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कहानी- सबसे बड़ी सौग़ात (Short Story- Sabse Badi Saugat)

भैया ने काग़ज़ों पर विश्‍वास किया, मुझ पर नहीं. यह बात मुझे बहुत खल रही थी. पलभर में हम दोनों भाई-बहन के बीच एक पथरीली दीवार खड़ी हो गई थी, जो ऊंची और अगम्य है. उस दिन आहत मन लिए मैं घर लौटी, लेकिन भैया को कुछ भी न बताया, न ही कुछ पूछा.

औरत उम्र के चाहे जिस पड़ाव पर हो, अपने जीवन में कितनी ही व्यस्त क्यों न हो, उसके दिल में तब अलग ही ख़ुशी छा जाती है, जब उसके मायके से कोई ख़ुशी का संदेशा आता है और वह सब कुछ छोड़-छाड़ मायके का रुख कर लेती है. आज मेरी भी स्थिति कुछ वैसी ही हो गई थी. जब भैया ने जतिन यानी अपने लड़के की शादी की सूचना मुझे फोन पर दी थी. मेरा मन मयूर नाच उठा. भैया ने बहुत दबाव डालकर शादी से एक महीने पहले ही बुलाया था. साथ ही बड़े अधिकार से दशहरी आम की फ़रमाइश भी की थी. भैया की आवाज़ में वही चिर-परिचित प्यार-मनुहार पाकर मन ख़ुशी से आह्लादित हो उठा. फिर तो मेरा मन पूरे दिन पीछे छूट गए मासूम बचपन और बेफ़िक्र जवानी के दिनों में डुबकी लगाता रहा. मैं उसी समय से अपनी सारी व्यस्तता को झटक बड़े ही उत्साह से शादी में जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गई. एक ही हफ़्ते में लखनऊ की विशेष साड़ियां, सूट और बहू के लिए सोने के कड़े के साथ-साथ ढेरों नमकीन, मिठाइयां और दशहरी आम के टोकरे बंधवा लिए थे. एक बार फिर सारे घर की ज़िम्मेदारियां सासू मां को सौंप निश्‍चिंत होकर पटना के लिए रवाना हो गई थी. आशा के अनुकूल भैया ख़ुद स्टेशन पर मुझे लेने आए थे. स्टेशन से निकलते ही एक बार फिर नज़र आया, अपना वही पुराना पटना शहर, ट्रैफिक की चिर-परिचित कानफोड़ आवाज़ें, सड़क के किनारे छोटी-छोटी दुकानें, भागते व्यस्त लोगों की भीड़, समोसे और जलेबियों के तले जाने की पहचानी ख़ुशबू के साथ आसपास फैली अस्त-व्यस्तता भी अपने आप में अपनापन समेटे मुझे रोमांचित कर रही थी. इन सबके बीच से गुज़रती गाड़ी तेज़ी से घर की तरफ़ दौड़ रही थी. जहां पहुंचने का दिल बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था. घर पहुंच, फ्रेश होकर बैठते ही चाय-पानी के साथ-साथ बातों का सिलसिला शुरू हो गया था. भैया भी मुझे कुछ ज़्यादा भाव देते हुए भाभी से बोले, “सुनती हो नैना, निधि के आने से सबसे बड़ा फ़ायदा तुम्हारा ही होगा. तुम्हारे काम में हाथ बंटाने के साथ-साथ सारे रस्मो-रिवाज़ निभाने में भी तुम्हारी सारी परेशानियां दूर कर देगी. अम्मा के साथ शादी-ब्याह में भाग लेने से इसे सारे रस्मो-रिवाज़ याद हैं.” यह सब बोलकर भैया शायद पहले की तरह मुझे महत्व देना और अपना अटूट प्यार जताना चाह रहे थे, लेकिन न जाने क्यूं मुझे उनके शब्द खोखले लगे. “अब रस्मों का क्या है? निभाए ही कितने जाते हैं?” भाभी अपने चेहरे पर एक ज़बरदस्ती की मुस्कान लाते हुए बोलीं. भाभी की आंखें और बोलने के लहज़े ने मेरे सारे उत्साह पर पानी फेर दिया. मैं उठकर नमकीन और मिठाइयां निकालकर टेबल पर रखने लगी, जिसे देखकर भैया बोले, “अरे, ये क्या रे छुटकी, ये तूने क्या किया है? पूरी की पूरी लखनऊ शहर की मिठाइयां ही ख़रीदकर ले आई है, लखनऊवालों के लिए कुछ छोड़ा भी है या नहीं.”

