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कहानी- क़ैद में है बुलबुल (Short Story- Qaid Mein Hai Bulbul)

मां, यहां सब कुछ अच्छा है, पर मेरा दिल फिर भी नहीं लगता. तुम ठीक कहती हो, रहते-रहते मन भी लगने लग जाएगा. मां जो खिलाए, गाना उसी का गाना चाहिए. मैं दो साल से इस देश का अनाज खा रही हूं. पर गीत अपने ही देश का गाती हूं. कितना भी कह लो मां, इस देश की हवा मिट्टी में वह अपनापन नहीं है.

घंटी बजने की आवाज़ आई, तो मैंने रसोई से झांक कर देखा, बाहर पोस्टमैन खड़ा हुआ था. साड़ी के पल्लू से झटपट हाथ पोंछ कर में बाहर आ गई, पोस्टमैन इधर कई सालों से पत्र लाया करता था. लिफ़ाफ़े पर अमेरिका की मुहर देखकर उसने मुझसे कहा, “बिटिया का पत्र लगता है, अमेरिका से आया है.”
मैंने लिफ़ाफ़े पर लिखे पते से अपनी बेटी की लिखाई पहचान ली. वैसे भी मुझे पिछले हफ़्ते एक सप्ताह से उसके पत्र का इंतज़ार था. जल्दी से पत्र हाथ में ले मैं भीतर आ गई, रसोई में जा गैस बंद कर दी और इत्मीनान से बेटी का पत्र पढ़ने बैठ गई.
हमेशा की तरह पहली लाइन में उसने लिखा था- आशा है आप, पापा और भैया मजे में होंगे… और उसके बाद फिर वही कि मां मेरा यहां दिल नहीं लगता, रह-रह कर अपने देश की याद आती है. आकाश में चांद-तारे तो निकलते हैं, पर ऐसा लगता है, जैसे अपने नहीं हैं. सब बेगाने लगते हैं, परसों करवा चौथ का व्रत रखा था. क़सम से मां, जब चांद को देखा तो लगा जैसे कोई पराया-सा चांद है. इस देश का चांद भी अपने देश के चांद जैसा नहीं है, ऐसा लगता है जैसे मुझे सोने के पिंजरे में क़ैद कर दिया गया हो. पिंजरा लाख सोने का हो, आख़िर है तो पिंजरा ही न! कभी-कभी तो लगता है जैसे पंख ही कट गए हों.
जिस फ्लैट में मैं रहती हूं वहां आस-पास के लोगों के बात करने की आवाज़ भी नहीं आती. कहां अपने देश में सुबह उठते ही ज़ोर-ज़ोर से नत्यू हलवाई के होटल से गानों की आवाज़ आती थी- ज़ोर से बोलो जय माता दी… सुबह छह बजे से ही सारा माहौल भक्तिमय हो जाता था. दादी के मुख से भी बीसियों बार जय माता दी, जय माता दी… निकलता था. यहां तो पड़ोसी की आवाज़ सुनने को तरस जाती हूं. अपने देश में जिस तरह सुबह-सुबह दूधवाले, नालियां साफ़ करनेवाले आ जाते थे, वैसा यहां कुछ भी नहीं होता. गली में जैसे सुबह लोगों के गाली-गलौज और लड़ने-झगड़ने की आवाज़ें अपने देश में आती थीं, यहां तो सुनने को भी नहीं मिलती. हर तरफ़ शांत वातावरण है.
तुम्हें सुन कर हैरानी होगी कि कल मेरी नींद सुबह ग्यारह बजे खुली. मेरे पति सुबह जल्दी काम पर चले जाते हैं, इसलिए उन्हें सात बजे नाश्ता देकर फिर सो गई थी. मां क्या करूं? कोई जगानेवाला भी तो नहीं है. न कौओं की कांव-कांव है, न पड़ोसी के घर में बजनेवाला टेप. मुझे याद आता है मां, दादी कितना ग़ुस्सा करती थीं. वीनू को कहती थीं कि कोई देवीजी के गीत लगाया कर. यह क्या लगा देता है सुबह-सुबह? कैसे अपने सामनेवाले मंदिर में जय अम्बे, जगदम्बे मां… के गाने बजते थे!
