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कहानी- समर्पण (Short Story- Samarpan)

एक बात मेरे दिलो-दिमाग़ में ज़रूर घूमती रहती कि मैं तो इस काल्पनिक मनःस्थिति से संतुष्ट हो लेती हूं, परंतु तुषार भी तो एक संपूर्ण पुरुष है और फिर वह भी तो रति-काम की इस दुनिया में विचरण कर रहा है. वह अपनी शारीरिक संतुष्टि और मानसिक शांति के लिए अगर किसी और की बांहों में विश्राम करने लगा, तो मेरा क्या होगा? बस यहीं आकर मेरा समीकरण गड़बड़ा गया. मेरा विश्वास डोल गया और एक तीव्र वेदना से हृदय जल उठा.

मैंने एक उड़ती सी निगाह उस पर डाली. हां वह तुषार ही तो है. चश्मे का फ्रेम बदल गया है. एक अंतराल के बाद मैं दिल्ली एक अधिवेशन में आई थी, वहीं से लौटते समय स्टेशन पर अचानक तुषार दिख गया था. मेरा अल्हड़पन और बेरुखी ही हमारे बिछोह का कारण बना था. मैंने चोर निगाह से उसकी गतिविधियों का बारीकी से निरीक्षण किया. यह देखने के लिए कि शायद उसके साथ उसकी कोई नई सहयोगी या जीवनसाथी हो, लेकिन ऐसा कोई दिखा नहीं.
मैं जान-बूझकर एक-दो बार उसके सामने से गुज़री, परंतु कुछ बोली नहीं, लेकिन उसने भी मुझे अनदेखा कर दिया. मेरा अन्तर्मन एक बार फिर आहत हो गया था. तभी मेरी गाड़ी आ गई और मैं अपने कम्पार्टमेन्ट में चढ़ गई. ५ मिनट के विराम के बाद रेल ने एक लंबी सीटी दी और धीरे-धीरे स्टेशन छोडने लगी. मेरी निगाहें अभी भी तुषार को ही ढूंढ़ रही थी. धुंधली होती तस्वीर को जब मैंने घ्यान से देखा, तब पाया कि तुषार अपलक मेरे कम्पार्टमेंट को देख रहा है. शायद इस उम्मीद में कि गाड़ी रुक जाएगी और मैं रेल से उतरकर तुषार के पास पहुंच जाऊंगी.
मैंने एक चादर निकाली और बर्थ पर लेट कर ओढ़ लिया. तुषार को देखकर एकाएक पुरानी यादें ताज़ा हो चली थीं. मैं चार भाइयों में अपने पापा की इकलौती लाड़ली बेटी और लाड़ली बहन थी. मुझे हाथोंहाथ लिया जाता था.

इसी लाड़-दुलार ने मुझे अल्हड़ और मुंहफट बना दिया था. मां जब कोई संस्कार की बात करती, घर-गृहस्थी और दुनियादारी की बात बताती, तब मैं बेरुखी से उसे हवा में उड़ा देती. पढ़ाई-लिखाई और खाते-खेलते बचपन कब गुज़र गया, मालूम ही नहीं पड़ा. जब तुषार अपने माता-पिता के साथ मुझे देखने आया, तब एहसास हुआ कि मैं बड़ी हो गई हूं. मेरी ख़ुशी के लिए मेरे चारों भाई हाथ बांधे खड़े थे. पापा डबडबाई आंखों से मुझे देख रहे थे. इस समय हिम्मत और समझदारी से काम ले रही थी, तो मेरी मां, जो हर तरह से यह कोशिश कर रही थीं कि तुषार मुझसे शादी के लिए ‘हा’ कह दे.

लेकिन मैं अभी भी अपने को छोटी-नादान बच्ची समझ रही थी, इसलिए मां द्वारा चाय लाने के लिए कहने पर मैंने बेरुखी से कह दिया था, “वाह मां, शादी आपको करनी है या मुझे? अरे हम लोगों को भी दो-चार मिनट का समय दो बात करने के लिए एक-दूसरे को समझने-समझाने के लिए.” इस पर सभी ज़ोर से हंस दिए थे और तुषार की मम्मी ने कहा था, “बहनजी, बिटिया सही कह रही है. अब हमारा समय तो रहा नहीं.”

