अनिरूद्ध अभी ऑफिस जाने की तैयारी कर ही रहा था, तभी एक अंजान नंबर से उसके मोबाइल पर कॉल आया. अनिरूद्ध के फोन उठाते ही उधर से उस व्यक्ति ने कहा, “नमस्ते अवस्थीजी मैं रायपुर से एस्टेट एजेंट बजाज बोल रहा हूं. आपका पांच मिनट समय चाहिए.”
एस्टेट एजेंट सुनते ही अनिरूद्ध थोड़ा अपनी गतिविधियों पर विराम लगाते हुए बोला, “हां कहिए मिस्टर बजाज कैसे याद किया.”
“अवस्थीजी मैंने सुना है कि आप अपना रायपुरवाला मकान बेचना चाहते हैं.” एस्टेट एजेंट बजाज ने बगैर कोई औपचारिकता या भूमिका बांधे सीधे मुद्दे पर बात करना प्रारंभ कर दिया.
“हां, उसे निकालना तो चाहते हैं. क्या आपके पास ऐसा कोई बंदा है, जो उस मकान का सही दाम दे सके.” अनिरूद्ध ने शायद मकान की क़ीमत जानने की मंशा से कहा.
“अरे अवस्थीजी ख़रीददार तो लाइन में खड़े हैं, मौक़े की जगह है, मकान तो हाथोंहाथ बिक जाएगा और आपको मुंहमांगी अच्छी-खासी मोटी रकम भी मिल जाएगी. बस आप हामी तो भरिए.” बजाज की आवाज में एक खनक थी मानो उसके और अनिरूद्ध के बीच जैसे मकान का सौदा पक्का हो गया हो.
“मिस्टर बजाज मुझे वह मकान तो बेचना ही हैं. अब यहां भोपाल में बैठकर तो उस मकान की देखभाल संभव नहीं है और ना ही उसे किराए से देकर मैं अपना सिरदर्द बढ़ाना चाहता हूं. मेरी तरफ़ से सौदा पक्का ही समझिए बस रेट सही मिलना चाहिए.”
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यह सब कहते हुए अनिरूद्ध का कंठ भर आया. उसके लफ़्ज़ों से उसके भावों का कोई मेल नहीं था. वह कह कुछ रहा था और उसके चेहरे के भाव कुछ और ही बयां कर रहे थे. इस बात से एस्टेट एजेंट बजाज पूर्ण रूप से अनभिज्ञ था, साथ ही साथ वहां खड़ी अनिरूद्ध की पत्नी नुपुर भी अपने पति के मनोभाव से बेख़बर थी. नुपुर को यह पता भी नहीं था कि उस मकान से जुड़े अपने बचपन की कई सुनहरी और ख़ुशनुमा यादों का बक्सा अनिरूद्ध ने अपने दिल में सहेजकर रखा है. नुपुर का पूरा ध्यान तो केवल मकान और उसके बेचने की बातों पर ही केन्द्रित था.
“अच्छा तो फिर ठीक है. मिल-बैठकर लेन-देन की सारी बातें और ज़रूरी काग़ज़ी कार्यवाही पूरी कर लेते हैं.” बजाज ने बगैर विलंब किए फौरन कहा.
“हां, मैं आता हूं दो दिन बाद रायपुर, आप डील फाइनल ही समझिए.” ऐसा कहकर अनिरूद्ध ने फोन रख दिया और अपने ऑफिस के लिए निकल गया.
सारे रास्ते अनिरूद्ध को बस रायपुर के मकान में गुज़ारें अपने बचपन की कुछ छोटे-छोटे दृश्यों की झलकियां स्मरण होने लगी थी. ऑफिस पहुंचकर भी उसका पूरा ध्यान रायपुर के मकान पर ही रहा. अनिरूद्ध को एक-एक कर सब याद आने लगा, उसके कानों में अपनी महरुम नानी की आवाज़ सुनाई पड़ने लगी, जो उसे प्यार से अनु… अनु… पुकारा करती थी. अनिरूद्ध स्वयं को उस घर के आंगन में खिलखिलाता-दौड़ता हुआ देख रहा था और अपनी नानी को अपने पीछे उसे पकड़ने को भागती हुई. मां को विशाखा मामी के संग सब्ज़ियां साफ़ करती और हंसती हुई. यह सारे दृश्य चलचित्र की भांति अनिरूद्ध की आंखों के समक्ष दृष्टांत हो रहे थे.
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अनिरूद्ध अब भी नहीं भूला जब वह बचपन में अपनी मां मुक्ता के संग अपने ननिहाल रायपुर जाया करता था. आसपास की औरतें उसकी बलाइयां लेती नहीं थकती थीं. कहने को विशाखा मामी, जो पड़ोस में रहती थी, मां की मुंहबोली भाभी और उसकी मामी थी, लेकिन उनका निश्छल प्रेम, लाड़-प्यार और दुलार किसी अपनों से कम नहीं था. यहां आकर अनिरूद्ध को एक और बात समझ नहीं आती थी कि वह अवस्थीजी के बेटे से मुक्कू का बेटा कैसे बन जाता है. धीरे-धीरे जब वह और थोड़ा बड़ा हुआ, तो उसे समझ आने लगा कि ननिहाल ही एक मात्र ऐसा स्थान है, जहां किसी भी बच्चे को उसकी मां के नाम से जाना जाता है, वरना दुनिया के किसी भी कोने में हर बच्चा अपने पिता के नाम से ही पहचाना जाता है.
