उस दिन उन दोनों ने एक कैफे में मिलने का फ़ैसला किया. उसका मनपसंद नीले रंग का सूट पहनकर खुले बालों के साथ ४५ बसंत देख चुकी शुभिका जब कैफे पर पहुंची, तो बुक की गई टेबल पर बैठा रवि उसे पहचान ही नहीं पाया, “यह तुम ही हो ना?”
“तुम्हें क्या लगता है?”… शुभिका के होंठों पर शरारत भरी मुस्कान थी.
मंत्रमुग्ध सा रवि अपनी आंखें झपकाने से भी कतरा रहा था. उसका यह हाल देखकर शुभिका ने उसकी आंखों के सामने चुटकी बजाई और डांट कर बोली, “बस भी करो आसपास लोग बैठे हैं… कुछ तो ख़्याल करो उनका.” और ये कहते कहते उसके चेहरे पर शर्म की लाली बिखर गई.
“बरसों हो गए… तुम्हारे इस रूप को देखने को तरस गया था ना.. इसलिए…” कहते रवि ने अपने आप को संभाल कर वेटर को इशारा किया और बिना शुभिका से पूछे उसकी मनपसंद गार्लिक ब्रैड और साथ में काॅफी ऑर्डर कर दी.
ऑर्डर सुनकर शुभिका के होंठों पर भीनी सी मुस्कान छा गई, “तुम्हें याद है अब तक?”
“और नहीं तो क्या? तुम से जुड़ी कोई भी बात भूल सकता हूं क्या? बस कभी जताया नहीं…” रवि ने शुभिका का हाथ अपने हाथों में लेने की कोशिश की, तो उसने घबरा कर हाथ छुड़ा लिया.
“तुम्हारी ये आदत भी अब तक नहीं बदली.” झूठे ग़ुस्से के साथ शुभिका बोली.
“अजी वो आदत ही क्या जो बदल जाए.” रवि शायराना अंदाज़ में गुनगुना उठा.
इसके साथ ही दोनों हल्की सी हंसी बिखेर कर इधर-उधर देखने लगे कि कहीं कोई उनके जान-पहचान का तो नहीं है.
उस दिन उस कैफे में बैठे शुभिका और रवि ने अपने पुराने दिनों को भरपूर जिया और अपने दिल की बातें जो वो एक-दूसरे से कहना भूल चुके थे वह सब कह डालीं.
उम्र के इस पड़ाव पर भी दोनों प्यार में डूबे किसी नए जोड़े जैसे लग रहे थे… एक-दूसरे की आंखों में आंखें डाले… हाथों की उंगलियों से एक-दूसरे को छूने का प्रयास करते और आंखों ही आंखों में हज़ारों बातें करते… यूं ही बैठे-बैठे कब दो घंटे निकल गए पता ही नहीं चला.
काॅफी का ऑर्डर भी रिपीट हो चुका था… घड़ी की तरफ़ देखती हुई शुभिका का घबराना शुरू हो चुका था, “हे भगवान! माँ के खाने का समय हो चुका है. इतनी देर हो गई मुझे… समय का पता ही नहीं चला. अब वो ज़रूर ग़ुस्सा करेंगी. मैंने कहा था न कि मेरा इस तरह तुमसे मिलने आना ठीक नहीं.” शुभिका बिल्कुल उस नवयौवना की तरह घबरा रही थी, जो अपने प्रेमी से मिलने आई हो.
“अरे, तो अपनी सासू मां के लिए कुछ बना कर आई तो होगी न?” रवि उसे सांत्वना देने के अंदाज में बोला.
“रही बात बच्चों की तो यही सब कुछ उनके लिए भी पैक करवा लो.”
रवि की बात सुनते ही शुभिका के चेहरे का सारा तनाव छूमंतर हो गया.
“हां मां के लिए खिचड़ी बनाई तो थी. अच्छा चलो उठो. तुम अपने ऑफिस जाओ और मैं अपने घर जाती हू, बस हमारी इस मुलाक़ात के बारे में किसी को पता न चल जाए और तुम ढोल मत पीटने लग जाना.” कहती शुभिका ने रवि की तरफ़ चेतावनी भरी नज़र डालते हुए हाथ जोड़े.
एक-दूसरे को अलविदा कहकर दोनों अपने-अपने रास्ते पर चल पड़े इस इंतज़ार में एक दिन फिर से मिलेंगे ऐसे ही किसी और कैफे में.
शुभिका घर पहुंची, तो सासू मां मुंह चढ़ाए बैठी थीं.
