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कहानी- मुट्ठी में आकाश (Short Story- Mutthi Mein Aakash)

रोहन की आंखों में चाहत के सितारे झिलमिला रहे थे. उसकी छुअन और प्रणय निवेदन से सुनंदा के शरीर में सिहरन दौड़ गई. इससे पहले कि उस मीठी सिहरन से वह मदहोश होती, अतीत की कटु स्मृतियों ने उसकी चेतना को जगा दिया. वह बोली, “रोहन, तुम जानते हो. हम दो बहनें हैं. हमारा कोई भाई नहीं है.”
“हां तो?” उसके चेहरे पर असमंजस के भाव थे.

एक माह पूर्व सुनंदा ने डिफेंस ऑफ कंट्रोलर एकाउंट्स के ऑफिस में ज्वॉइन किया था. उस दिन ऑफिस पहुंचकर उसने चपरासी को बुलाकर कहा, “सुरेश, ए एन 4 सेक्शन से एकाउंट्स ऑफिसर को बुलाओ.” सुरेश चला गया और वह अपने सामने रखी फाइल पढ़ने लगी. पांच मिनट पश्‍चात उसके कानों में आवाज़ आई, “मे आई कम इन.”
“येस.” कहते हुए सुनंदा ने ज्यों ही सिर उठाया, आगंतुक बुरी तरह चौंका, “सुनंदा तुम?” वह भी उसे देख कम हैरान नहीं थी, किंतु उसने स्वयं पर काबू पाते हुए कहा, “मिस्टर, क्या नाम है आपका?” कुछ क्षण की ख़ामोशी के पश्‍चात वह बोला, “पवन गुप्ता.”
“हूं… तो मिस्टर पवन गुप्ता, क्या आपको पता नहीं कि अपनी सीनियर अधिकारी को उसके नाम से नहीं, वरन् मैडम संबोधित करते हैं.” “ओह, आई एम सॉरी मैडम.” पवन का चेहरा बुझ गया.
सुनंदा बोली, “हेडक्वॉर्टर से मेल आया है. फाइनेंशियल एडवाइज़री की रिपोर्ट अभी तक पहुंची क्यों नहीं. जबकि उसकी लास्ट डेट निकल चुकी है. इसे भेजने का काम आपका ही है न.”
“जी मैडम, दरअसल पिछले माह मेरी दूसरी बेटी का जन्म हुआ है. बस तभी से लाइफ में कोई न कोई प्रॉब्लम चल रही है, जिसके चलते मुझे बार-बार छुट्टी लेनी पड़ती है.”
दूसरी बेटी कहते हुए जिस बेचारगी और मायूसी के भाव उसके चेहरे पर आए, उससे सुनंदा का मन वितृष्णा से भर उठा. वह रुखे स्वर में बोली, “देखिए, ऑफिस को आपकी पर्सनल प्रॉब्लम से कुछ लेना-देना नहीं है. दो दिन में यह रिपोर्ट मेरी टेबल पर पहुंचनी चाहिए. अब आप जा सकते हैं.”
शाम को सुनंदा घर लौटी. रोहन अभी तक नहीं आए थे. उसने चाय बनाई. कुछ सैंडविच लिए और निचले फ्लोर पर पहुंच गई मम्मी-पापा के पास. दरवाज़ा रोहन ने खोला, तो आश्‍चर्यचकित हो उठी, “अरे, आप यहां?”
“मम्मी-पापा के लिए फल लाया था. अभी तुम्हें फोन करने ही जा रहा था कि चाय बनाकर यहीं ले आओ. सब साथ पीएंगे.”

