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कहानी- नया अनुबंध (Short Story- Naya Anubandh)

पहले-पहले शीशे के सामने खड़ी होकर, वह अपनी मनोदशा पर ख़ुद ही हंस पड़ती. उस रात देवेश ने यही समझाया था, ‘तुम बंध जाती हो, गैरज़रूरी बंधनों में. हर व्यक्ति को राय दो, पर उसके साथ अनावश्यक भावुकता मत जोड़ो. थोड़ा साइंटिफिक तरीके से भी सोचा करो. आज के युग की सोच क्लीयर कट है. जो सामने है, वही है. उससे बाहर कुछ भी नहीं.”

नाश्ते की मेज़ पर इंतज़ार करते पतिदेव को जल्दी से नाश्ता परोसकर सविता घर के दूसरे कामों में व्यस्त हो गई और जल्दी-जल्दी काम ख़त्म हो, इसी चिंता में इधर से उधर भागदौड़ करते देख आख़िरकार देवेश ने उसकी बेचैनी का कारण पूछ ही लिया, “अरे भई, क्या बात है? आज बड़ी जल्दी में हो, फ्रंटियर मेल की तरह भागती फिर रही हो.” जल्दबाज़ी में सविता ने जवाब दिया, “कल रात बताया तो था. आज मेरी दूरदर्शन पर गाने की रिकॉर्डिंग है.”

“अरे! हां याद आया. सॉरी, सचमुच मैं तो भूल ही गया था. मुबारक़ हो…” सविता ने तैयार होते हुए मुस्कुराकर कहा, “मुबारक़बाद बाद में देना, पहले मुझे दूरदर्शन केंद्र छोड़ दो.” देवेश ने उठते हुए जवाब दिया, “क्यों नहीं श्रीमतीजी?”

सविता के मन में ख़ुशी भी थी और घबराहट भी, क्योंकि आज उसकी टीवी पर पहली रिकॉर्डिंग है.  देवेश ने पहले उसे गाड़ी से उसके गंतव्य तक छोड़ा और फिर अपने ऑफ़िस चले गए. रिकॉर्डिंग बहुत अच्छी हुई. सभी ने ख़ूब तारीफ़ की.

सुप्रभात की नवबेला में आकाश पर लालिमा छाई थी. सूर्य आंखें खोल इठलाकर अंगड़ाई ले रहा था. उसी अंगड़ाई के साथ बालकनी में खड़ी सविता ने भी ज़ोरदार अंगड़ाई ली. उसकी इस अंगड़ाई को कोई अपलक निहार रहा था, जिसका उसको आभास तक नहीं था. 

सामने के मकान में भी कुछ दिन से चहल-पहल शुरू हो गई थी. एक नया परिवार कुछ दिन पहले ही श़िफ़्ट हुआ था, जिसमें दो बहनें, कई भाई, बहुएं, माता-पिता सभी एक साथ रहते थे. संयुक्त परिवार था उनका, जहां दस-बारह लोग एक साथ रहते थे. उन्हें देखकर इस बात की ख़ुशी होती है कि साथ रहते बर्तनों की खनक-ठनक के बावजूद ये लोग ठहाके लगाकर हंसना भूले नहीं थे.

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सविता ने देखा कि एक बहू डोलची लिए दूध लेने जा रही थी. स़फेद बालों वाली एक बुज़ुर्ग महिला तुलसी की जड़ों में पानी देकर पूजा-अर्चना कर उसी छत पर प्रणाम कर रही थी, तभी दरवाज़े की तेज़ आवाज़ से सविता का ध्यान उस आवाज़ की ओर खिंच गया. उसने देखा कि एक नवयुवक दरवाज़े के पास खड़ा सामनेवाले मकान से एकटक उसी की तरफ़ देखे जा रहा है.

 सविता ने मन में सोचा कि वह तो उस उम्र को पार कर चुकी है, जब किसी नवयुवक से नज़रें चार हों. उसने वहां से नज़रें हटाईं और अंदर चली गई. अपनी दिनचर्या के कामों में व्यस्त हो गई. ज़ाहिर है शाम तक वह उस युवक को भूल चुकी थी.

बाहर अंधेरा छाने लगा था और सड़क पर लगी बत्तियां टिमटिमाने लगी थीं. रसोई से उम्दा खाने की ख़ुशबू आ रही थी. देवेश भी ऑफ़िस से आकर आराम कुर्सी पर सुस्ताते हुए अख़बार के पन्ने उलटने में व्यस्त थे. शायद खाना बनने का इंतज़ार कर रहे हों, तभी रसोई से हाथ पोंछती हुई सविता बाहर आई. बरामदे की तरफ़ का जालीवाला दरवाज़ा बंद करने के लिए गई और सामने वाले मकान में बच्चों का शोर सुनकर उधर देखा तो खिड़की के पीछे दो बड़ी-बड़ी खोजती हुई आंखें उसे देखे जा रही थीं. एक बार को तो लगा शायद भ्रम हो, लेकिन ऐसा नहीं था.

