कहानी- नयन बिनु वाणी (Short Story- Nayan Binu Vaani)

अनेक कार्यक्रम थे उनकी लिस्ट में आज एक ही दिन के लिए, लेकिन मैं सिद्धि की यादों के संग अकेला रहना चाहता था. जी भरकर उसके ख़्यालों में खो जाना चाहता था. अभी तक तो मैंने सिद्धि से अपने मन की बात भी नहीं की थी. अपनी इंजीनियरिंग कर लूं, तभी कहूंगा, यही तय कर रखा था. इस बात का विश्‍वास था कि वह ना नहीं कहेगी. मुख से कभी कुछ न कहा हो, उसकी आंखों में देखा था मैंने अपने प्रति अनुराग…

इंजीनियरिंग का अंतिम पेपर देकर मैं सीधे अपने हॉस्टल के कमरे में आकर लेट गया. आज मैं जी भरकर सिद्धि के ख़्यालों में खो जाना चाहता था. मन ही मन बातें करना चाहता था उससे, ढेर सारी बातें.
इतने दिन पढ़ाई के कारण मैं किस मुश्किल से स्वयं को रोके हुआ था, यह मैं ही जानता हूं, पर अब इसकी ज़रूरत नहीं. लंबा सफ़र तय कर आज मैं अपनी मंज़िल के क़रीब पहुंच चुका हूं. बस, सिद्धि से बात करने की देर है. वह मना नहीं करेगी, विश्‍वास है मुझे. और न ही मेरे या उसके मम्मी-पापा को कोई ऐतराज़ होगा, यह भी जानता हूं.
भूख तो लगी है, पर न तो बाहर जाने की हिम्मत बची है, न ही स्वयं ही कुछ बनाकर खा लेने की. मां के भेजे लड्डू में से दो बचे हैं, फ़िलहाल वही खाकर तसल्ली कर ली है.
घर पर होता, तो मां यूं मुझे भूखा सो जाने देती क्या?
शुरुआती दिनों में हॉस्टल में रहना कितना अच्छा लगता था. अपनी मर्ज़ी से खाओ-पिओ. देर रात तक मित्रों के संग गप्पबाज़ी करो. जहां मर्ज़ी घूमने जाओ. कोई टोकनेवाला नहीं. किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं. स्वतंत्रता का यह सुख थोड़े ही दिनों में ठंडा पड़ने लगा. घर पर मां कितना ख़्याल रखती थीं भोजन, कपड़े, सब चीज़ का, ताकि मैं निश्‍चिंत होकर पढ़ सकूं. इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश हेतु जब मैं पढ़ रहा होता, तो घर में जैसे कर्फ़्यू लग जाता. सब धीमी आवाज़ में बात करते. टीवी-रेडियो सब बंद. और ध्येय पर पहुंचने के लिए मेरा सबसे बड़ा प्रोत्साहन थी सिद्धि. घुंघराले बाल, कोमल-सा चेहरा और शहद-सी रंगत.