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“बस… बस… भैया, इतना भी नहीं है. शादी-ब्याह का घर है, देखते-देखते ये सारी समाप्त हो जाएंगी.” मेरे बोलने के साथ ही भाभी का कटाक्ष चल पड़ा, “पहले की बात कुछ और थी, अब किसके पास इतना समय है कि महीनाभर अपना घर छोड़कर शादी-ब्याह में रौनक़ बढ़ाने और पकवान खाने आएगा. एक-दो दिनों के लिए कोई आ जाए, यही बहुत है.” बात भाभी ठीक ही बोल रही थीं, पर न जा ने क्यूं ये बात शूल की तरह मेरे अंतस में कहीं चुभ रही थी. थोड़ी देर आराम करने के बहाने मैं अपने कमरे में चली गई. यह मेरा वही कमरा था, जहां मैंने अपने जीवन के सबसे बहुमूल्य समय गुज़ारे थे. कमरे का रंग-रोगन और फर्नीचर सब बदल गया था, रह गई थीं चंद यादें और मेरे अनगढ़ हाथों से बनी पेंटिंग, जिसमें मैं भैया को राखी बांध रही थी. उस समय मैं छठी या सातवीं में पढ़ती थी. भैया ने बड़े शौक़ से उस पेंटिंग पर फ्रेमिंग करवाया था. मैं यूं ही कमरे में लेटी यहां-वहां की बातें याद करती रही. रात के समय जब सब के साथ खाने बैठी, तो मुझे आशा थी कि भाभी ने भी मां की तरह ही मेरी पसंद की एक-दो खाने की डिशेज़ तो अवश्य बनवाई होंगी, पर खाना देखते ही सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. सूखी रोटी के साथ एक सब्ज़ी और रायता था. हां, खाने के बाद भैया ने रसमलाई खिलाकर मेरी मायूसी थोड़ी-सी कम कर दी थी. भैया-भाभी जब शादी की किसी चर्चा में व्यस्त हो गए, तो मैं पापा के पास जा बैठी. बुढ़ापे ने उन्हें इतना अशक्त बना दिया था कि ख़ुशी-ग़म सब उनके लिए समान हो गए थे. उनका ध्यान दुनिया की हर ख़ुशी और ग़म से विरक्त हो, अपने खाने और सोने पर आकर थम-सा गया था, बस घिसे हुए रिकॉर्ड की तरह एक ही प्रश्‍न बार-बार पूछ रहे थे. “सब ठीक है न.” थोड़ी देर बाद मैं सोने चली गई. पर आंखों में नींद कहां थी? उठकर आंगन में पड़ी चारपाई पर आ बैठी. सभी सोने चले गए थे. पूरे आंगन में सन्नाटा पसरा हुआ था. यह वही आंगन था, जिसमें कभी हमने न जाने कितने खेल खेले थे. एक पैर पर कूद कर पूरे आंगन का क्षेत्रफल नापा था, घरौंदे बनाए थे और कई तरह के खेल खेले थे. किसी आत्मीय स्वजन-सा प्यारा यह आंगन जाने क्यूं आज पराया-सा लग रहा था.