आज भी अनिरूद्ध अपनी नानी की लोरिया, स्नेह व स्पर्श आंखें बंद करके महसूस कर सकता था. अनिरूद्ध की मां अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी, जिसकी वजह से उसकी नानी ने अपने जीते जी अपनी सारी संपत्ति, वैसे तो नानी के पास ज़्यादा कुछ था नहीं, लेकिन जो कुछ भी था उन्होंने सब अपने घर के साथ अनिरूद्ध के नाम कर दिया था. जब तक नानी जीवित रही अनिरूद्ध अपनी मां के संग रायपुर जाया करता था, किन्तु नानी के आंखें मूंदते ही मां का रायपुर जाना बंद हो गया और अनिरूद्ध का भी. समय बीतता गया और फिर एक दिन मां और पापा ने भी जीवन का डोर छोड़ दिया. इन्हीं सब ख़्यालों में खोया अनिरूद्ध का पूरा दिन निकल गया.
दूसरे दिन भी अनिरूद्ध अपने विचारों के भंवर जाल में कुछ इसी तरह से ही फंसा रहा और यूं ही दो दिन बीत गए. दो दिनों के पश्चात जब अनिरूद्ध एस्टेट एजेंट मिस्टर बजाज से मिलकर अपनी नानी के घर का सौदा करने रायपुर पहुंचा और जैसे ही वह रेलवे स्टेशन से बाहर निकला, लोगों की भीड़ ने उसका ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींच लिया. आख़िर मामला क्या है यह जानने के लिए अनिरूद्ध उत्सुकतावश भीड़ की ओर बढ़ गया. भीड़ के क़रीब पहुंच कर उसने देखा एक अर्धमूर्छित महिला मैले-कुचैले चिथड़े में लिपटी स्वल्पाहार की दुकान के सामने से हटने का नाम नहीं ले रही है. दुकानदार और वहां पर मौजूद लोग उसे वहां से खदेड़ने का प्रयास कर रहे हैं.
उस महिला को देख कर ऐसा लग रहा था कि शायद वह कोई भिखारिन है और भूखी भी है, जो संभवतः कई दिनों से कुछ खाई भी नहीं है शायद, इसलिए वह उस दुकान के सामने से हट भी नहीं रही थी. अनिरूद्ध ने जब उस महिला को गौर से देखा, तो वह सन्न रह गया. उसकी आंखें झिलमिला गई. उसे पहचानना मुश्किल था, लेकिन अनिरूद्ध के स्मृति पटल में इस महिला की अमिट छवि आज भी सजीव थी, यह महिला कोई और नहीं विशाखा मामी थी. उनकी इस दुर्दशा पर अनिरूद्ध हैरान था. उसने मिस्टर बजाज से मिलना स्थगित कर दिया.
अनिरूद्ध ने फिर विशाखा मामी को वहीं सामने की दुकान से खाने का कुछ सामान लेकर खिलाया और सीधे उन्हें लेकर स्थानीय हॉस्पिटल पहुंचा, क्योंकि विशाखा मामी की हालत काफ़ी ख़राब थी और वह अनिरूद्ध को पहचान भी नहीं रही थी. डॉक्टर ने बताया की उनकी यह हालत सदमे की वजह से है, जो समय के साथ ठीक हो जाएगा, लेकिन कम से कम पंद्रह दिनों के लिए उन्हें हॉस्पिटल में रखना होगा.
विशाखा मामी को हॉस्पिटल में भर्ती कराने के उपरांत जब अनिरूद्ध ने उनके इस दुर्दशा का कारण मालूम किया, तो पता चला कि उनके दोनों बेटों ने उनका घर बेच दिया है और रुपयों को आपस में बांट, उन्हें यहां अकेला छोड़कर भाग गए हैं. तब से विशाखाजी बेसहारा यहां-वहां भटक रही हैं.
मुंहबोली ही सही पर विशाखाजी अनिरूद्ध की मामी थी, जिन्होंने उसे अपनों से बढ़कर स्नेह दिया था. अनिरूद्ध उन्हें इस तरह बेसहारा अकेला छोड़ कर नहीं जा सकता था, इसलिए उसने मिस्टर बजाज से मिलकर यह निर्णय लिया कि वह अपने नानी का घर नहीं बेचेगा, बल्कि उसे एक नए घर का स्वरूप देगा और उस घर का नाम होगा ‘रैनबसेरा’ जिसमें विशाखाजी की तरह बेबस, बेसहारा और अपनों से ठुकराए लोग उसमें आसरा पा सकेंगे.
पंद्रह दिनों बाद जब अनिरूद्ध हॉस्पिटल पहुंचा और उसने विशाखाजी को रैनबसेरा के बारे में बताया, तो वह बहुत प्रसन्न हुईं, लेकिन जब अनिरूद्ध ने उन्हें अपने संग भोपाल चलने का आग्रह किया, तो उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया, “अनु बेटा, मुझे यही रैनबसेरा में ही रहने दे. मैं यही रहना चाहती हूं. यहां रह कर मैं अपने जैसे लोगों का दर्द बांटना चाहती हूं.”
विशाखाजी का मान रखते हुए अनिरूद्ध उनकी बात मान गया और अपनी नानी का मकान जो अब बेबस, बेसहारा लोगों का रैनबसेरा था की बागडोर अपनी मामी विशाखाजी को देकर प्रसन्नचित्त मन से भोपाल लौट आया.
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