कल तो मेरे जी में आ रहा था कि ज़ोर-ज़ोर से मलिकाएं तरन्नुम नूरजहां का वह गीत गाऊं आवाज़ दे कहां है… पर मां लाख कोशिश करने पर भी गले से आवाज़ नहीं निकल रही थी. अब धीरे-धीरे आवाज़ को दबा कर तो मैं नहीं गा सकती, इसलिए शाम को जब मैं इनके साथ घूमने गई तो एकांत में जाकर वह ठुमरी ख़ूब गाई, नज़रिया की मारी मरी मेरी गुड्यां… तब कहीं जाकर लगा की गले और छाती का कफ़ साफ़ हो पाया.

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मेरे पड़ोस में कौन-कौन रहता है, मुझे आज तक नहीं मालूम. परसों अपनी खिड़की से मैंने देखा था, बगलवाली महिला की एक तीन-चार साल की बच्ची है, पर कभी रोने की आवाज़ आती, तब तो पता लगता. यहां तो फुग्गे, सीटी और रंगीन चश्मा बेचनेवाले आते नहीं. तुम्हें तो पता है मां, साहनी चाची की बहू का लड़का कैसे फुग्गेवाले को देखते ही मचल जाता था और जब तक चाची फुग्गे नहीं ले देती थी, वह मानता ही नहीं था. यहां तो सड़कों पर फेरी लगाने का रिवाज़ नहीं है. मुझे रह-रह कर अपने देश की याद आती है. यहां तो सावन का किसी को पता ही नहीं है. तुमने मुझे बेकार ही संगीत सिखाया. कल जब सावन की हल्की-हल्की फुहार पड़ रही थी, तो मैंने अपनी बालकनी से संगीत की दो लाइनें छेड़ दी.
अबके बरस भेज भैया को बाबुल, सावन में लीजो बुलाय रे… दो पंक्तियां गाने के बाद में ख़ूब रोई मां. मुझे अपने देश का सावन याद आने लगा. ठेले पर वह कच्चा नारियल बेचनेवाला आता था. कैसे चिल्लाता था, “कच्चा नारियल गिरी वाला…” बड़ा मन होता है कच्चा नारियल खाने का. तुम कोई ग़लत मतलब मत निकाल लेना, अभी ऐसी-वैसी कोई बात नहीं है.
दोपहर को डाकिया आता है. जब अपनी डाक लेने नीचे पहुंची, तो अपने फ्लैट के दरवाज़े पर एक परची टंगी देखी. (साइलेंस प्लीज़, बेबी इज़ स्लीपिंग- कृपया शांत रहिए बच्ची सो रही है)… हां यह तो इसने इसीलिए टांगा होगा, क्योंकि मैं सारी दोपहर राग यमन की तानें जो छेड़ती रही थी- सदा शिव भज मना…
अरे मां, ये लोग क्या जानें संगीत क्या होता है? दो आलाप क्या ले लिए, इन्होंने मेरे दरवाज़े पर टांग दिया कि कृपया शांत रहिए. सब तरफ़ मरघट सी शांति पड़ी रहती है. आदमी अपनी औरत तक से इतनी सभ्यता से बात करता है कि पड़ोसी के लड़ने-झगड़ने की आवाज़ ही नहीं आती. मां-बाप भी कभी अपने बच्चों को मारते-पीटते नहीं. मुझे तो रह-रह कर रधिया धोबन की याद आती है. उसका पति कैसे उसे रूई की तरह धुन देता था. वह बिचारी फिर भी
बीस घर का मैल धो कर धोबी के लिए खाना बनाकर रखती थी. मजाल थी के कभी तलाक़ जैसा शब्द वह अपनी ज़ुबान पर लाती. पर यहां तो बात-बात में तलाक़ हो जाते हैं. मैं किताब में पढ़ रही थी कि एक पत्नी ने अपने पति को तलाक़ इसलिए दे दिया कि उसे ट्यूब से टूथपेस्ट ठीक से निकालना नहीं आता था. ट्यूब को मोड़- मोड़कर ख़राब कर देता था. किसी ने पति के खर्राटों से परेशान होकर उसे तलाक़ दे दिया था. मां, भला भारतीय नारी की तुलना इन लोगों से की जा सकती है. तुम्हें ही देख लो, पिताजी की सिगरेट से तुम सारी ज़िंदगी परेशान रहीं? पर न उन्हें तलाक़ ही दिया और न ही उनकी सिगरेट छुड़ा पाईं. आख़िर एक समझौते पर ही तो घर टिका होता है. यहां तो समझौतेवाली बात ही नहीं है.