वक़्त के किसी पल में मेरी आंख लग गई और मैं वहीं चारपाई पर ही सो गई. चिड़ियों के कलरव के साथ सुबह नींद खुली, तो मैं चौंककर उठ बैठी. घर के सभी लोग अभी सो रहे थे. मैं दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल आई. बगीचे में पहले की तरह ही फूल और फल के पेड़ करीने से लगे हुए थे. कभी पापा ने ये घर और उससे लगा यह बगीचा मां को जन्मदिन के उपहार के रूप में दिया था. मां भी इसे बहुत संभालकर रखती थीं. देर तक मैं वहां बेंच पर बैठी पुरानी यादों को ताज़ा करती रही. मैं टहलकर वापस आई, तो सभी लोग चाय समाप्त कर रहे थे. भाभी ने वहीं से आवाज़ लगाकर शंकर को चाय लाने के लिए बोला, पर वह किसी काम से कहीं चला गया. कुछ देर इंतज़ार करने के बाद मैं यह सोचकर रसोईघर में चली गई कि अपना घर है, ख़ुद ही बना लूंगी तो क्या होगा? चाय बनाने के लिए जैसे ही चाय की पत्ती को हाथ लगाया था कि शंकर आ गया. आते ही बोला, “अरे दीदी, इस डिब्बे से चाय मत बनाइए, इस डिब्बे से स़िर्फ साहब और मेमसाहब के लिए चाय बनता है, आप दूसरे डिब्बे से बनाइए.” इतना बोलकर उसने एक दूसरा डिब्बा थमा दिया. शंकर के इस व्यवहार से मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने गर्म सरिया मेरे सीने में उतार दिया हो. फिर भी यह सोचकर कि नौकरों की बातों का क्या ये होते ही हैं झगड़ा लगानेवाले. मैं गोल दाने की कड़क चाय बनाकर डायनिंग टेबल पर आ बैठी. तभी कहीं से भाभी भी वहां पर आ गईं, “ये क्या निधिजी, आज भी आप गोलदानेवाली चाय पी रही हैं. पहले आप लीफ की चाय के अलावा किसी और चाय को हाथ भी नहीं लगाती थीं. लगता है ननदोईजी ने आपकी फ़ितरत ही बदल दी.” “नखरे तो आज भी मेरे वही हैं भाभी, पर आपके नौकर ने मुझे मेरी औक़ात बता दी.”

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मैंने भी तड़ से नहले पर दहला जड़ दिया. भाभी को वातावरण की गंभीरता समझते देर नहीं लगी. उन्होंने तुरंत शंकर को बुलाकर डांट लगाई और आगे से मुझे लीफ की चाय देने की हिदायत दे दी. नाश्ते के समय मेरे कहने पर भी भाभी मेरे लाए हुए नमकीन और मिठाइयों के प्रति उदासीन बनी रहीं. मैंने एक-दो डिब्बे निकालकर डायनिंग टेबल पर रख दिए. इतने जतन से चुन-चुनकर ख़रीदी गई मिठाइयां या तो फ्रिज में पड़ी थीं या घर के नौकरों के भोग लग रही थीं. जिस दशहरी आम के लिए ट्रेन में मेरी कई सहयात्रियों से झड़प हो गई थी कि आम दब न जाएं, वही आम अब स्टोररूम में लावारिस पड़े थे. फल और मिठाइयों का हश्र देख मन उदास हो उठा. नाश्ते के बाद मैं पड़ोस में रहनेवाली यमुना काकी के यहां चली गई. आशा अनुकूल उन्होंने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया और ड्रॉइंगरूम से ही बहुओं को चाय-नाश्ता बनाने के लिए आवाज़ लगाने लगीं. मुझे हंसी आ गई. “यमुना काकी, आप ज़रा भी नहीं बदली हैं. आज भी आपका अपनी बहुओं पर वही दबदबा है. अभी कुछ मत बनवाइए, मैं तुरंत नाश्ता करके आ रही हूं. अब तो यहां लगभग महीनाभर रहूंगी, फिर कभी आकर खा लूंगी.” “वो तो मुझे मालूम है, इस बार ज़्यादा दिनों तक रहोगी. तुम्हारे गोविंद भैया ने बताया था. जब वह शेखर से काग़ज़ बनवाने के लिए कहने आए थे.” यमुना काकी का बड़ा लड़का शेखर वकील है, इसलिए मुझे थोड़ा आश्‍चर्य हुआ. मैं कुछ पूछती उसके पहले वह ख़ुद ही बोलीं, “तुम शायद ऐसा न करो, लेकिन आजकल तो लड़कियों की प्रवृत्ति हो गई है, ससुराल में चाहे कितनी ही सुखी-सम्पन्न हों, पर मायके की संपत्ति पर उनकी नज़रें लगी रहती हैं. बहनें खुलेआम कोर्ट में जाकर अपने हक़ की बातें कर रही हैं. यह सब देखकर तुम्हारे भैया काग़ज़ बनवाने आए थे, ताकि तुम या तुम्हारे बच्चे उन्हें कभी भविष्य में कोर्ट में ना घसीटो.” मुझे लगा अचानक मेरे पांव जैसे किसी दहकते अंगारे पर पड़ गए हों. मैं क्या इतनी पराई हो गई थी कि अब भैया को मुझसे हानि पहुंचने का डर हो गया था. औरों की छोड़ दें, तो भी मेरे भैया ने मेरे लिए ऐसा कैसे सोचा? कभी हम दोनों भाई-बहनों में इतनी नज़दीकियां थीं कि मां-पापा को हम दोनों कोई बात बताएं या न बताएं, एक-दूसरे को ज़रूर बताते थे. भैया अपनी सारी ज़रूरतों को तिलांजलि दे, अपने पॉकेटमनी से मेरी इच्छाओं की पूर्ति करते थे, वही भैया मुझसे पूछे बिना, बाहरवालों से मिलकर अपनी संपत्ति मुझसे ही सुरक्षित कर रहे थे. मैं अपने को बहुत छोटा और पराया महसूस करने लगी थी.