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बचपन से जानता था उसे, पर जानने और चाहने में जो फ़र्क़ होता है, वह समझ आया स्कूल ख़त्म होने के आसपास. वर्षों का परिचय था दोनों परिवारों में. हम दोनों के दादा की मैत्री थी और फिर आसपास रहने से उसके और मेरे पापा एक ही स्कूल में पढ़े थे. बस, एक क्लास आगे-पीछे. स्कूल के बाद साइकिल उठाकर निकल जाना, बाज़ार जाने का कोई छोटा-सा बहाना ढूंढ़ना, क्रिकेट खेलना, सब संग ही होता था. सिद्धि के पिता का नाम तो बहुत रौबदार था- राघवेंद्र सिंह, पर पापा उन्हें रघु बुलाते थे और हम दोनों बहन-भाई रघु चाचा.
दोस्तों का तो परीक्षा ख़त्म होने के बाद भी एक-दो दिन और रुकने का इरादा था. फिर जाने मिलना हो या नहीं. आज भी दिनभर संग मिलकर मौज-मस्ती करना चाहते थे, घूमना-फिरना, मूवी जाना… अनेक कार्यक्रम थे उनकी लिस्ट में आज एक ही दिन के लिए, लेकिन मैं सिद्धि की यादों के संग अकेला रहना चाहता था. जी भरकर उसके ख़्यालों में खो जाना चाहता था. अभी तक तो मैंने सिद्धि से अपने मन की बात भी नहीं की थी. अपनी इंजीनियरिंग कर लूं, तभी कहूंगा, यही तय कर रखा था. इस बात का विश्‍वास था कि वह ना नहीं कहेगी. मुख से कभी कुछ न कहा हो, उसकी आंखों में देखा था मैंने अपने प्रति अनुराग.
मेरी पढ़ाई पूरी हुई. कैंपस सिलेक्शन में अच्छी-सी नौकरी भी पा गया था मैं. बहुत हिम्मत करके मैंने उसके लिए नीले रंग का एक सूट भी ख़रीद लिया था. मन-ही-मन कल्पना कर रहा था कि इसे पहनकर वह कैसी नीलकमल-सी लगेगी. ख़रीदना तो साड़ी चाहता था, पर इतने पैसे नहीं थे मेरे पास. थोड़ा-थोड़ा करके बस इतना ही जोड़ पाया था कि एक साधारण-सा सूट ही ख़रीद सकूं. मन की भावनाओं को पैसे से नहीं तौला जा सकता. उससे दूर रहकर भी और पढ़ाई में इतना व्यस्त रहकर भी मैंने उसे हर दिन याद किया था.  आज भी काफ़ी समय था मेरे पास. गाड़ी तो सुबह आठ बजे निकलनी थी. सामान भी लगभग समेट चुका था. चाहता तो आज की शाम मित्रों के संग बिता सकता था, पर यह समय मैं सिद्धि के सपनों में गुज़ारना चाहता था, सिद्धि की यादों के संग.
दूसरे दिन घर पहुंचने तक अंधेरा घिर आया था. थोड़ी देर बातें कर मां रसोई में जुट गईं, मेरे मनपसंद भोजन की तैयारी में और बहन सरिता मेरे संग बतियाने में. दुनिया जहान की ख़बरें थीं उसके पास वर्ष बाद लौटे अपने भाई को सुनाने के लिए. स्कूल की, आसपास की, सखी-सहेलियों की. मैं जितना चुप्पा था, वह उतनी ही बातूनी. अभी हाल ही में उसे पिक्चरें देखने का शौक भी लग गया था. सो उन सबका ब्योरा भी दे डाला.
थकावट तो थी ही. मैं भोजन करके जल्दी ही सोने चला गया. पर सिद्धि से मिलने के विचार मात्र से ही ठीक से सो नहीं पाया…
कैसे बात शुरू करूंगा? क्या कहूंगा? यही तय नहीं कर पा रहा था. इस बात पर भी असमंजस में था कि पहले मां से बात करना ठीक रहेगा या सिद्धि से उसकी रज़ामंदी लेना. दरअसल, घर में कभी मेरे विवाह की चर्चा हुई होती, तो शायद मैंने मां से कह भी दिया होता, परंतु जब तक नौकरी न लग जाती, तो विवाह की बात उठती ही कैसे? और बग़ैर किसी भूमिका के अपने विवाह की बात उठाना भी कठिन था. बहुत सोचकर मैंने तय किया कि पहले सिद्धि से ही बात कर उसकी रज़ामंदी ले लेनी चाहिए. सुबह समय से उठकर तैयार भी हो गया. सोच रहा था कि यदि मां पूछेंगी, तो क्या बताऊंगा कि कहां जा रहा हूं? पर मुझे तैयार देख मां ने कहा, “अच्छा है समय से नहा-धो लिए, तुम्हारे रघु चाचा आ रहे हैं.”
मेरे पूछने पर कि इतनी सुबह-सुबह ही कैसे? मां ने बताया, “सिद्धि का विवाह है न! तो कार्ड लेकर आ रहे हैं. पापा से मशविरा भी करना है कुछ. बस आने ही वाले हैं, तब तक मैं जल्दी से कुछ बना लेती हूं.” कहकर वह रसोई की ओर चल दीं. न ही वह मेरे चेहरे के भाव पढ़ने तक रुकीं और न ही मुझे कुछ कहने की मोहलत मिली.
रघु चाचा और चाची दोनों आए थे. अच्छी तरह प्रेमपूर्वक मिला था मैं उनसे. हंसकर बात की थी. सिद्धि के विवाह की मुबारक़बाद भी दी. अपने ज़िम्मे काम सौंपने का अनुरोध भी किया. सही कहा है शेक्सपीयर ने कि यह दुनिया भी तो एक रंगमंच है, जिसमें हम अपना-अपना क़िरदार निभाने आते हैं, पर अफ़सोस, असल जीवन में न तो हमारे हाथ में कोई लिखित स्क्रिप्ट होती है और न ही अंत की पूर्व जानकारी. समय-समय पर झटके भी मिलते हैं और हमारी योजनाओं के एकदम विरुद्ध फैसले भी हो जाते हैं, जिन्हें हमें स्वीकार करना होता है. रंगमंच के क़िरदारों से बहुत कठोर है यह जीवन.
रघु चाचा की दो बेटियां थीं, अत: बाहर के बहुत से काम उन्होंने मेरे ज़िम्मे कर दिए. यथासंभव सब काम पूरे किए मैंने, पर सिद्धि से दूरी बनाए रखी. रघु चाचा घर आने की बात करते भी, तो मैं कोई-न-कोई बहाना बना उनके कार्यस्थल पर ही मिल आता.
इस बीच मैंने ऐलान कर दिया कि विवाह तक नहीं रुक पाऊंगा और ज़रूरी काम से मुझे एक बार फिर बनारस जाना ही पड़ेगा, पर सगाई की रस्म विवाह से चार दिन पूर्व होनी थी और उनके घर पर ही रखी गई थी. खाने-पीने का इंतज़ाम मेरे ज़िम्मे था. रघु चाचा वे अनुरोध किया था कि मैं कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही उनके घर पहुंच जाऊं.