मां, तुमने पिछले पत्र में शिकायत की थी कि मैं तो ज़्यादाकर पतलून ही पहनती हूं. क्या करूं? मां यहां सभी लोग पहनते हैं. मेरी एक दोस्त अपने काम पर सलवार कुर्ता पहन कर चली गई. जानती हो उसके अफसर ने उसे क्या कहा?.. “यह तुमने क्या पहन रखा है? नाइट सूट लगता है.”
मेरी सहेली ने बड़े तपाक से जवाब दिया था, “सर, मैं नहीं समझती की आप लोगों की इतनी औकात है कि आप सात हजार का नाइट सूट पहन कर सो सकें.” सच मां, वह डॉक्टर की बीवी है. अपना इस्तीफ़ा साहब के टेबल पर पटक कर आ गई. दूसरे दिन उसके साहब ने फोन करके उससे माफ़ी मांगी थी, तब कहीं जाकर वह काम पर गई थी. अरे, हमने अपना देश छोड़ा है, अपनी इज़्ज़त थोड़े न बेच दी है. यहां तो कोई बड़ा साहब नहीं है, कोई सर नहीं है. सभी एक-दूसरे को नाम से पुकारते हैं. कोई किसी की जी हुजूरी नहीं करता. सब अपना-अपना काम ईमानदारी से करते हैं. यहां कोई किसी को हराम के पैसे नहीं खिलाता. पिताजी ने मकान का नक्शा पास करवाया था, तो पन्द्रह हज़ार तो अफ़सर ने ले लिए थे. फिर भी सालभर में नक्शा पास करवा पाए थे. बुढ़ापे में जूते घिस गए थे.
एक ख़ुशख़बरी तुम्हें दे रही हूं. मुझे अगले सप्ताह तक कार चलाने का लाइसेंस मिल जाएगा. यहां लाइसेंस के लिए बकायदा इम्तिहान होता है. कोई भी अनाड़ी सड़क पर कार लेकर नहीं आ सकती.

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बड़ी मौसी की लड़की ने जब कार सीखी थी तो कैसे लाइसेंस घर पर आ गया था. एस. पी. साहब की बेटी थी न और पहले दिन ही उसने रस्तोगी साहब की तमाम बाड़ी अपनी कार से तहस-नहस कर दी थी. कैसे रस्तोगी साहब दांत निपोरते आ गए थे, उन्होंने रक्षा को डांटा तक नहीं था. जानती हो क्या कहा था, “कोई बात नहीं बिटिया बाड़ी टूटी है. एक-दो दिन में हाथ साफ़ हो जाएगा.” और शाम को ही मौसाजी ने पुलिस के चार जवान भेज कर बाड़ी ठीक करवा दी थी. अंधेर है मां… जिसके जो जी में आता है कर लेता है, पर यहां तो हर काम को करने में डर सा लगता है. वही भारतीय जो अपने देश में हर जगह क़ानून का उल्लंघन करता था यहां आकर क़ानून से डरा-डरा फिरता है.
मौसाजी ने भी तो कितने नौसिखुओं को हेवी मोटर लाइसेंस दिलवा दिया था, तभी तो रोज़ लोग, ट्रक और बसों के नीचे आकर मरते रहते थे. आदमी न हुए, कीड़े-मकोड़े हो गए. मां, यहां पर आदमी की जान की बड़ी क़ीमत है. यहां आदमी आदमी की तरह जीता है जानवरों की तरह नहीं, आबादी बहुत कम है. सड़कों पर निकम्मे और बेकार लोग तो दिखते ही नहीं. अपना देश छोटा और लोग ज़्यादा हैं. अपने यहां क़ानून को तो जूते की नोंक पर रखते हैं. तुम्हें हैरानी होगी मां कि यहां कोई सड़कों पर कचरा नहीं फेंकता. यहां जब सड़कों पर गुज़रती हूं, तो मुझे बड़ी हंसी आ जाती है. मेरे पति मुझसे हंसी का कारण पूछते हैं, तो मैं उन्हें यहां लंबा-चौडा भाषण दे देती हूं. उन्हें बताती हूं कि कैसे हमारे यहां की सड़कें गड्ढों से भरी हैं, उनमें पानी भरा रहता है.