“कहां निकल गई थी महारानी बिना कुछ बताए. बच्चे कब से ढूंढ़ रहे हैं.” शुभिका के साज-सिंगार को खोजी नज़रों से टटोलती सासू मां तीखी आवाज़ में बोलीं.
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“बता कर तो गई थी मां कि अपनी एक पुरानी सहेली से मिलने जाना है. शायद आप भूल गईं. आपका खाना भी मैंने बनाकर रख दिया था और बच्चों के लिए मैं उनकी पसंद का सामान लेकर आई हूं.” कहते हुए शुभिका ने फटाफट रसोई में जाकर मांजी की खिचड़ी गर्म की और रायता, अचार, पापड़ वगैरह सबके साथ उन्हें परोस दी. सासू मां हैरान थीं. जिस शुभिका को कुछ कहते ही उसका पारा चढ़ जाता था. आज वो इतनी बातें सुनकर भी मुस्कुरा रही थी.
बच्चे भी अपने मनपसंद सैंडविच खा कर ख़ुश थे. मम्मी इतनी देर से घर में नहीं थी यह बात वो दोनों कब के भूल चुके थे.
उस दिन शुभिका ना तो मांजी के बड़बड़ाने पर खिसियाई और ना ही बच्चों के परेशान करने पर उन्हें डांटा-डपटा. रवि के साथ कैफे में हुई मुलाक़ात उसके मन को रिफ्रेश कर गई थी और यही रिफ्रेशमेंट आज उसके अंदर से फूट-फूटकर पूरे घर में बिखर रहा था.
उधर रवि भी ऑफिस में अपने रोज़मर्रा के काम को मशीन की तरह नहीं, बल्कि ख़ुशी से निपटा रहा था. बॉस की झिड़कियां आज उतनी कड़वी नहीं लग रही थीं.
उसे याद आया कि पहले भी जिस दिन वो शुभिका से मिलकर आता था, उसका दिन अच्छा ही जाता था.
शाम को जब रवि घर पहुंचा, तो वह बिल्कुल सामान्य था जैसे कुछ हुआ ही ना हो, लेकिन कुछ तो हुआ था.
आज शुभिका और रवि अपनी सभी ज़िम्मेदारियों को भुलाकर थोड़ी देर के लिए ख़ुद के लिए जिए थे. जहां उन्हें रोकने-टोकने वाला कोई नहीं था. ना तो मां की खोजी नज़रें और ना ही बच्चों की शिकायतें… आज का ये दिन उन्हें बरसों की नीरस ज़िंदगी से निज़ात दिला गया था. चाहे कुछ घंटों के लिए ही सही, कैफे की ये मुलाक़ात उनके बासी हो चुके रिश्ते को फिर से तरोताज़ा कर गई थी.
रात में सोने से पहले एक-दूसरे के हाथों में हाथ थामें शुभिका और रवि ने एक-दूसरे से वादा किया था, अपने लिए फिर से समय चुराने का… अपने उन एहसासों को जीवित रखने का जिन पर ज़िम्मेदारियों की परत चढ़ती जा रही थी… हां, आज उन्होंने, सबसे छुप कर एक कैफे में मिलने का फ़ैसला किया था और इस मुलाक़ात ने उन्हें समझा दिया था कि कभी-कभी अपने लिए ख़ुशियों के पल चुराना कोई पाप नहीं होता.
दो हफ़्तों के बाद रवि और शुभिका फिर से एक कैफे में बैठे हुए थे, लेकिन इस बार कैफे कोई और था, क्योंकि एक ही जगह बार-बार जाना ठीक नहीं… कहीं पकड़े गए तो?
शादीशुदा ज़िंदगी की एक लंबी पारी खेल चुके पति-पत्नी के दरमियान एक ऐसा समय आता है, जब वो अपने अलावा बाकी सब का ध्यान रखते हैं और एक-दूसरे की बजाय औरों को समय देते हैं.
और किसी रिश्ते के लिए शायद ऐसा करना ठीक भी हो, लेकिन पति-पत्नी के लिए यह उनके रिश्ते के ख़त्म होने की शुरुआत होती हैं. वो किसी के बेटा-बहू, भाई-भाभी और माता-पिता सब कुछ होते हैं, लेकिन पति-पत्नी नाम के रह जाते हैं.
इसलिए अपने पति-पत्नी के इस रिश्ते को ज़िंदा रखिए… ज़िम्मेदारी पूरी करिए, लेकिन सिर्फ़ दूसरों की ही नहीं अपने इस रिश्ते को ख़ुशनुमा बनाए रखने की और इसके लिए रिश्तों को रिफ्रेशमेंट देना बहुत ज़रूरी है.
– शरनजीत कौर
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