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बहुत भारी मन से गया था. मैं वहां पूरी उम्र जिसके साथ जीवन बिताने के सपने देखता रहा था, आज वह किसी और की उंगली में अंगूठी पहनाकर अपना संबंध पक्का कर देगी और मैं खड़ा देखता रहूंगा. मैं उसका अमंगल नहीं सोच सकता था और उसे किसी और का देखने की शक्ति भी नहीं थी मुझमें. स्वयं को काम में व्यस्त रखने की कोशिश करता रहा.
वधू के कमरे से छोटी मेज़ उठा लाने का आदेश हुआ मुझे. दरवाज़ा भिड़ा हुआ था. मैं दरवाज़ा खटखटाकर रुका. भीतर कोई है कि नहीं यह भी नहीं, जानता था. तभी अंदर से आवाज़ आई, “अंदर आ जाओ सुषमा.”
मुझे दरवाज़े पर देख वह जड़ हो गई. निश्‍चय ही मेरा आना अपेक्षित नहीं था उसके लिए, पर मेरे लिए तो उसका वहां होना अपेक्षित था, फिर भी मैं कुछ पल मूर्तिवत खड़ा रहा. परंतु शीघ्र ही संभाल लिया स्वयं को.
“कैसे हो?” उसने कहा और जैसे उसे कुछ याद आ गया हो, वह जल्दी से मुड़ गई. आलमारी खोल एक बड़ा-सा बंद लिफ़ाफ़ा निकाल लाई और मेरी ओर बढ़ाते हए बोली, “जब बनारस जाओ, तो इसे यूं ही बंद गंगा में बहा देना. अब इन्हें संभालकर रखना मेरे वश में नहीं.”
उसकी आंखें भीगी हुई थीं या मेरा भ्रम था वह?
मैंने धीरे से पूछा, “क्या है यह?”
“कुछ टूटे हुए सपने, कुछ अधूरे अरमान… तुम जैसा अनाड़ी नहीं समझ पाएगा…”

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मैंने असमंजस से, पहले हाथ में आए उस पैकेट की ओर फिर सिद्धि की ओर देखा, परंतु उसने मुख फेर रखा था.
बस, दो क़दम की दूरी थी हमारे बीच, पर उसे पाटना असंभव-सा था.
मैं छोटी मेज़ और लिफ़ाफ़ा लिए बाहर चला आया. रात को पहनने के लिए जिस बैग में कपड़े लाया था, उसी में वह पैकेट रखकर मैं काम में लग गया. अभी कुछ भी सोचने का समय नहीं था मेरे पास और सगाई के दूसरे ही दिन बनारस लौट गया. काम तो कुछ था नहीं, कुछ करने को मन भी नहीं था. दिनभर बिस्तर पर पड़ा रहा. नींद तो क्या आनी थी, यूं ही लेटा रहा बस. अब तो सिद्धि के बारे में सोचना भी गुनाह हो गया था.
दूसरे दिन बनारस में रहनेवाले साथियों को मेरे आने का पता चल गया और मिलने आ गए, तो वह दिन बीत गया. उसके अगले दिन अनेक कोशिशों के बावजूद मन रघु चाचा के घर में ही अटका रहा. आज की ही तारीख़ थी, सिद्धि के विवाह की. ख़ूब ज़ोर-शोर से तैयारियां हो रही होंगी. शामियाना तन चुका होगा.
दिन ही नहीं बीत रहा था. सोचा गंगा पर जाकर सिद्धि का काम ही कर आऊं. लिफ़ाफ़ा निकाला, छूने से चिट्ठियों का बंडल लगा मुझे, खोला तो डोरी से कसकर बंधी हुई चिट्ठियां ही थीं. हाथ में लिए देर तक बैठा रहा. सिद्धि की अमानत थी, उसे ख़ुद से अलग करने का मन नहीं हो रहा था, पर उसकी बात भी रखनी थी. निकलने लगा, तो मन ने फिर रोक लिया. उत्सुकता हुई.
ज़रा देख तो लूं किसके नाम हैं ये चिट्ठियां? मैं स्वयं को रोक नहीं पाया. प्यार में तो सब जायज़ है न? मैंने बंडल की डोरी खोली और बारी-बारी से चिट्ठी निकालकर पढ़ने लगा.