सदर बाज़ार वाली सड़क का तो मैं ख़ूब बखान करती हूं. दस कदम पर सड़क के किनारे एक मंदिर है, तो अगले दस कदम पर एक मजार. फिर बीचोंबीच किसी ने एक पत्थर को लाल गेरू पोत कर रख दिया है. कारें, मोटरें उसके आसपास से होकर गुज़र रही हैं. सरकार की क्या मजाल की वह उसे बीच से उठा दे, ताकि सड़क आने-जानेवालों के लिए खुल जाए. जिसका जहां मन आए कचरा फेंक रहा है, चाहे केले के छिलके पर फिसल कर कोई ज़िंदगीभर के लिए मुंह और हाथ-पैर तुड़वा बैठे. सड़कों पर ही निस्तार हो जाता है. लोग जहां दिल में आया खड़े होकर पेशाब कर लेते हैं और सुबह-शाम नारा लगाते हैं, ‘मेरा भारत महान!’
जब कभी मैं उदास हो जाती हूं, तो अपनी डायरी खोल लेती हूं और न जाने क्या-क्या पढ़कर हंसने लगती हूं. लो, तुम्हें भी एक बात कह कर हंसा देती हूं. अपने पड़ोस के भाटियाजी ने बहुत सुंदर घर बनवाया था. पर लोग उनकी चारदिवारी से लगकर पेशाब करते थे. बगल के ऑफिस वाले, रिक्शा, बस, टेम्पोवाले सभी तो आते थे. कितने परेशान थे भाटियाजी. तुम्हें याद होगा भाटियाजी ने पीछे लिखवा दिया था- अंगूठी के नग को नगीना कहते हैं, यहां पेशाब करनेवाले को कमीना कहते हैं… उसे पढ़ लेने के बाद भी न जाने कितने कमीने वहीं पेशाब करते रहे. बेचारे भाटियाजी तो परेशान हो गए थे. फिर हार कर उन्होंने एक नई बात लिखवा दी थी- कृपया, यहां पेशाब न करें. पीछे मंदिर है… मुझे अब वहां का हाल नहीं मालूम, तुम विस्तारपूर्वक लिख भेजना, यहां तो ऐसी कोई बात होती नहीं जिसे पढ़ कर हंसने का मसाला मिले.
मां, यहां सब कुछ अच्छा है, पर मेरा दिल फिर भी नहीं लगता. तुम ठीक कहती हो, रहते-रहते मन भी लगने लग
जाएगा. मां जो खिलाए, गाना उसी का गाना चाहिए. मैं दो साल से इस देश का अनाज खा रही हूं. पर गीत अपने ही
देश का गाती हूं. कितना भी कह लो मां, इस देश की हवा मिट्टी में वह अपनापन नहीं है.
मैंने अपने पति से बीसियों बार कहा है, “भारत चलो, इंजीनियर हो, कोई अच्छी नौकर मिल जाएगी.” पता है वह क्या कहते हैं, “मैं नौकरी हासिल करने के लिए दस लाख रुपए रिश्वत नहीं दे सकता.”
भला यह भी कोई बात हुई. इनमें तो एक भी भारतीय संस्कार नहीं रह गया है. हम अपने भारतीय संस्कारों पर कितना गौरव महसूस करते हैं! मैंने तो इनसे साफ़-साफ़ कह दिया है कि यह मत भूलो कि भारत देश की मिट्टी ने ही तुम्हारे जिस्म और पुट्ठों को जवान किया है. यदि थोड़ी रिश्वत दे भी दोगे तो क्या हो जाएगा? आगे उससे ज़्यादा कमा भी तो लोगे.