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तुषार और मैं अकेले रह गए थे. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मैंने ही कहा था, “हां तो तुषार साहब, आपको मैं पसंद हूं, लेकिन यदि मैं यह कहूं कि आप मुझे पसंद नहीं हैं, तो आप क्या करेंगे?” तुषार को उम्मीद नहीं थी कि मैं उसके साथ ऐसा व्यवहार करूंगी. इसलिए पहले तो वह थोड़ा झिझका, फिर हंसते हुए बोला, “मैं हाथ जोडूंगा, आपसे अनुनय विनय करूंगा कि हे सुंदरी! तुम मेरा ही वरण करो, तुम्हारे बिना मेरा जीवन अधूरा है.” तुषार का वह समर्पण मुझे अच्छा लगा. इसके बाद हम लोग इधर-उधर की बातें करते रहे. तुषार बैंक में अधिकारी है.
हमारी इच्छानुसार शादी की तारीख़ छह माह के बाद की पक्की कर दी गई. इस बीच मम्मी बराबर कोशिश करती रहीं कि मैं अपने व्यवहार में परिवर्तन लाऊं और घर-गृहस्थी की बातें सीख लूं, लेकिन मैं हमेशा बेफ़िक्री से कह देती, “डोंट वरी मम्मी, मैंने तुषार को परख लिया है, वह तो मेरी उंगलियों पर नाचने वाला है.”
शादी के बाद तुषार जितना झुकता गया, मैं उसे और झुकाती गई. वह जीवन में बहुत सामंजस्य स्थापित करके चलने वाला था. वह अक्सर कहा करता, “भई हम तो ठहरे बैंक वाले, प्रबंधन की भी सुननी पड़ती है, स्टाफ की भी और ग्राहकों की भी, किसी को नाराज़ नहीं कर सकते. अब एक तुम और बढ़ गई हो.”
इस बीच मेरी भी नौकरी समाज कल्याण बोर्ड में सचिव के पद पर लग गई. तुषार बैंक जाते समय मुझे गाड़ी से ऑफिस छोड़ देता और वापसी में पिकअप कर लेता था. एक बार मेरी मीटिंग चल रही थी और मैं एक घंटे लेट हो गई थी. जब मैंने इसके लिए खेद व्यक्त किया, तब तुषार हंसते हुए बोला, “अरे हमने तो जनाब का २८ साल इंतज़ार किया है. अब ये एक घंटे का इंतज़ार कोई मायने नहीं रखता.”
मैंने यह महसूस किया कि मेरा तो स्वभाव ही मुंहफट था. मैं बिना सोचे-समझे किसी को भी कुछ भी बोल देती थी, जिसे तुषार तो सहन कर लेता था, लेकिन उसके मम्मी-पापा के साथ मेरा यह व्यवहार उसे पसंद नहीं था. एक-दो बार उसने मुझे टोका भी, तब मैं ही उसे कह देती, “मैं कैसी हूं, यह तुम्हें शादी के पहले देखना था.” इसके बावजूद तुषार मुझे अपने व्यवहार में संयम बरतने के लिए कहता और मैं उसकी उपेक्षा कर देती.


धीरे-धीरे तुषार के मन की ग्रंथियों से मेरे व्यवहार के कारण स्नेह का प्रवाह कम होने लगा. उसने मुझे भरपूर मौक़े और समय दिया कि मैं उसकी अपेक्षानुसार बन जाऊं, लेकिन मेरा हठी स्वभाव और लापरवाही इसमें बाधक बन रही थी. जब तुषार का दिल्ली ट्रांसफर हो गया, तो मैंने कहा था, “मैं यहीं रह कर अपनी नीकरी करना चाहती हूं. तुम अकेले ही दिल्ली चले जाओ, आगे देखेंगे.”
और तुषार दिल्ली आ गया था. मेरी बेरुखी और अल्हड़पन के कारण उसका भोपाल आना कम हो गया था. पत्र और फोन का संपर्क भी धीरे-धीरे टूट गया था और हम दोनों अनजान से हो गए थे. मैं अकेली थी, इसलिए अधिकांश समय मायके में ही गुज़रता था. मां और भाई जब तुषार के पास जाने के लिए ज़्यादा ज़िद करते, तो मैं अपनी नौकरी का वास्ता देकर उन्हें चुप कर देती थी.
शायद कोई स्टेशन आ गया था. उतरने और चढ़ने वालों की आपाधापी मची हुई थी.