वैसे वह नवयुवक था तो आकर्षक- लंबा क़द, ख़ूबसूरत चेहरा, गठीला जिस्म, मनमोहक आंखें. किसी हीरो से कम नहीं लगता था. लेकिन वो उसमें क्या खोज रहा था? वहां तो कुछ आकर्षण का केंद्र नहीं. लड़का और लड़की बड़े थे. दोनों ही बाहर हॉस्टल में पढ़ रहे थे. घर में तो सविता और  उसके पति ही रहते थे. ज़ाहिर है उन दोनों में ऐसी कोई बात नहीं, जो एक अजनबी में खोजबीन की रुचि जगाए.

कहीं ये उसके मन का वहम न हो. अपना शक दूर करने के लिए वह जालीवाले दरवाज़े के पीछे आड़ में छिपकर खड़ी हो गई. हो सकता है, वह नवयुवक दाएं-बाएं किसी  ख़ूबसूरत लड़की के चक्कर में खोजती हुई नज़रें घुमा रहा हो, लेकिन नहीं. वो तो बराबर इसी तरफ़ घूरे जा रहा था.

उस रात सविता को बड़ा विचित्र-सा एहसास हुआ… उम्र के चालीस वसंत पार करने के बाद भी कोई 28-30 साल का नवयुवक उसमें रुचि ले, ऐसा तो वह कभी सोच भी नहीं सकती थी और ऐसी ग़लतफ़हमी पालने का शौक़ भी नहीं था उसे. ‘हो न हो, ज़रूर ये मेरा प्रशंसक रहा होगा. दूरदर्शन पर गाते हुए सुना होगा, सोचा होगा बधाई दे दूं.’ सविता ने अपने मन में ये ठोस तर्क गढ़ा.

वैसे सविता गृहिणी थी. गाने के शौक़ के साथ लेखन में भी रुचि रखती थी. वह ये मानकर चलती थी कि बच्चे बड़े होने के बाद हरेक व्यक्ति को अकेलापन भुगतना पड़ता है. अचानक सविता में भी उस युवक के प्रति रुचि जागृत होने लगी कि आख़िर वह चाहता क्या है? कौन है? शादीशुदा या कुंवारा?.. चलो हटो भी, उसे क्या?

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कुछ दिन के लिए सविता ने पड़ोस के घर से नज़रें और रुचि दोनों हटा लीं. दीवाली की छुट्टियों में बच्चे घर आए तो सविता अपने भरे-पूरे संसार में लौट आई. बच्चों के साथ इधर-उधर घूमना, उनकी फ़रमाइशों के बीच पूरा सप्ताह कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला. देवेश को बच्चों के साथ घुल-मिला देख सविता ने सोचा सचमुच घर में अकेले पत्नी के साथ कितने दिन चहका जा सकता है.

छुट्टियां समाप्त होने पर बच्चे जाने लगे. बालकनी में खड़ी बेटे राजेश का सूटकेस संभालते हुए सामने सड़क पर स्टार्ट करते स्कूटर की आवाज़ की तरफ़ ध्यान खिंच गया तो बाहर देखा, अरे यह तो वही पड़ोसी है. सविता की दृष्टि कुछ पल के लिए उसके चेहरे पर रुकी, जैसे कहना चाहती हो, ‘देखो, यह मेरा बेटा है. क़द-काठी में कुछ ही सालों में तुम जैसा हो जाएगा.’ मातृत्व के एहसास के साथ उसने राजेश के कंधे पर हाथ रखा. ‘अपनी हदें पहचानो नवयुवक. हमारी उम्र और प्रतिष्ठा इस नटखट ताक-झांक की नहीं, समझे.’ आंखों से कह दिया ये सब.

राजेश के साथ गरिमा भी चली गई वातावरण में आई चहक-महक को साथ लेकर. बच्चों के जाने के बाद मन दोहरे अकेलेपन में भटकने लगा. देवेश कहते कि ‘इसमें अकेलेपन की क्या बात है? यह तो तुम्हारी मन:स्थिति है. तुम अपनी सोच को जो दिशा देना चाहो, दे सकती हो. तुम्हारा मन भी उसी के अनुरूप काम करेगा. अकेलापन देखो तो कहां नहीं है? फ़र्क़ स़िर्फ इतना है कि कोई बूढ़ा होकर अकेला हो जाता है, कोई थोड़ा पहले. इस सच्चाई को मन से स्वीकारो तो तकलीफ़ नहीं होती.’