मेरे पति तो किसी बात को समझते ही नहीं, कहने लगे, “वह कैसे?” मैंने उन्हें समझाते हुए कहा जब तुम कुर्सी पर आओगे तो नौकरी देते वक़्त तुम भी अपने हाथ नोटो से भर लेना, पर उन्हें तो जैसे मेरी बात समझ ही नहीं आती, पर जब अख़बारों में करोड़ो रुपयों के घोटालों की बात पढ़ते हैं तो भारतीय संस्कारों की दुहाई देते हैं.
सच में मां, मुझे यदि यहां नौकरी मिलने में कोई परेशानी हुई, तो में हर हथकंडा इस्तेमाल कर लूंगी. पर यहां घूस चलती ही नहीं है. इसलिए तो घर में बैठी-बैठी बोर हो जाती हूं, यहां अपने देश जैसी पार्टियां भी नहीं होतीं, जहां बड़े अफसरों और बिज़नेसमैन की बीवियां, आए दिन होटलों में मिलती-जुलती रहें. यहां सिर्फ़ शनिवार और इतवार को ही मिलना होता है. पूरे सप्ताह लोग काम करते हैं. एक चीज़ तो मुझे बहुत ज़्यादा अखरती है. वह यह कि सुबह दस बजे से किसी सहेली का फोन नहीं आता. वहां तो दस बजते-बजते सारे शहर की ख़बर जेब में होती थी. यहां बसों के पीछे वह लाल तिकोन का निशान भी नहीं दिखता. वहां तो सड़कों पर ही पढ़ने को बहुत कुछ मिल जाता था, जिससे मन बहल जाता था, मसलन बसों के पीछे लिखा- दो या तीन बच्चे बस… और ट्रकों के पीछे लिखा- बीवी रहे टिप टॉप, दो के बाद फुल स्टाप… ठहरो… देखो… व जाओ… और अगले ही मोड़ पर एक्सीडेंट.
मां, तुम्हें क्या-क्या लिखूं, जो मज़े मैंने भारत में किए वैसा तो यहां कुछ भी नहीं है. अरे हां, अपना प्रकाश चाटवाला कैसा है? उसे मेरा नमस्कार कहना, उससे कहना दीदी तुझे बहुत याद करती है. मां प्रकाश भी क्या चाट बनाता था. यहां भी भारतीय बाज़ार है. पूरा मार्केट है, जिसमें भारतीयों की ही दुकानें हैं. चाट भी मिलती है और मद्रास का डोसा भी. पर मां वह भारतीय ख़ुशबू जो मेरे तन-मन में बसी है यहां की किसी चीज़ में नहीं मिलती.

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टी.वी. पर भी जब कोई प्रोग्राम देखती हूं, तो भारत की याद आती है. बीच-बीच में जो एडवरटाइजमेन्ट दिखाए जाते हैं बिलकुल बेहूदे से लगते हैं, उनमें वह बात कहां जो नए भारत की नई तस्वीर हमारा बजाज या निरमा साबुन जो घुलता भी कम है और टिकिया का दाम भी कम है… यहां तो ओ. के. नहाने का बड़ा साबुन जैसी कोई बात नहीं है. टी. वी. देखने में मज़ा ही नही आता.
यहां तीन सिनेमा हॉल हैं, जहां भारतीय फिल्में दिखाई जाती हैं. सच कहती हूं मां, जब सिनेमा देखकर आती हूं, तो ख़ूब रोती हूं. अपनी जूही चावला, आमिर खान, अमिताभ बच्चन, रेखा को देखकर लगता है कि ये कितने क़िस्मतवाले हैं. अपने ही देश में हैं. इंसान तो रोटी के लिए ही यहां-वहां भागता है. रोटी तो मां अपने देश में भी मिलती है, पर तुम सच कहना मां, क्या अमीर और गरीब की रोटी में फ़र्क़ नही होता?
पैसा तो यहां ख़ूब है. रहन-सहन भी बहुत ऊंचा है, पर यहां फिर भी वह बात नहीं है,‌ जो अपने देश में है. मैं कल साग-भाजी लेने इंडियन स्टोर पर गई थी. वहां पर यह गीत बज रहा था- क़ैद में है बुलबुल… मां सच में मेरा हाल उस बुलबुल की तरह है, जिसका पिंजरा सोने का है. आगे तुम खुद समझ लेना.

– तेजेन्द्र खेर

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Usha Gupta

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