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तुषार को देखकर आज अच्छा लगा था. कभी-कभी मैं सोचती, क्या स्वयं मेरे द्वारा ही पैदा की गई समस्या का कभी कोई हल निकल पाएगा? मेरी नासमझी की सज़ा तुषार भोग रहा था. मैंने शादी के बाद उसे दिया ही क्या है? अपनी समस्याएं… और उसने सामंजस्य स्थापित करने के नाम पर त्याग ही किया था. मेरे अकेले वापस आने पर सभी तरह-तरह के प्रश्न कर रहे थे. तुषार मिला था क्या..? उससे बात हुई थी? वह कब आ रहा है? मां की आंखों में उम्मीद की एक किरण थी. लेकिन मेरे अकेले आने से ऐसा लगा, मानो सबकी उम्मीदों पर पानी फिर गया था.
मेरा अंतर्द्वंद्व चलता रहा और बिना किसी ठोस आधार के तुषार के साथ मेरा बिछोह चलता रहा.
हर कोई अपने-अपने स्तर से सोच रहा था कि मेरा और तुषार का एकाकीपन ज़्यादा नहीं चल पाएगा. मां की सोच थी कि इनके बीच पैदा हुई तकरार थोड़े समय के बाद एक-दूसरे को समझने पर दूर हो जाएगी, जबकि मेरे विचार में ऐसा कुछ नहीं होना था. मेरी हमउम्र सहेलियों की सोच थी कि शादी के बाद एक शारीरिक संतुष्टि की भी ज़रूरत होती है. जिसके कारण मेरा और तुषार का बिछोह अधिक दिन नहीं चल सकेगा. मैं हैरान थी कि मेरा अल्हड़पन इन सब बातों से ऊपर था. बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की चमक के बीच मैं तुषार की छवि को हृदय में बसाकर ही संतुष्ट हो जाती थी, तो ठंड की कंपकपाहट होने पर रजाई के अंदर तुषार की उपस्थिति को काल्पनिक एहसास दे संतुष्ट हो जाती थी. राह चलते में महसूस करती कि तुषार मेरे साथ है. एक बात मेरे दिलो-दिमाग़ में ज़रूर घूमती रहती कि मैं तो इस काल्पनिक मनःस्थिति से संतुष्ट हो लेती हूं, परंतु तुषार भी तो एक संपूर्ण पुरुष है और फिर वह भी तो रति-काम की इस दुनिया में विचरण कर रहा है. वह अपनी शारीरिक संतुष्टि और मानसिक शांति के लिए अगर किसी और की बांहों में विश्राम करने लगा, तो मेरा क्या होगा? बस यहीं आकर मेरा समीकरण गड़बड़ा गया. मेरा विश्वास डोल गया और एक तीव्र वेदना से हृदय जल उठा.

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मैं अब और विवाद तथा उपहास का केन्द्र बनना नहीं चाहती थी. मुझे अपने कृत्यों पर गंभीरता से सोचना था और तुषार के प्रति अनन्य भाव से समर्पित होना था. मेरा अन्तर्मन चीत्कार कर रहा था कि शिव की क्रोधाग्नि से यज्ञ विध्वंस होने के पहले मुझे शिव की शरण में चले जाना चाहिए. आज मैं शिव और तुषार में समरूपता देख रही थी. भोला-भाला तुषार… मेरे सुख के लिए उसने विष का प्याला पी लिया था, क्रोध को त्याग दिया था. अपनी कामाग्नि पर संयम का तुषाराघात कर दिया था.
दिन तो कामकाज में गुजर जाता, लेकिन रातें बड़ी मुश्किल से गुज़र रही थीं. बाद में मुझे यह भी मालूम हुआ था कि हमारे मिलन के लिए ही मेरे भाइयों ने तुषार को मेरे दिल्ली जाने के कार्यक्रम के बारे में बताया था. लेकिन हमारे मिलन का वह अभियान सफल न होने पर अब घर के सभी लोग उदासीन हो गए थे. अब अकेले चलते हुए ही राह बनानी थी. तुषार की तरफ़ रुझान होने पर परिस्थितियां बदली सी नज़र आने लगी थीं. शारीरिक क्षुधा और मानसिक उत्तेजना तुषार से मिलने के लिए प्रेरित कर रही थीं.
अगले ही दिन मैं निरपेक्ष भाव से अपने को हालात के हवाले कर, दिल्ली रवाना हो गई. वातावरण में ठंडक थी. हल्की धुंध के बीच सूरज की किरणें स्टेशन की छत की दरारों से गुज़र कर एक-एक डिब्बे पर अटक रही थीं. मैंने अलसाई आंखों से एक उड़ती निगाह स्टेशन पर डाली और अपना सामान उठाकर डिब्बे से उतरने लगी. तभी प्लेटफॉर्म के एक कोने में मालगाड़ी से सटे एक आदमी को देखकर मेरी निगाहें फिर थम गई थीं. वही जाना-पहचाना चेहरा… उड़ते बाल, रूमाल से चश्मे के कांच पर जमी धुंध को साफ़ करते तुषार पर. तो क्या तुषार रोज़ इसी तरह स्टेशन पर आता है, मेरे इंतज़ार में? या कोई और हो, जिसे छोड़ने या लेने वह आता है. मैं उदासीन भाव से गेट की तरफ़ बढ़ने लगी. तभी तुषार पास आया और सामान अपने हाथ में लेते हुए बोला, “चलो घर चलें.” और मैं एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह उसके पीछे चल दी.
मेरे व्यवहार में आई गंभीरता और सकारात्मक सोच को देखते हुए मेरे घर से निकलने पर मेरे भाइयों ने तुषार को फोन कर दिया था. तुषार और मैं, नए-नवेले दुल्हा-दुल्हन की तरह घूमते हुए हनीमून का लुत्फ़ ले रहे थे. तुषार कह रहा था, “हमारे इस स्वच्छंद मिलन में विलंब ज़रूर हुआ, लेकिन वैवाहिक जीवन में बिना किन्हीं दबाव, अहं एवं पूर्वाग्रहों के समर्पण ही सार्थक होता है.”

– संतोष श्रीवास्तव

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Usha Gupta

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