लेकिन इन सबसे सविता इतनी आसानी से मुक्त नहीं हो पाती. अकेले में फिर से उस पड़ोसी युवक के संदर्भ में सोचने लगती, लेकिन कौन, कब, बिना कारण, बिना चेतावनी दिए तुम्हारे भीतर जगह पा जाता है, इसका आभास, उस घटना के बाद ही होता है. सविता के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ.

धीरे-धीरे खाली कोना भरे जाने की-सी अनुभूति, मन के भीतर एक तीव्र संवेदना जन्म लेने लगी. फिर से चहकती आवाज़ों से घिरने लगी. हर समय दो भावपूर्ण खोजती आंखें उसे घेरे रहतीं. मन में उथल-पुथल होने लगी. वह सोचती, ‘अरे सविता यह बैठे-बिठाए कौन-सा रोग लगा बैठी, ये किशोरियों की-सी बेचैनी, हर आहट पर चौंकना, धत्!’

पहले-पहले शीशे के सामने खड़ी होकर, वह अपनी मनोदशा पर ख़ुद ही हंस पड़ती.

उस रात देवेश ने यही समझाया था, ‘तुम बंध जाती हो, गैरज़रूरी बंधनों में. हर व्यक्ति को राय दो, पर उसके साथ अनावश्यक भावुकता मत जोड़ो. थोड़ा साइंटिफिक तरीके से भी सोचा करो. आज के युग की सोच क्लीयर कट है. जो सामने है, वही है. उससे बाहर कुछ भी नहीं.”

उस नवयुवक की अंतर्भेदी नज़रों ने तो पहले ही सविता के दिल में एक मीठी-सी चुभन पैदा कर दी थी, जो उसे सालती रहती थी. एक बार तो सोचा डांट दूं. एक ग़ुस्से भरी निगाहों से उस युवक को देखा, तो वह मंद-मंद मुस्कुरा दिया.

‘लो, सरकार तो दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं. अरे भई, हम लोग विशुद्ध भारतीय हैं. स्त्री-पुरुष की मित्रता को सहज रूप से स्वीकार करना हमारे लिए पारे को मुट्ठी में बंद करने जैसा कठिन काम है. फिर अपने यहां दोस्ती का ठोस कारण चाहिए. तुम्हारे पास है कोई ठोस कारण..?’

कारण जानने की इच्छा में एक दिन सड़क पर आमना-सामना हो ही गया.  सविता ने बड़ी शालीनता से कहा, “हैलो, आपका शुभ नाम?” बड़े ही सहज भाव से उसने जवाब दिया, “मुझे सुदर्शन कहते हैं.” 

 “मैं आपसे बात करना चाहती थी, यह मेरा फ़ोन नंबर है.” काग़ज पर लिखा फ़ोन नंबर सविता ने उसके हाथ में थमा दिया. इसके आगे जो भी सोचकर गई थी, कुछ न कह सकी. सीधे घर पर निमंत्रण देना ठीक नहीं समझा.

ग्यारह बजे फ़ोन की घंटी बजी. सविता ने फ़ोन उठाया, “मैं सुदर्शन बोल रहा हूं.”

“और मैं सविता बोल रही हूं.” मैंन अपना पहला परिचय दिया और फिर उसने.

“मैं इंकम टैक्स अधिकारी हूं. संयुक्त परिवार में रहता हूं और अभी बैचलर हूं.” उस युवक की उम्र के बारे में सविता का अंदाज़ा सही निकला. इस तरह फ़ोन पर बातों का सिलसिला शुरू हो गया और संभ्रांत ढंग से दोस्ती की शुरुआत भी हो गई.

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बातों-बातों में एक दिन सविता ने कहा, “मेरी मानो तो कोई अच्छी-सी लड़की ढूंढ़कर शादी कर लो, तुम्हें एक साथी की ज़रूरत है.” सुदर्शन हंस पड़ा.

“या जीवन भर ब्रह्मचारी रहने का इरादा है?” उसने सुदर्शन के मन को टटोला.

सुदर्शन ने कहा, “नहीं, शादी करूंगा, लेकिन आपकी दोस्ती भी चाहता हूं.” सविता को सुदर्शन का इस तरह साफ़ कहना अच्छा लगा. मन में सोचा ‘ठीक है दोस्ती कोई अपराध तो नहीं.’

इस तरह दोनों की दोस्ती का दायरा बढ़ता गया. सविता अकेलेपन की खाई से निकलकर नई दोस्ती की अनुभूति के सागर में गोते लगाने लगी.

सुदर्शन के लिए दोस्ती की कोई हदें नहीं थीं. उसने ईमानदारी से स्वीकार किया था कि क़रीब आठ वर्ष पहले वह पहली बार एक लड़की के संपर्क में आया था. अब उसकी कोई दोस्त नहीं सविता के सिवाय. पता नहीं, उसकी बात का कितना अंश सच था वही जाने. अकेलेपन का एहसास कहां ऱफूचक्कर हो गया, पता ही नहीं चला और उन दोनों की नज़दीकियां बढ़ती गईं.