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उसका हृदय पुलक उठा. कितना ख़्याल रखते हैं रोहन मम्मी-पापा का, उसकी अपनी भावनाओं का. वह सोचती बाद में है और वह पहले ही हर काम पूरा कर देते हैं. इस विचार से उसकी आंखें भर आईं. रोहन उसके जीवन में ईश्‍वर की नेमत बनकर आए हैं, उसका रोम-रोम इस बात का साक्षी है. उस शाम देर तक वे दोनों मम्मी-पापा से बातें करते रहे. फिर खाना खाकर अपने फ्लैट पर आ गए. रोहन काफ़ी थक गए थे, इसलिए लेटते ही सो गए. किंतु उसकी आंखों में नींद नहीं थी. आज ऑफिस में यकायक उसका अतीत उसके सम्मुख आ खड़ा हुआ था. अतीत के वे पन्ने जिन्हें अपनी ज़िंदगी की किताब से वह फाड़कर फेंक चुकी थी, न जाने कहां से आकर उसकी आंखों के आगे फड़फड़ाने लगे.
उन दिनों वह एम.एससी फाइनल कर रही थी. उमंग-उत्साह से भरी वह अपने जीवन के आकाश में ऊंचाइयों के नए आयाम तय करना चाहती थी, तभी मम्मी की फ़िक्र ने उसकी उड़ान पर रोक लगा दी. वह हतप्रभ थी, “मम्मी, यह अचानक आपको मेरे विवाह की बात कहां से सूझ गई. आप तो प्रारंभ से ही लड़कियों के स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनने की हिमायती रही हैं.”
“सुनंदा, चाहती मैं भी हूं कि तुम आत्मनिर्भर बनो. किंतु हमारी समस्या को समझो. तुम्हारे पापा के रिटायर होने में चार वर्ष शेष हैं. उससे पहले हम तुम्हारे और नीतू दोनों के विवाह के दायित्व से मुक्त होना चाहते हैं. रही तुम्हारे आत्मनिर्भर बनने की बात तो तुम विवाहोपरांत टीचिंग कर लेना.”
उसने मम्मी के सुझाव को मान लिया. अब पापा ने उसके लिए लड़के की तलाश शुरू कर दी थी. एक दिन वे सब एक विवाह समारोह में गए थे. वहीं पवन और उसके परिवार से मुलाक़ात हुई. उनका रह-रहकर सुनंदा को प्रशंसात्मक दृष्टि से निहारना संकेत दे रहा था कि वह उन्हें पसंद है. चार दिनों बाद उन्होंने घर आकर इस बात की पुष्टि भी कर दी.


देखने में भले ही पवन साधारण था, किंतु उसके परिवार का ऊंचा स्टेटस, उसकी सौम्यता, और सबसे बढ़कर उसकी सरकारी नौकरी इस रिश्ते को स्वीकृत करने की बड़ी वजह थे. तीन-चार मुलाक़ातों में सुनंदा इतना तो जान गई कि पवन दिल का साफ़ और स्पष्टवादी था और सुनंदा को ऐसे लोग पसंद थे.
घर में ख़ुशियों के रंग बिखर गए थे. विवाह की तैयारियां शुरू हो गई थीं. दिनभर वह मम्मी के साथ विवाह की तैयारियों में व्यस्त रहती और रात में फोन पर पवन के साथ अपने भविष्य के सतरंगी स्वप्न बुनती. नीतू की भी अपने होने वाले जीजू से अच्छी दोस्ती हो गई थी.
घर में सभी प्रसन्न थे. उस समय कहां जानते थे कि अनहोनी दबे पांव उनकी ओर बढ़ रही है. एक सुबह चाय पीते हुए पापा के सीने में तेज़ दर्द उठा. सुनंदा ने तुरंत एम्बुलेंस बुलवाई और पापा को लेकर वे लोग हॉस्पिटल आ गए. पापा आईसीयू में एडमिट थे. उन्हें सीवियर हार्ट अटैक आया था. डॉक्टर उपचार में जुट गए थे. घबराहट और वेदना के कारण मम्मी के आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. सुनंदा उन्हें किसी तरह हौसला दे रही थी. यूं भी वह काफ़ी हिम्मती थी. ज़िंदगी में आई किसी भी विपत्ति में घबराई नहीं थी, किंतु इंसान को जब किसी अपने का कंधा नज़र आता है, तो सहारा पाने के लिए हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद उसकी ओर बढ़ जाते हैं.
सुनंदा ने भी पवन को फोन कर दिया. कुछ देर में वह हॉस्पिटल पहुंच गया. उसके आने से एक सुरक्षा का एहसास हुआ था मानो अब सब ठीक हो जाएगा. और सचमुच दो घंटे बाद पापा ख़तरे से बाहर आ गए थे. पवन ने उस दिन ऑफिस से छुट्टी ले ली थी. कैंटीन से कभी चाय, तो कभी स्नैक्स लाकर मनुहार करके वह सबको खिलाता रहा. उसका यह अपनत्व सुनंदा के मन को छू रहा था. पवन के साथ एक अदृश्य मज़बूत डोर से वह बंधती जा रही थी.
दो-तीन दिन तक पवन सुबह-शाम हॉस्पिटल आता रहा. फिर यकायक उसका आना बंद हो गया. बस फोन करके वह हालचाल पूछ लेता. वह हैरान थी. वजह पूछती, तो वह व्यस्तता की बात करता.


