लघुकथा- पेट पोंछना (Short Story- Pet Ponchhana)

“अब साहब छोटा ही मानिए, सबसे छोटा बच्चा कभी बड़ा कहां होता है मां-बाप के लिए! हमारी अम्मा कहती हैं, ‘पेट पोंछना होता है’, मतलब पेट पोंछकर आता है छोटा बच्चा. उससे तो सबसे ज़्यादा मन जुड़ा रहता है!”
मेरी आंखें तेजी से भर आईं… मैं तेज कदमों से चलते हुए बाथरूम में आकर फफक पड़ा! मां भी तो यही कहती हैं कि सबसे छोटा हूं, तभी उनका ध्यान लगा रहता है.

दराज़ में रखी नींद की गोलियों से भरी शीशी को मैंने फिर से देखा, थोड़ी देर देखता रहा… फ़िर धीरे से दराज़ बंद कर दी. नौ बजनेवाला था, लगभग पूरा स्टाफ घर जा चुका था, एक-दो लोगों को छोड़कर… मुझे झुंझलाहट हो रही थी. आज ही सारी कुशलता दिखानी है क्या इनको?
“साहब, दो दिनों की छुट्टी चाहिए… बिटिया का मुंडन है.” चपरासी रामकुमार हाथ जोड़े खड़ा था. मन में एक दर्द की तेज लहर उठी. अनायास नज़र फोन के स्क्रीन पर लगी बिटिया की तस्वीर पर चली गई. ये तो याद करेगी ही अपने पापा को, लेकिन वो भी कितने दिन?
“साहब, ज़रूरी है, नहीं तो टालओ जाते.” वो घिघियाने लगा था.
“तीसरे दिन सुबह आपसे पहिले हम ईहां पहुंचेंगे.”
“हैं… अच्छा, हां… जाओ.. जाओ, कोई बात नहीं.” मैंने पर्स से पांंच सौ का नोट निकाला, “बिटिया को मेरी तरफ़ से दे देना…”
उसने माथे पर नोट लगाकर अपनी जेब में रख लिया, अचानक उसको देखकर ईर्ष्या की चिंगारी मुझे छू गई! इसका मन नहीं होता होगा क्या कभी मरने का? क्या इसके घर की कलह इसको पलायन का रास्ता नहीं दिखाती होगी?
“कौन-कौन है परिवार में… मतलब यहां और गांव में.” कंप्यूटर पर बेवजह कुछ करते हुए ऐसे ही बेमतलब का सवाल मैंने पूछ लिया. दाईं तरफ़वाली मेज, उसमें रखी शीशी, जैसे एक बम धीरे-धीरे सुलग रहा हो.
“गांव में अम्मा-बाबूजी,भइया-भाभी, दुई उनकी बिटिया, एक ठो लइका और यहां हमारे दोनों बच्चे, एक भतीजा… और मिसेज़!” वो एकदम से बोलकर रुक गया, शायद ‘मिसेज़’ पर और मैं भी शायद इसी पर अटक गया.
“लड़ाई नहीं होती तुम्हारी…” कैसा सवाल और वो भी उससे, क्यों पूछा मैंने? थोड़ी देर तक जवाब नहीं आया, तो सिर उठाकर देखा मैंने. वो खिड़की के शीशे में नाक चिपकाए हुए आंखें फाड़कर बाहर देख रहा था.
“क्या हुआ रामकुमार, हुआ क्या?”अब मैं कोई नया किस्सा इससे नहीं सुनना चाह रहा था. दराज़ में रखी शीशी जैसे मुझे अपनी ओर खींचने लगी थी, “सुन रहे हो? तुम्हारा हो गया ना सब काम… तुम चलो फिर, मुझे थोड़ा काम है अभी!”
“साहब, इसकी हालत देखी नहीं जाती. बुढ़िया पगला गई है एकदम.” मुझे अनसुना करते हुए वो वैसे ही खिड़की से चिपका रहा. बात को जल्दी ख़त्म करने और इसको भगाने के मक़सद से मैं उठकर खिड़की के पास आ गया, “कौन-सी बुढ़िया पगला गई है? तुमको भी बस मसाला चाहिए…” सड़क पर या आसपास किसी भिखारिन जैसी की कल्पना मैं कर रहा था.