यह सही है कि भाई-बहन के प्रेम को लोग गुज़रते समय के साथ नए सिरे से सीमाबद्ध करने लगे हैं. बहन के अधिकारों को लेकर बनाए गए नए क़ानूनों से इस रिश्ते के असहज और नैसर्गिक रूप को शक के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया है, जिसने रेशम की डोर से बंधे इस रिश्ते को भावनाविहीन कर दिया है. भैया ने काग़ज़ों पर विश्‍वास किया, मुझ पर नहीं. यह बात मुझे बहुत खल रही थी. पलभर में हम दोनों भाई-बहन के बीच एक पथरीली दीवार खड़ी हो गई थी, जो ऊंची और अगम्य है. उस दिन आहत मन लिए मैं घर लौटी, लेकिन भैया को कुछ भी न बताया, न ही कुछ पूछा.
जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे, भैया की व्यस्तता शादी के कारण बढ़ती जा रही थी, फिर भी मुझे लगता था जैसे भैया मुझसे कुछ कहना चाह रहे थे, पर कह नहीं पा रहे थे. शादी बहुत ही धूमधाम से हुई, पर एक फांस-सी मेरे गले में हमेशा अटकी रही. शादी के बाद सभी रिश्तेदार अपने-अपने घर लौटने लगे, तो मैंने भी लौटने की तैयारी शुरू कर दी. मेरे पति अविनाश और बेटा आदित्य एक दिन में ही बारात अटेंड कर लौट गए थे. मैं हिम्मत कर भैया से बोली, “भैया, मैं कल का टिकट मंगवा रही हूं वापस जाने के लिए.” “इतनी भी क्या जल्दी है, एक-दो दिन और बहू के साथ रह लो.” “सुनिए भैया, मैं जानती हूं आप को मुझसे कुछ कहना है. इस तरह संकोच करेंगे, तो बरसों गुज़र जाएंगे और आप अपनी बातें नहीं कह पाएंगे. जतिन तुम वह फाइल दो, जिसमें भैया ने मुझे संपत्ति से बेदख़ल करने के काग़ज़ात रखे हैं, मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूं, ताकि भैया मेरे जाने के बाद निश्‍चिंत रहें.” मेरी बातें सुन भैया जड़ से हो गए. जतिन वह फाइल ले आया, जो भैया के कमरे में रखी हुई थी. “रुको जतिन, निधि तू हस्ताक्षर मत कर. मैं ये विचार छोड़ चुका हूं, वरना तुमसे ज़रूर बात करता.” अचानक भैया के स्वर की आत्मीयता और बेचैनी महसूस कर इतने दिनों से दिल में जमा मलाल पिघलने लगा था. “आपको मेरे हस्ताक्षर नहीं चाहिए, पर मुझे हस्ताक्षर करने हैं. न जाने कब अपने शहर की मिट्टी और उसमें बसे अपने घर व संपत्ति का मोह इतना बढ़ जाए कि वह लालच में बदल जाए और जन्म के रिश्ते, प्यार व विश्‍वास सब शक के घेरे में आ जाएं, जो भाई-बहन के रिश्ते को ही बिखेर दें.