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दस दिन बाद पापा घर आ गए. एक शाम फोन करके पवन ने उसे समीप के कॉफी शॉप में बुलाया. वह पहुंची और उसके सम्मुख बैठ मुस्कुराते हुए उलाहना दिया, “कितनी एबसेंट लग गई हैं तुम्हारी, जानते हो? पापा-मम्मी, नीतू सभी याद कर रहे हैं. कल ही हाज़िर होने का फ़रमान ज़ारी किया है.”
वह एकटक उसका चेहरा देखता रहा. इतने में वेटर कॉफी रखकर चला गया. कॉफी पीते हुए उसने पापा का हाल पूछा, फिर बोला, “सुनंदा, आई एम सॉरी, मैं यह शादी नहीं कर सकता.”
सुनंदा को लगा मानो गरम कॉफी से उसके होंठ जल गए हों. उसने कप टेबल पर रख दिया. उसके होंठों से मुस्कुराहट विलुप्त हो गई और चेहरा विवर्ण हो उठा.
“ऐसा मज़ाक मत करो पवन.”
“यह मज़ाक नहीं, मैं सच कह रहा हूं.”
“मगर क्यों? ऐसी क्या विवशता आ गई?”
“तुम सुन नहीं सकोगी.”
“मुझमें हर बात सुनने का सामर्थ्य है. तुम बोलो.”
“सुनंदा, वजह सिर्फ़ इतनी है कि तुम दो बहनें हो. तुम्हारा कोई भाई नहीं है. कल को तुम्हारे पापा को कुछ हो गया, तो बड़ी बेटी होने के नाते सारा दायित्व हम दोनों पर आ जाएगा और मैं… मैं दो-दो परिवारों का दायित्व उठाने को तैयार नहीं हूं.” अप्रत्याशित रूप से कहे गए ये शब्द पिघले सीसे की तरह सुनंदा का हृदय चीरते चले गए. स्तब्ध सी वह उसे ताकती रह गई, फिर एक-एक शब्द पर ज़ोर देकर बोली, “रिश्ता लेकर तुम्हीं लोग हमारे घर आए थे न. क्या उस समय नहीं जानते थे कि मेरी बस एक छोटी बहन है, कोई भाई नहीं है.”
“जानता था किंतु तब इस कमी को महसूस नहीं किया था. इसके दूरगामी परिणामों के विषय में सोचा नहीं था.”
“हम्म… फिर तो पापा को हार्ट अटैक पड़ना तुम्हारे लिए वरदान साबित हुआ है. एक ग़लत निर्णय लेने से बच गए तुम. विवाह के पश्‍चात अगर यह हार्टअटैक पड़ता, तो क्या करते तुम? मुझे छोड़ देते?” पवन उसकी नज़रों की ताब सह न सका और दूसरी ओर देखने लगा. एक नफ़रतभरी निगाह उस पर डालते हुए वह उठ खड़ी हुई, “थैंक्यू पवन, अच्छा हुआ जो विवाह पूर्व तुम्हारे चेहरे से यह सौम्यता का नकाब उठ गया. मैं भी तुम्हारे जैसे नपुंसक इंसान के साथ जुड़ने से बच गई. तुम लड़कियों को अभिशाप समझते हो न, तो ईश्‍वर से प्रार्थना करना, तुम्हारे घर में कभी कोई बेटी जन्म न ले.” हृदय में नफ़रत, क्रोध, अपमान और पीड़ा का तूफ़ान समेटे वह घर लौट आई. किंतु घर में उसने किसी को इस तूफ़ान का एहसास नहीं होने दिया. पापा अभी कमज़ोर हैं, इस आघात को सह नहीं पाएंगे. यही भाव मन में रखे वह पवन को लेकर न जाने कितने बहाने बनाती रही, किंतु कब तक? पापा-मम्मी की अनुभवी आंखों को हवाओं के बदले रुख का अंदाज़ा हो ही गया.
सब कुछ जानकर मम्मी बोलीं, “रिश्ता टूटने से बहुत बदनामी होगी सुनंदा. हम लोगों को क्या मुंह दिखाएंगे. तुम पवन को बुलाओ. मैं उससे बात करूंगी. किसी भी स्थिति में हम उस पर कभी कोई बोझ नहीं डालेंगे.”
वह तड़प उठी, “लोगों के भय से आप मेरा विवाह ऐसे व्यक्ति के साथ कर देंगी, जो मेरे परिवार को बोझ समझ रहा हो. क्या उसके साथ मैं प्रसन्न रह पाऊंगी? आप दोनों ने इतने कष्ट सहकर हमारी परवरिश की और आज जब कर्तव्य निभाने की बारी हमारी आई, तो हम पीछे हट जाएंगे, क्योंकि हम बेटियां हैं. नहीं मां. ऐसे व्यक्ति से विवाह करने से अविवाहित रहना बेहतर है. अच्छा, सच-सच बताइएगा, क्या आपको कभी अफ़सोस हुआ कि आपका बेटा नहीं, दोनों बेटियां हैं?”
“नहीं कभी नहीं. मैंने तो दोनों डिलीवरी के समय ईश्‍वर से यही प्रार्थना की थी कि बेटी हो या बेटा, जो भी हो बस स्वस्थ हो.”
“फिर मैं क्यों इसे अपने परिवार की कमी समझूं?”
“सुनंदा ठीक कह रही है इंदु. ऐसी घटिया सोच वाले इंसान से मैं अपनी बेटी का विवाह हरगिज़ नहीं करूंगा.” पापा बोले.
उस पूरी रात वह विचारों के भंवर में डूबती-उतराती रही और अंतत: उसने फ़ैसला कर लिया. सुबह नाश्ते की टेबल पर मम्मी ने पापा से कहा, “सुनंदा के लिए कोई और लड़का देखिए.”


