-बहू जिसकी गोदभराई थी, वो तो स्लीवलेस ब्लाउज़ और नेट की ख़ूबसूरत सी ओपन पल्लू साड़ी पहने सबसे हंस-हंसकर बातें कर रही थीं. घूंघट की तो बात छोड़ों सिर पर भी पल्लू न था.
सुनीताजी को आया देख मामा-मामीजी पास आकर उनके चरण स्पर्श कर बोले, “आइए दीदी, चलकर बहू को आशीर्वाद दीजिए.”
“हुंह… बहू है कहां वो तो मॉडल बनी घूम रही है. मालती तूने बहु को ज़्यादा ही सिर पर चढ़ा रखा है न कोई पल्लू न घूंघट. भले घर की बहुएं ऐसे रहती हैं भला! बड़े-बुज़ुर्ग का कोई सम्मान ही नहीं. तू तो कितना लंबा घूंघट करती थी याद है ना!..”
“दीदी, आप भी किस ज़माने की बात कर रही हैं. हमारा समय अलग था, अब समय अलग है. और फिर सम्मान सिर्फ़ घूंघट लेने से ही नहीं होता, सामनेवाले की नज़र में होता है. उसके व्यवहार में झलकता है. देखिए ना मेरी बहू कितनी ख़ुश है. चलिए बहू को आशीर्वाद दीजिए.”
“हां, तुम चलो हम आते हैं. छोटी बहू, तुम भी घूंघट हटा दो जब कोई भी बहू ना की है, तो तुम भी मत करो.”
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“नहीं मम्मीजी, मैं घूंघट नहीं हटाऊंगी ये क्या बात हुई कि कोई ना किए है, तो मैं भी हटा दूं. मै घूंघट करके ना आई होती, तो बात अलग थी. अब जब मैं यहां आ गयी हूं, तो सबको देखकर मैं भी घूंघट हटा दूं ये मुझसे ना होगा. मैं ऐसे ही ठीक हूं.”
“तूने तो सास की बात ना मानने की क़सम खा रखी है.”
सुनीताजी बोली.
फिर निधि पूरे फंक्शन में घूंघट किए रही और सुनीताजी मुंह फुलाए रही कि छोटी बहू ने फिर उनकी बात ना मानी.
– रिंकी श्रीवास्तव
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