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सच पूछिए तो भैया, क़ानून ने स्त्रियों को चाहे जितने अधिकार दिए हों, चाहे वे कितनी ही अत्याधुनिक हों, पर स्त्रियां हमेशा प्यार और स्नेह वश अपना हक़ छोड़ती आई हैं, जिसे कभी उसके कर्त्तव्य का नाम दिया जाता है, कभी उसका धर्म बताया जाता है. फिर भी स्त्रियां सब सहती हैं. कितने ही दुख झेलती हैं, पर अपने प्यार के रिश्तों पर वार नहीं करतीं. भाई का रिश्ता भी तो जन्म से जुड़ा प्यार का रिश्ता ही होता है, फिर भला मैं मरते दम तक यह कैसे चाहूंगी कि मेरे भाई की संपत्ति पर कोई लालच भरी नज़र डाले, चाहे वह मेरा पति और मेरी संतान ही क्यों न हो? इसलिए मैं यह हस्ताक्षर ज़रूर करूंगी. बहन का सामर्थ्य भाई के विश्‍वास में होता है, संपत्ति में नहीं. अगर भाई का फ़र्ज़ बहन की स्मिता और सम्मान की रक्षा करना है, तो बहन का भी फ़र्ज़ है भाई के सुख और समृद्धि के लिए हर संभव प्रयत्न करना. उसे छीनना नहीं.” “एक बात और… भले ही बदलते समय के साथ आपका विश्‍वास मुझ पर से डगमगा गया है, पर आज भी मुझे पूरा विश्‍वास है कि मेरे सुख-दुख में आप ही मेरे एकमात्र संबल होंगे. यह विश्‍वास मेरे लिए किसी भी संपत्ति से बड़ा है.” बोलते-बोलते मेरा गला भर आया था और सभी भावुक हो उठे थे. भैया और भाभी की आंखें भर आई थीं. मेरे चुप होते ही, एक गहरा सन्नाटा-सा पसर गया, जिसने सभी को अपने-अपने दायरे में कैद कर दिया था. रिश्तों में अचानक उग आया कैक्टस सब को तकलीफ़ दे रहा था. मैंने बचपन से भैया के प्यार को बहुत ही गहराई से महसूस किया था, जो मुझे अभी तक एक-सा ही लगता था, फिर दोनों भाई-बहन के बीच यह अविश्‍वास कहां से आ गया? शायद संपत्ति के एक टुकड़े ने भाई-बहन के रिश्ते में सेंध लगा दी थी. जिस प्यार, विश्‍वास और अपनेपन को हम बचपन से रिश्तों में महसूस करते हैं, उनके होने का विश्‍वास रखते हैं, अगर हमारा वही विश्‍वास और भ्रम टूटता है, तो स़िर्फ आश्‍चर्य नहीं होता, गहरी पीड़ा की अनुभूति होती है. सभी कुछ समाप्त हो जाने का एहसास होता है. आज मुझे भी कुछ वैसा ही महसूस हो रहा था. दिल का वह कोना, जिसमें मायका बसता था, तिनका-तिनका बिखर गया था. यह दिल का वही सुरक्षित कोना था, जिस पर कभी मुझे बहुत नाज़ था, जो मेरा स्वाभिमान था, जिसके बिना मैं अपने आप को हमेशा आधी-अधूरी समझती थी. तभी भैया अचानक उठे और मेरे पास आकर पहले की तरह ही मेरे सिर पर अपना हाथ रखते हुए बोले, “जो हुआ सो हुआ, तू मन में दुख मत रख. मैं तुझे विश्‍वास दिलाता हूं, जब तक मैं ज़िंदा हूं तुम्हारे प्यार, विश्‍वास और अधिकार को कोई ठेस नहीं पहुंचाएगा यह वादा है मेरा तुझसे.” यह भी पढ़े: लघु उद्योग- इको फ्रेंडली बैग मेकिंग: फ़ायदे का बिज़नेस (Small Scale Industries- Profitable Business: Eco-Friendly Bags) मेरे मुंह से बेसाख़्ता निकल पड़ा, “मुझे स़िर्फ प्यार का अधिकार चाहिए, संपत्ति का नहीं.” मेरे इतना बोलते ही, अचानक सभी की हंसी छूट गई, सभी की खिलखिलाहटों से कमरा गूंज उठा. अब तक बोझिल बना वातावरण काफ़ी हद तक हल्का हो गया था. दूसरे दिन स्टेशन जाने के लिए निकलते समय जब मैं भाभी के पैर छूने के लिए झुकी, तो सीने से लगाते हुए उनकी आंखों से अविरल अश्रुधार बह निकली और अचानक मां की याद ताज़ा हो गई. भैया और जतिन की आंखें भी भर आई थीं. सौम्या ने गले से लिपटते हुए मुझसे फिर से जल्दी आने का आग्रह किया, तो दिल का कोना-कोना प्यार से सराबोर हो गया. मन में जमा अब तक का सारा क्लेश धुल गया. इस भावभीनी विदाई के प्रवाह में सारे गिले-शिकवे मिट गए और रह गया एक सुखद तृप्ति का एहसास, जो मायके की सबसे बड़ी सौग़ात थी.

रीता कुमारी





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