“नहीं मम्मी, बस अब और नहीं. मैंने फ़ैसला कर लिया है. मैं सिविल सर्विसेज़ का एग्ज़ाम दूंगी. जीवन में बड़ा मुक़ाम हासिल करूंगी, ताकि फिर कभी कोई कह न पाए कि इस परिवार में बेटा नहीं है.”
“बिल्कुल ठीक दीदी, मैं भी अब मेडिकल की तैयारी करूंगी.” नीतू चहक कर बोली.
“अरे, तुम दोनों मनमानी मत करो. यह तो सोचो, तुम्हारे पापा रिटायर…”
“बस इंदु.” पापा ने टोका, “मुझमें अपनी बेटियों को पढ़ाने का सामर्थ्य है. बच्चों को अपने जीवन का ़फैसला स्वयं करने दो. उन्हें अपने पंखों को आज़माने दो. अगर हौसला हो, दिशा सही हो, तो इंसान की मुट्ठी में आकाश भी समा जाता है.”
बस उसी दिन से सुनंदा सिविल सर्विस की तैयारियों में जुट गई. प्रखर बुद्धि की स्वामिनी तो वह पहले से ही थी, अब जब कामयाबी पाने का जुनून उसके सिर चढ़कर बोला, तो सफलता का मार्ग स्वयं प्रशस्त होता चला गया. प्रथम प्रयास में ही इतनी बड़ी कामयाबी से घर में सभी आह्लादित थे.
समय से सुनंदा ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद पहुंच गई. इतना बड़ा ख़ूबसूरत कैंपस और विभिन्न प्रांतों से आए ट्रेनीज़. कुल मिलाकर वहां का माहौल ख़ुशनुमा था. एक दिन वह फूड कोर्ट में लंच कर रही थी, तभी उसे पीछे से किसी ने पुकारा. सुनंदा मुड़ीे, तो अपने कॉलेज के साथी रोहन को देख एक सुखद आश्‍चर्य में डूब गई. वह बोला, “तुमने कभी बताया नहीं था कि तुम सिविल सर्विस में जाना चाहती हो.”
“कभी-कभी ज़िंदगी के बड़े फैसले अचानक लिए जाते हैं.” वह मुस्कुराई.
“याद है, कॉलेज में फर्स्ट पोज़ीशन को लेकर हम दोनों के बीच कितनी खींचतान रहती थी. मेरा एक भी नंबर ज़्यादा आ जाए, तो तुम्हारी यह नाक कैसे फूल जाती थी.” उसने सुनंदा की नाक पकड़कर ज़ोर से हिलाई, तो वह खिलखिला कर हंस पड़ी.