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‘यह एकतरफ़ा प्यार निभाना भी कितना कठिन होता है? जब से तुम गए हो, कोई खोज-ख़बर ही नहीं ली. पत्र लिख भी रही हूं और जानती भी हूं कि भेजूंगी नहीं. पता नहीं तुम मेरे बारे में क्या सोचने लगो?’ बाकी इधर-उधर की अनेक बातें थीं. अन्य परिचितों की बातें. अपनी दिनचर्या के बारे में लिखा था. कॉलेज की बातें की थीं. छोटी बहन की पढ़ाई के बारे में लिखा था. ठीक जैसे अपने किसी निजी के साथ हालचाल बांटा जाता है. कौन हो सकता है यह?
मैंने दूसरा पत्र निकाला.
‘क्यों मुझे लगता रहा कि तुम भी मुझे उसी तरह चाहते रहे हो, जिस तरह से मैं? क्या यह मेरी कोरी कल्पना ही थी? यूं ही मुझे तुम्हारी आंखों में प्यार नज़र आता रहा? चूंकि मेरे मन में तुम्हारे प्रति अथाह प्यार था, तो क्या मैंने यही मान लिया कि तुम्हारे मन में भी मेरे प्रति वही भावना है. लेकिन शायद यह महज़ मेरी ख़ुशफ़हमी थी. तुमने तो कभी कुछ कहा ही नहीं. कितने ही तो अवसर मिले थे हमें.’
‘कल शकु चाची से मुलाक़ात हुई थी. बहुत जी चाहा तुम्हारे बारे में पूछने को, पर यह मेरे ही मन का चोर था जिसने मुझे रोके रखा.’
मेरा माथा ठनका, मेरी मां को ही तो दोनों बहनें शकु चाची बुलाती थीं. उनका वास्तविक नाम शकुंतला है. इसके आगे भी बहुत कुछ लिखा था, परंतु अब उन बातों की ओर मेरा ध्यान नहीं जा रहा था.
‘घर में मेरे विवाह की चर्चा चल रही है. किससे कहूं? क्या कहूं? किस अधिकार से मां को मना करूं? जब तुमने अभी तक कुछ कहा ही नहीं?’
‘कभी-कभी स्वयं पर ग़ुस्सा भी आता है. तुमने नहीं कहा था, तो मैं ही कह देती, पर मन में डर था, यदि तुम्हारे मन में मेरा कोई स्थान न हुआ तो? कितना अपमान होगा मेरा? क्या सोचते तुम मेरे बारे में? नहीं मैं तुम्हारी नज़रों में गिरना नहीं चाहती थी.’
‘अब जा रही हूं मन में तुम्हारी याद लेकर. जानती हूं मुझे इन पत्रों को नष्ट कर देना चाहिए, वह भी जाने से पहले. करूंगी भी, बस, हर रोज़ कल पर टाल रही हूं. इनसे बिछड़ना मतलब तुमसे बिछड़ना. इन पत्रों द्वारा मैंने लंबे समय तक तुमसे बात की है, पर अब तुम पर भी मेरा हक़ नहीं रहा.
बस, अब दो दिन और हैं ये पत्र मेरे साथ. कल सगाई की रस्म है, परसों अवश्य इन्हें नष्ट कर दूंगी. यह वादा है मेरा स्वयं से.’
पत्रों को सामने खोल विमूढ-सा बैठा हूं. हतभाग्य! यह कैसा खेल खेला विधाता ने मेरे साथ!

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गोस्वामी तुलसीदासजी कह गए हैं ‘नयन बिनु वाणी।’ नयनों की वाणी चाहे न हो, मन का आईना होते हैं वह. हू-ब-हू व्यक्त कर देते हैं मन की बात. बस पढ़नेवाले की नज़र चाहिए. इसके विपरीत जो बात शब्दों द्वारा व्यक्त की जाती है, वह मस्तिष्क से निकली होती है, उसमें समाज का अंकुश रहता है, निज स्वार्थ का पुट हो सकता है.
काश! मैने सिद्धि के नयनों पर विश्‍वास कर लिया होता.

उषा वधवा

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उषा वधवा
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