“अरे साहब, ये अरोड़ा साहब की मिसेज़. पता है, रात-बिरात गेट पर खड़ी हो जाती हैं, सबसे कहती हैं ‘अभी आएगा मन्नू… आएगा दफ्तर से… देखिए कैसे खड़ी हैं… बड़ी तकलीफ़ होती है साहब!” उसका चेहरा बड़ा गंभीर हो गया था.
मैंने ध्यान से देखा एक बुज़ुर्ग महिला कोनेवाले घर में खड़ी तो थीं गेट पर… एकदम से लगा जैसे मां खड़ी हों, वही कद-काठी, वैसे ही बाल.. मन भर आया. आज पहली बार पूरा दिन बीत गया, लेकिन जान-बूझकर मां को फोन नहीं किया!
“मनोज अरोड़ा नहीं था… वही था इनका छोटा लड़का, पिछले साल नहीं रहा. तब ही से पगलानी घूमती हैं.” उसने पूरी बात का सार मुझे एक पंक्ति में समझा दिया. ना तो मैं मनोज को जानता था, ना इनको.. लेकिन एक संवेदना तो महसूस हुई ही!
“बहुत छोटा था?.. क्या उम्र रही होगी?”
“अरे साहब रहा होगा कमस्कम पच्चीस-छब्बीस का! कोई लड़की का चक्कर बताते हैं लोग… दफ्तर गया था, वहीं से कूद गया गंगाजी में.” रामकुमार थोड़ा भावुक हो गया था.
“अब साहब छोटा ही मानिए, सबसे छोटा बच्चा कभी बड़ा कहां होता है मां-बाप के लिए! हमारी अम्मा कहती हैं, ‘पेट पोंछना होता है’, मतलब पेट पोंछकर आता है छोटा बच्चा. उससे तो सबसे ज़्यादा मन जुड़ा रहता है!”
मेरी आंखें तेजी से भर आईं… मैं तेज कदमों से चलते हुए बाथरूम में आकर फफक पड़ा! मां भी तो यही कहती हैं कि सबसे छोटा हूं, तभी उनका ध्यान लगा रहता है. मां के शब्द कान में गूंज रहे थे… हर दिन बस एक ही तरह की तो बात होती है हमारी फोन पर, “दूध पी लिया कर… फल खाया कर, जान है तो जहान है!”
“अच्छा खा लूंगा… आप बताओ कैसी हो?”
“तू ठीक है, तो मैं भी ठीक हूं.”
यही एक बात मां की, जो मुझे अंदर तक भेद जाती है. मेरे ठीक होने से वो भी ठीक रहती हैं? और जब मैं नहीं रहूंगा तब?.. शायद मां को भी सब ‘पगलिया’ ही बोलेंगे और वो भी ऐसे ही हर दिन फोन लिए मेरा इंतज़ार करती रहेंगी…
“साहब हम निकलें फिर…” मेरे बाहर निकलते ही रामकुमार ने पूछा, वो मेरा चेहरा देखकर घबराया हुआ था!
“थोड़ी देर रुककर मेरे साथ चलना, मैं भी चलता हूं.” मैंने धीरे से दराज़ से शीशी निकालकर, सारी गोलियां बाथरूम में जाकर बहा दीं… दिल अभी भी धड़-धड़ कर रहा था, लेकिन एक इत्मीनान था; कैसे भी हालात हों, कोई भी मसला मेरे जीवन पर हावी नहीं रहेगा… कुछ भी हो जाए, मेरी मां को कोई पगलिया नहीं कहेगा!

लकी राजीव


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Usha Gupta

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