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रोहन उसे अपलक निहारने लगा, “यार, तुम तो पहले से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत हो गई हो.” उसके गाल आरक्त हो उठे. नज़रें शर्म से झुक गईं.
धीरे-धीरे उनकी दोस्ती प्रगाढ़ होने लगी. जब दो लोगों के बीच सामंजस्यता हो, स्वभाव और सपने एक हों, तो अपनत्व की कोंपल स्वत: फूटने लगती है.
उन्हीं दिनों रोहन चार दिनों के लिए अपनी बहन के विवाह में गया. उस समय कितनी व्याकुल थी वह. रोहन से मिलने की तड़प ने उसे एहसास कराया कि अपनत्व की ये कोंपल प्रेम के नन्हे पौधों में बदल चुकी थीं.
शनै: शनै: एक साल बीत गया. अगली सुबह सभी ट्रेनीज़ को अपने शहर लौट जाना था. उस शाम वह और रोहन पार्क की बेंच पर बैठे थे. यकायक रोहन ने उसका हाथ थाम लिया और भावुक स्वर में बोला, “सुनंदा, मैं तुमसे प्यार करता हूं. जीवनभर के लिए तुम्हारा साथ पाना चाहता हूं. मुझसे शादी करोगी?”
रोहन की आंखों में चाहत के सितारे झिलमिला रहे थे. उसकी छुअन और प्रणय निवेदन से सुनंदा के शरीर में सिहरन दौड़ गई. इससे पहले कि उस मीठी सिहरन से वह मदहोश होती, अतीत की कटु स्मृतियों ने उसकी चेतना को जगा दिया. वह बोली, “रोहन, तुम जानते हो. हम दो बहनें हैं. हमारा कोई भाई नहीं है.”
“हां तो?” उसके चेहरे पर असमंजस के भाव थे. तब सुनंदा ने अपने अतीत को बयां करते हुए आवेश में कहा, “स्त्री के लिए सास-ससुर की सेवा करना उसका कर्तव्य है, तो पुरुष के लिए क्यों नहीं? सभी अपेक्षाएं स्त्री से ही क्यों की जाती हैं?”
रोहन ने स्नेह से उसके हाथ को थपथपाकर कहा, “भूल जाओ उन व्यर्थ की पुरातनपंथी बातों को. मैं बस एक बात जानता हूं कि स्त्री तभी अपनी ससुराल के प्रति समर्पित होगी, जब उसका और उसके रिश्तों का सम्मान किया जाएगा. सुनंदा, विवाह के बाद कुछ भी मेरा या तुम्हारा नहीं रह जाता, सब कुछ हमारा होता है. पति-पत्नी का मात्र शरीर ही नहीं मन भी एकाकार होना चाहिए.”
उसने भावविह्वल हो रोहन के कंधे पर सिर रख दिया. फिर तो दिन पंख पखेरु से उड़ने लगे. कब दोनों की एक ही शहर में पोस्टिंग हुई, कब विवाह हुआ, पता नहीं चला. नीतू मेडिकल करने आगरा चली गई थी, इसलिए रोहन जबरन मम्मी-पापा को यहीं ले आए और अपनी बिल्डिंग में फ्लैट दिलवा दिया.
सोचते-सोचते सुनंदा नींद के आगोश में समा गई. अगली सुबह वह ऑफिस पहुंची. पार्किंग में कार खड़ी करके वह निकली ही थी कि पवन वहां आ गया. झिझकते हुए वह बोला, “मुझे क्षमा कर दो सुनंदा. मैंने तुम्हारे साथ कितना ग़लत किया. आज जब मेरी दो बेटियां हुईं, तब मुझे समझ आया.”
“क्षमा किस बात की? मैं तो तुम्हारी बेहद शुक्रगुज़ार हूं. तुम्हारी वजह से ही आज मैं अपनी ज़िदगी के इस मुक़ाम पर पहुंची हूं और रोहन जैसे सुलझे हुए और काबिल व्यक्ति की जीवनसंगिनी हूं.” कहकर सुनंदा अपने केबिन की ओर चल दी. पवन ठगा सा उसे जाता देखता रहा.

रेनू मंडल


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Usha Gupta

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