अपनी उम्र को भूलकर वह किशोरियों की तरह दुगुने उत्साह से हर काम करने लगी. सुदर्शन की हर अदा, हर बात उसे अच्छी लगने लगी. सविता उसकी बातों का कम ही विरोध कर पाती थी. अकेलेपन के एहसास ने बुरी तरह से उसके वजूद को ढंक दिया था और उसने चाहे-अनचाहे, अपने भीतर का खाली कोना शिद्दत से महसूस किया था, इसलिए वह उसका विरोध नहीं कर पाई . वह खाली जगह तर्कों से इतनी परे थी कि कब हाथ बढ़ाकर उसने सुदर्शन को अपने भीतर समेट लिया, सविता जान भी न सकी.

दोनों ने तर्क दिए, हम अच्छे दोस्त हैं, उससे ज़्यादा कुछ नहीं. सुदर्शन ने कहा कि हम एक-दूसरे को समझते हैं, दोस्ती के लिए और क्या चाहिए? फिर हमारा कोई स्वार्थ भी नहीं. ‘स्वार्थ तो है’ उसकी प्रौढ़ बुद्धि ने तर्क दिया. वह स्वार्थ उनका नितांत निजी है, दूसरे के लिए हानि-लाभ से परे. तभी एक सुबह सविता को आश्‍चर्य हुआ कि अचानक संबंधों का महीन मकड़जाल अनदेखी आंखों के वेग से टूटकर लटक आया और सविता उन कमज़ोर धागों को विस्मय से देखती रही. टूटे जाल को देख कर विश्‍वास करना कठिन था कि इन बेहद नाज़ुक तंतुओं से बने जाल पर मकड़ी स्थिरता का भरोसा कर सकती थी.

सुदर्शन ने एकदम फ़ोन करना बंद कर दिया था. सविता ने तो उसका फ़ोन नंबर लिया भी नहीं था, वरना शायद वहीं फ़ोन करके कारण पूछ लेती. जिस खिड़की से वो झांका करता, उस खिड़की पर भी पटाक्षेप हो चुका था.

ये तो होना ही था. आख़िर 28-30 साल का नवयुवक 40 वर्षीया महिला के साथ कब तक दोस्ती का अनुबंध निभा सकता था? क्या दोस्ती में भी उम्र का हिसाब रखा जाता है? लेकिन यह तो अकेलेपन को भरने की समस्या में उपजी दोस्ती थी, जिस पर कम से कम सविता जैसी परिपक्व महिला को विश्‍वास नहीं करना चाहिए था.  

उस दिन शीशे में पहले से भी ़ज़्यादा उदास, अकेली आकृति को देखकर सविता को क्रोध आया. क्षोभ और ग्लानि से गला रुंध गया और आंखों से गरम लपटें निकलने लगीं, क्योंकि उसने सामने बनी तीन मंज़िला कोठी की बालकनी पर खड़ी युवती की

बेचैन हरकतों को देखा, जो फ्लाइंग किस कर रही थी.

उसकी नज़र अचानक सुदर्शन के घर की तरफ़ गई, जहां छत पर दीवार की ओट में सुदर्शन खड़ा उस युवती को इशारा कर रहा था. वह सविता को नहीं देख पाया. सविता को कारण समझते देर न लगी कि संबंधों का ऐसा घटिया मज़ाक उसके साथ हो सकता है, लेकिन उधर नए अनुबंध पर हस्ताक्षर हो गए थे.

सुदर्शन का भोला चेहरा ज़ेहन में कौंध गया, “मैं तुमसे जुड़ना नहीं चाहता हूं, पर तुम्हारे साथ दोस्ती हमेशा रहेगी.” उसने चेताया तो था, शायद वही समझने में ग़लती कर गई?

सभी आवाज़ों से ऊपर देवेश के शब्द उसके कानों में गूंज उठे, “अकेलापन? मानसिक प्रक्रिया है यह. दरअसल तुम चीज़ों को ज़रूरत से ज़्यादा महत्व देती हो. दूसरे को राय दो, पर उसके साथ बंध क्यों जाती हो? सविता, यह आज की सोच है. बहुत गहरे जाने की ज़रूरत नहीं, जो सामने है, वही सच है. उसके ऊपर आकाश है, खाली आकाश…” तीखी कचोट के साथ आज सविता को नया बोध हुआ. इस दशक की दोस्ती पर ऐतबार नहीं किया जा सकता.   

 – वीरेंद्र शर्मा

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वीरेंद्र शर्मा
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